Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

हमारी शिक्षा

 

भारतवर्ष का वह एक समय था कि यहाँ ऊँच-नीच सब लोग विद्वान कला-कौशल में निपुण, उद्योगी, साहसी और धार्मिक हुआ करते थे यह बात बहुत प्राचीन समय की नहीं है अभी महाराजा भोज के समय तक इस देश की यह दशा बनी रही महाराज भोज के दरबार में यदि कोई एक नवीन श्लोक बनाकर ले जाता था तो वे उसे एक लाख मुद्रा बतौर इनाम में देते थे उसी भारत की ऐसी शोचनीय दशा हो गई है कि नीच जातियों में विद्या-प्रचार के लिए क्या कहा जाय, उच्च जातियों में भी विद्या का अभाव है इसका कारण हमारी सरकार की उदासीनता और सर्वसाधारण का उसकी ओर उचित ध्यान न देना ही है भारत सरकार हमारी शिक्षा के लिए क्या व्यय करती है, इसे सुनकर पाठकों को चकित और दुखित होना पड़ेगा सरकार इस देश में शिक्षा प्रचार के लिए एक आना के लगभग प्रति व्यक्ति व्यय करती है जिन देशवासियों से सरकार एक अरब से कुछ अधिक धन वार्षिक वसूल करती है, उनकी शिक्षा के लिए इतना कम खर्च करना न्याय है अथवा अन्याय, इसे हमारे पाठकगण अवश्य सोच लें यह तो हुई सरकार की बात, परन्तु स्वयं इस देश के राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार, धनी लोग जो अपना समय सुखपूर्वक आनन्द से व्यतीत करते हैं, वे अपने देशवासियों की शिक्षा का कहाँ तक उपाय करते  हैं ? भाँति-भाँति के विषय-भोग अथवा अपनी शान-शक्ति के लिए वे चाहे जितना धन फूँक दें, परन्तु अपनी सन्तान की शिक्षा के लिए आवश्यक धन खर्च करना उनको अत्यन्त अखरता है हमें इस समय एक उदाहरण याद आ गया हमारे पड़ोस में एक सेठ जी रहते थे सेठ की सम्पत्ति एक लाख अनुमान से कही जाती थी उनके एक पुत्र था, वह बहुधा हमारे पास आया-जाया करता था और हमसे पढ़ने को समाचार-पत्र और पुस्तक माँग ले जाता था धीरे-धीरे उसे लिखने-पढ़ने का व्यसन हो गया अब उसकी इच्छा हुई कि कुछ पुस्तकें अथवा अखबार मैं भी मंगाऊँ, परन्तु उसका पिता इस बात को सुनकर बड़ा ही क्रोधित होता और इस काम के लिए उसे एक पैसा न देता यदि कहीं मेला अथवा तमाशा होता, तो उसे दस-दस, बीस-बेस रूपये निकालकर दे देता और मेला अथवा तमाशे में जाने का बहुत ही आग्रह करता यदि उस धन में से वह लड़का कुछ बचाकर पुस्तकें मँगाता और उसका पिता इस बात को न जान पाता, तो वह उसे खूब ही पीटता यह दुर्दशा देखकर उसने छिपकर अपने एक मित्र के नाम से पुस्तकें मँगाना प्रारम्भ किया और उसके पास से वे किताबें ले आता और अपने घर पर यह प्रगट करता कि अमुक से मैं पुस्तकें माँगकर ले आया हूँ पाठकगण ! सुना आपने, इस देश के धनी लोगों में शिक्षा का उत्साह का हाल ? इस प्रकार की बातों को जानकार भी लोग केवल ब्रिटिश सरकार के सिर पर ही शिक्षा की कमी का अपराध मढ़ते हैं यह बात हम स्वीकार करते हैं कि सरकार हमारे शिक्षा के कामों में अब तक जितना चाहिए उससे बहुत कम व्यय करती है, परन्तु सरकार से अधिक उदासीन हम हैं, जिनको शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए क्या हम स्वयं अपनी शिक्षा का कुछ भी प्रबन्ध नहीं कर सकते ? सरकार जब कोई नया टैक्स हमारे सिर पर मढ़ देती है, या हर तीस वर्ष बाद मालगुजारी बढ़ा देती है तो हम यह धन, प्रसन्नता अथवा अप्रसन्नता से, किसी न किसी प्रकार देते जरूर हैं हम क्यों देते हैं ? सरकार जबरदस्त है, और हम प्रसन्नतापूर्वक टैक्स न दें तो सरकार तो उसे वसूल कर ही लेती है यदि हम इस देश में शिक्षा-प्रचार के लिए अपने ऊपर टैक्स लगा लें और उसे नियमित रूप से शिक्षा-प्रचार के काम में लगाते जावें, तो क्या हमारी शिक्षा में उन्नति नहीं हो सकती ? जो लोग व्याख्यान देकर अथवा लेखनी को वृथा ही कष्ट पहुँचाकर दूसरों की निन्दा करने में ही अपना अभीष्ट कार्य पूरा हुआ समझते हैं, उन्हें यह बात अवश्य सोचनी चाहिए इटली देश के उद्धारक महात्मा मेंजिनी के जीवन-चरित  में एक स्थान पर लिखा है कि जब वह देश-विद्रोहियों के भय से इंग्लैंड चले गए, तो वहाँ उन्होंने देखा कि यहाँ के धनी लोग इटली के बालकों को मोल ले आते हैं और उन्हें  कुछ थोड़ा बहुत गाना-बजाना सिखाकर उनसे भीख मँगवाकर अपने उदर की पूर्ति करते हैं, तो अपने देश के बालकों की यह दशा देख उनको बहुत ही अधिक सन्ताप हुआ परन्तु वह बेचारा वहाँ करता क्या ? उसके व्याख्यानों अथवा उसकी पुकार को वहाँ कौन सुनने वाला था ? अन्त में उसने यह उपाय सोचा कि अगर बालकों को शिक्षा दी जाय तो इनको गुलामी के कष्ट और अवगुण का स्वतः ज्ञान हो जायगा अगर मीठा देने से मरे तो विष न देना चाहिए, इस कहावत को ही उसने मानो उस समय अपना लक्ष्य बनाया उन बालकों को शिक्षा देने के लिए उसने न तो किसी से भीख माँगी, न चन्दा एकट्ठा किया, वरन जो धन वह स्वयं अपने परिश्रम से कमाता था, उसी में से कुछ बचाकर उसने एक मकान किराये पर लिया और उन बालकों को छिपकर शिक्षा देता दिनभर वे बालक अपने मालिकों के लिए भीख माँगते और रात्रि को वहाँ पढ़ते धीरे-धीरे जब उनको ज्ञान हुआ, तब उन्होंने गुलामी के बन्धन को समझा और उन्होंने अपने मालिकों से, जो उनसे भीख मँगाते थे, साफ-साफ कह दिया कि हम आपके लिए भीख माँगकर नहीं ला सकते किसी मनुष्य के यह अधिकार नहीं है कि वह किसी को भीख माँगकर ला देने के लिए मजबूर करे अन्त में उन बालकों ने अपने मालिकों से सम्बन्ध त्याग दिया और मेंजिनी की आज्ञानुसार वे इटली की स्वतन्त्रता के लिए अपने प्राण विसर्जन करने के हेतु स्वदेश की ओर रवाना हुए उन बालकों को गुलामी के बन्धन से मुक्त करने में न तो मेंजिनी को किसी से लड़ना पड़ा, न वाक-युद्ध ही करना पड़ा केवल उनमें विद्या-ज्ञान का अंकुर उत्पन्न कर देना ही उसने काफी समझा बस, एक ही उद्योग से उसका कार्य सिद्ध हो गया क्या हम लोग, जो स्वतन्त्रता के पक्षपाती हैं और स्वराज्य पाने की इच्छा रखते हैं, थोड़ा-सा स्वार्थ त्याग करके देश में विद्या का प्रचार करने का साहस नहीं कर सकते अगर ग्राम-ग्राम में नहीं तो हर एक जिले में चार-पाँच जातीय पाठशालाएँ स्थापित करके वे व्याख्याता, जिनको शहर के प्रकाश के सिवाय उस अन्धकार में जाने का कभी अवसर ही नहीं प्राप्त हुआ, वहाँ जाकर उन्हें विद्या-रुपी सूर्य से स्वराज्य का प्रकाश फैलाना चाहिए व्यर्थ की निन्दा अथवा बकवाद से न तो किसी देश का कल्याण हुआ है, न हो सकता है

(मार्गशीर्ष-कृष्ण ९, सं० १९६४)

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