Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

हिन्दू धर्मोपदेश:

 

 

सघ्ने शक्ति: कलौ युगे।

हिताय सर्वलोकानां निग्रहाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय प्रणम्य परमेश्वरम।।

ग्रामे ग्रामे सभा कार्या ग्रामे ग्रामे कथा शुभा।

पाठशाला मल्लशाला प्रतिपर्व महोत्सव:।।

अनाथा: विधवा: रक्ष्या: मन्दिराणि तथा च गौ:।

धर्म्यंसंघटनं कृत्त्वा देयं दानं च तद्धितम्।।

स्त्रीणां समादर: कार्यों दु:खितेषु दया तथा।

अहिंसका न हन्तव्या आततायी वधार्हण:।।

अभयं सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यं धृति: क्षमा।

सेव्या: सदाऽमृतमिव स्त्रीभिश्च पुरुषैस्तथा।।

कर्मणां फलमस्तीति विस्मर्तव्यं न जातु चित्।

भवेत्पुन: पुनर्जन्म मोक्षस्तदनुसारत:।।

स्मर्तव्य: सततं विष्णु: सर्वभूतेष्ववस्थित:।

एक एवाऽद्वितीयो य: शोकपापहर: शिव:।।

‘पवित्राणां पवित्रं यो मन्गलानां च मन्गलम्।

दैवतं देवतानां च लोकानां योऽव्यय: पिता'।।

सनातनीया: सामाजा: सिक्खा: जैनाश्च सौगता:|

स्वे स्वे कर्मण्यभिरता: भावयेयु: परस्परम्।।

विश्वासे दृढ़ता स्वीये परनिन्दा विवर्जनम्।

तितिक्षा मतभेदेषु प्राणिमात्रेषु मित्रता।।

‘श्रुयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्त्वा चाप्यवधार्यताम्।

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।

यदन्यैर्विहितं नेच्छेदात्मन: कर्म पूरुष:।

न तत्परस्य कुर्वीत जानन्नप्रियमात्मन:।।

जीवितं य: स्वयं चेच्छेत्कथं सोऽन्यं प्रघातयेत्|

यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत्’।।

न कदचिद्विभेत्त्वन्यान्न कन्चन विभीषयेत्।

आर्यवृत्तिं समालम्ब्य  जीवेत्सज्जनजीवनम्।।

सर्वे च सृखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तुमा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्।।

इत्युक्त लक्षणा प्राणिदु:खध्वंसनतत्परा।

दया बलवतां शोभा न त्याज्या धर्मचारिभि:।।

पारसीयैर्मुसल्मानैरीसाईयैर्यहुदिभि:|

देशभक्तैर्मिलित्त्वा च कार्या देशसमुन्नति:||

पुण्योऽयं भारतोवर्षो हिन्दुस्थान: प्रकीर्तित:।

वरिष्ठ: सर्वदेशानां धन-धर्म-सुखप्रद: ।।

‘गायन्ति देवा: किल गीतकानि। धन्यास्तु ये भारतभूमि भागे।।

स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते। भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्त्वात्।।

मातृभूमि: पितृभूमि: कर्मभूमि: सुजन्मनाम्

भक्तिर्महति देशोऽयं सेव्य: प्राणैर्धनैरपि।।

चतुर्वणर्यं यत्र सृष्ट गुणकर्मविभागश:।

चत्त्वार आश्रमा: पुण्या: चतुर्वर्गस्य साधका:।।

उत्तम: सर्वधर्माणां हिन्दूधर्मोऽयमुच्यते।

रक्ष्य: प्रचारणीयश्च सर्वलोकहितैषिभि:।।

 

हिन्दी-अनुवाद


कलियुग में एकता ही में शक्ति है।


परमेश्वर को प्रणाम कर, सब प्राणियों के उपकार के लिये, बुराई करनेवालोंको दबाने के लिये, धर्म संस्थापना के लिये, धर्म के अनुसार संगठन-मिलाप कर गाँव-गाँव में सभा करनी चाहिए, गाँव-गाँव में कथा बिठानी चाहिए, गाँव-गाँव में पाठशालाखोलनी चाहिए, गाँव-गाँवमें अखाड़ा खोलना चाहिए और पर्व-पर्व पर मिलकर बड़ाउत्सव मनाना चाहिए।

सब भाइयों को मिलकर अनाथों, विधवाओं, मन्दिरों और गौ की रक्षा करनीचाहिए और इन सब कामों के लिये दान देना चाहिए। स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए।दुखियों पर दया करनी चाहिए। उन जीवों को नहीं मारना चाहिए जो किसी पर चोटनहीं करते। मारना उनको चाहिए जो आततायी हों, अर्थात् जो स्त्रियों पर या किसी दूसरेके धन, धर्म या प्राण पर वार करते हों, या किसी के घर में आग लगाते हों। यदि ऐसेलोगों को मारे बिना अपना या दूसरों का धर्म, धन या मान न बच सके तो उनको मारना धर्म है।

स्त्रियों तथा पुरुषों को भी निडरपन, सच्चाई, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य,धीरज और क्षमा का अमृत के समान सदा सेवन करना चाहिए। इस बात को कभी न भूलना चाहिए कि भले कर्मों का फल भला और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है, और कर्मोंके अनुसार ही प्राणी को बार-बार जन्म लेना पड़ता है या मोक्ष मिलता हैं।

घट-घट मे बसने वाले भगवान्विष्णु का, सर्वव्यापी ईश्वर का सुमिरन सदाकरना चाहिए, जो कि एक ही अद्वितीय है, अर्थात् जिनके समान दूसरा कोई नहीं औरजो दुःख औऱ पाप के हरने वाले शिवस्वरूप हैं। जो सब पवित्र वस्तुओं से अधिकपवित्र, जो सब मंगल कर्मों के मंगलस्वरूप, जो सब देवताओं के देवता हैं और जोसमस्त संसार के आदि सनातन अजन्मा अविनाशी पिता हैं।

सनातनधर्मी, आर्यसमाजी, ब्रह्मसमाजी, सिक्ख, जैन और बौद्ध आदि सबहिन्दुओंको चाहिए कि अपने विशेष धर्म का पालन करते हुए एक दूसरे के साथ प्रेमऔर आदर से बरतें। अपनेविश्वास में दृढ़ता, दूसरे की निन्दा का त्याग, मतभेद में (चाहे वह धर्म-सम्बन्धी हो या लोक-सम्बन्धी) सहनशीलताऔर प्राणीमात्र से मित्रतारखनी चाहिए।

धर्म के सर्वस्व को सुनो और सुनकर उसके अनुसार आचरण करो। जो कामअपने को बुरा या दुखदायी जान पड़े उसको दूसरे के साथ न करो। मनुष्य को चाहिएकि जिस काम को वह नहीचाहता है कि कोई दूसरा उसके साथ करें, उस काम को वह भी किसी दूसरे के प्रति न करे। क्योंकि वह जानता है कि यदि उसके साथ कोई ऐसी बात करता है जो उसको प्रिय नहीं हैं, तो उसको कैसी पीड़ा पहुँचती हैं।

जो चाहता है कि मैजीऊँ वह कैसे दूसरे का प्राण हरने का मन करे?जो-जो बात मनुष्य अपने लिये चाहता है वही-वही औरों के लिये भी सोचनी चाहिए।

मनुष्य को चाहिए कि न कोई किसी से डरे,न किसी को डर पहुँचावे।श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश के अनुसार आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों की वृत्ति में दृढ़ रहतेहुए ऐसा जीवन जीवे जैसा सज्जन को जीना चाहिए।

हरएक को उचित है कि वह चाहे कि सब लोग सुखी रहें, सब नीरोग रहें,सबका भला हो। कोई दु:ख न पावे। प्राणियों के दु:ख को दूर करने में तत्पर, यह दयाबलवानो की शोभा है। धर्म के अनुसार चलनेवालों को कभी इसका त्याग नहीं करनाचाहिए।

देश की उन्नति के कामों में जो पारसी, मुसलमान, ईसाई, यहूदी देशभक्त होंउनके साथ मिलकर भी काम करना चाहिए।

 यह भारतवर्ष जो हिन्दुस्थान के नाम से प्रसिद्ध है, बड़ा पवित्र देश है। धन,धर्मऔर सुख का देनेवाला यह देश सब देशों से उत्तम है। ‘कहते हैंकि देवता लोगयह गीत-गाते हैं कि वे लोग धन्य हैजिनका जन्म इस भारतभूमि में होता है, जिसमेंजन्म लेकर मनुष्य स्वर्ग का सुख और मोक्ष दोनों को पा सकता हैं|’

 यह हमारीमातृ-भूमि है, यह हमारी पितृ-भूमि है। जो लोग सुजन्मा हैं-जिनके, जीवन बहुत अच्छे हुए हैं, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि महापुरूषों के, महात्माओं,आचार्यो,, ब्रह्मर्षियों और राज़र्षियों के, गुरुओं, धर्मवीरों, शुरवीरों, दानवीरों के, स्वतंत्रताके प्रेमी देशभक्तों के उज्ज्वल कामों की यह कर्म-भूमि है। इस देश में हमको परमभक्ति करनी चाहिए और प्राणों से और धनसे भी इसकी सेवा करनी चाहिए।

जिस धर्म में परमात्मा ने गुण और कर्म के विभाग से ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शुद्र ये चार वर्ण बनाए और जिसमें धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थोंके साधन में सहायक,मनुष्य का जीवन पवित्र बनाने वाले ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ,और सन्यास, ये चार आश्रम स्थापित हैं| सब धर्मो से उत्तम, इसी घर्म को हिन्दूधर्म कहते हैं। जो लोग सारे संसार का उपकार चाहते हैं,उनको उचित है कि इस धर्म की रक्षा और इसका प्रचार करें।

 


सन्तान क्री प्रार्थना

आर्य-सन्तान में से प्रत्येक युवती और युवा को, जिनका विवाह हो गया हैऔर जो चाहते हैं कि उनकी सन्तान देशभक्त, वीर, धीर, विद्वान् और धर्म में दृढ़ हो,उनको प्रतिदिन स्नान के उपरान्त सूर्य के सामने खड़े होकर परमात्मा का ध्यान करनीचे लिखी प्रार्थना करनी चाहिए।

प्रार्थना

रवि शशि सिरजनहार प्रभु, मैं बिनवत हौं तोहिं।

पुत्र सूर्यसम तेजयुत जगउपकारी होहिं।।

होय पुत्र प्रभु रामसम अथवा कृष्ण समान|

वीर धीर बुध धर्मदृढ़ जगहित करै महान||

जो पै पुत्री होय तो सीता सती समान|

अथवा सावित्री सदृश धर्म शक्ति गुन खान||

रक्षा होवै धर्मकी बढ़ै जाति को मान|

देश पूर्ण गौरव लहै जय भारत सन्तान||

मैं दुर्बल अति दीन प्रभु पै तुव शक्ति अपार|

हरहु अशुभ शुभ दृढ़ करहु बिनवहुँ बारम्बार||

 

जन्म-संस्कार

सन्तान का जन्म होते ही नाल छेदन के पहिले हरएक बच्चे के एक-एककान में तीन-तीन बार परमात्मा के सबसे उत्तम नाम 'राम' इस महामंत्र को कहकरउसको नीचे लिखे श्लोक या दोहों से आशीर्वाद देना चाहिए और जब तक बच्चा स्वयम् राम-राम कहने न लगे तबतक माता को नित्य एक बार ऐसा ही करना चाहिए। –

 

 

श्लोक

           

रमते सर्वभूतेषु स्थावरेषु चरेषु च।

अन्तरात्मस्वरुपेण यो हि राम: प्रकीतर्यते।।

तस्यैवांशौऽसिजीव त्त्वंसच्चिदानन्दरुपिण:।

देहे निरामये दीर्घं वस धर्मे दृढो भव।।

 

दोहा

 

थावर जंगम जीवमें घट-घट रमता राम।

सत-चित-आनन्द-घन प्रभू सब विधि पूरण काम।।

अंश उसीके जीव हो करो उसीसे नेह।

सदा रहो दृढ़ धर्म चिर वसो निरामय देह।।

 

ईश्वर का ध्यान

 

राम ब्रह्म चिन्मय अविनासी।सर्वरहित सब उरपुर बासी।।

आदि अन्त कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।

बिनु पद चलइसुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करै बिधि नाना||

आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु वानी वकता बड़ जोगी।।

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा।।

असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहीं बरनी।।

 

विद्यारम्भ-संस्कार

शास्त्र कहते हैं-

विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।

पात्रत्त्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं तत: सुखम्।।

गरुड़पुराणमें लिखा है-

इहाऽमूत्र सुखक्षेममाहुर्विद्याधनं धनम्।

विद्ययाऽमलया युक्तों विमुक्तिंयाति संयमी।।

विद्यया च सुखं गच्छेत् विद्यया च परान्गतिम्।

एक दूसरे पुराण में लिखा है-

अन्त्यजा अपि यां प्राप्य मोदन्ते ग्रहराक्षसै:।

सा विद्या केन मीयेत यस्या: कोऽन्य: समोऽपि: न।।

विद्या से विनय होता है, विनय से मनुष्य पात्र (योग्य) बनता है, योग्यता से धनप्राप्त होता है, धन से धर्म होता है और उससे सुख होता है। विद्यारूपी धन बड़ा धन है।वह इस लोक में और परलोक में भी सुख और कल्याण का देनेवाला है। विमल विद्याके ही द्वारा सन्यासी मूक्ति पाता है, विद्या से ही मनुष्य सुख पाता है, और इसी के द्वारापरम गति को पाता है। जिस विद्या को पाकर अन्तयज लोग भी ग्रहराक्षसों के अर्थात् बड़े-बड़े लोगों के साथ सुख से मिलते डोलते हैं उस विद्या की किससे तुलना की जाय। उसकेबराबर कोई नहीं। इसलिये जो लोग इस लोक मेंधन, धर्म, सुख और सन्मान चाहते हैंउनको उचित है कि अपने बालकों और बालिकाओं को विद्या अवश्य पढावें।

विष्णुधर्मोत्तर में लिखा है-

विद्या कामदुघा धेनुर्विद्याचक्षुरनुत्तमम्।

विद्या मनवांछित फल कीदेने वाली कामधेनु है और विद्या सबसे उत्तम ज्ञान देने वाला नेत्र है। मार्कण्डेय मुनि ने लिखा है कि-

प्राप्ते तु पंचमे वर्षे विद्यारम्भं तु कारयेत्।

पूजयित्त्वा। हरिंलक्ष्मी देवीं चापिसरस्वतीम्।।

जब बालक का पाँचवाँ वर्ष आरम्भ हो तो विद्यागुरु परमेश्वर की,लक्ष्मीजी की और सरस्वती देवी की पूजाकर उसको पढ़ना प्रारम्भ करना चाहिए। उचित है कि बालकोंको कम-से-कम पाँच वर्ष से चौदह वर्ष तक पढाया जाय।

 


देवनागरी-वर्णमाला

देवनागरी अक्षर संसार के सब अक्षरों से अधिक सरल और स्पष्ट हैं। एकमहीने में बालक उन अक्षरों को सीख लेते हैं। इन्हीं अक्षरों में हिन्दुओं के सब धर्मशास्त्रऔर समस्त ग्रन्थ लिखे हुए हैं। प्रत्येक हिन्दूको उचित है कि अपनी सन्तान को पहलेइन्हीं नागरी अक्षरों का लिखना और पढ़ना सिखाकर तब किसी दूसरी भाषाके अक्षरों को सिखावे।

धर्म-महिमा

विद्या रूपं धनं शौर्य कुलीनत्त्वमरोगिता।

राज्यं स्वर्गश्च मोक्षश्च सर्वं धर्मादवाप्यते।।

तस्मात्सर्वात्मना धर्मं नित्यं तात समाचर।

मा धर्मविमुख: प्रेत्य तमस्यन्धे पतिष्यसि।।

धर्म से विद्या, रूप, धन, शूरता, कुलीनता, निरोगता, राज्य, स्वर्ग और मोक्षसब प्राप्त होता है। इसलिये,हे पुत्र! नित्य हृदय से धर्म का आचरण करो। धर्म सेविमुख होकर अधर्म मत करो, नहीं तो घोर नरक में गिरोगे।

वेदव्यासजी का वचन है-न जातु कामान्न भयान्न लोभात् त्यजेद्धर्मं जीवितस्यापिहेतो:। किसी सुख या सम्पत्ति पाने कीइच्छा से, या डर से, या लालच से और प्राण के बचाने के लिये भी धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

जो दृढ़ राखै धर्म को तेहि राखै करतार।

जो अपने धर्म में दृढ़ रहता है उसकी परमात्मा रक्षा करते हैं।

मनुष्य का सबसे बड़ाधन धर्म है। इसीलिये बड़े और छोटे कितने प्राणियोंने संकट पड़ने पर अपने प्राण दे दिए, किन्तु अपना धर्म नहीं छोडा। न केवल इस लोक में किन्तु परलोक में भी साथ देनेवाला एक धर्म ही है। इसलिये भक्तलोग प्रार्थना करते हैं कि- सिर जावै तो जाय प्रभु मेरो धर्म न जाय।

मंत्र-संस्कार

हरएक हिन्दू सन्तान का धर्म है कि वह अपने बालक और बालिकाओं काउनका आठवाँ वर्ष प्रारम्भ होते ही किसी सद्गुरु के द्वारा मन्त्र-संस्कार करा दे

‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ ॐ नमो नारायणाय ‘ॐ नम: शिवायऔरश्री रामाय नम:’इन मंत्रों के ग्रहण करने का और जपने का अधिकार ब्राह्मण से लेकरचाण्डालपर्यन्त सबको है। चारों वर्णों के पुरुषों और स्त्रियों के लिये ये मंत्र मंगलकारीहैं। इन मंत्रों के द्धारा बालक और बालिका को जगत्पिता परमात्मा का ज्ञान करा देनामाता, पिता, गुरु आदि का परम कर्त्तव्य है।

प्रात:काल 'ॐ नमो नारायणाय'इस मंत्र के द्वारा सूर्य के सामने खड़े होकरईश्वर को सूर्यमण्डलमें विराजमान ध्यान कर अर्घ्यदेना चाहिए। और अर्घ्यदेकर एकसौ आठ बार या कम-से-कम दस बार मंत्र जपना चाहिए। सायंकाल फिर पवित्रहोकर सूर्य के सामने खड़े होकर ईश्वर को सूर्यमण्डल में विराजमान ध्यान कर अर्घ्यदेना चाहिए और 'ॐ नम: शिवाय'इस मंत्र को एकसौ बार या कम-से-कमदस बार जपना चाहिए।

जिनका वैदिक विधि से उपनयन-संस्कार हुआ है, उनको वैदिक विधि सेसंध्या करने के उपरान्त इन मंत्रों के द्वारा ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। मनुष्य के मनको पवित्र करने, पाप से छुटाने,धर्म के मार्ग में ले जाने और ईश्वर का ज्ञान और ध्यानकराने के लिये ये मंत्र परम साधन हैं।

प्रायश्चित्त और सन्ध्या

रात्रि में पुरुष या स्त्री से जो पाप या भूल हो जाय उसका प्रातःकाल उठकरनहा-धोकर पछतावा करना चाहिए और ईश्वर से उस पाप या भूल के लिये क्षमा माँगनीचाहिए और यह संकल्प करना चाहिए कि फिर पाप या भूल न होवे। इस प्रकार से तनऔर मन को पवित्र कर 'ॐ नमो नारायणाय' इस मंत्र से सर्वव्यापक और सूयंमण्डलमें प्रकाशमान ईश्वर का ध्यान कर श्रद्धा और भक्ति से जल और फूल से अर्घ्य देकरमंत्र के द्वारा उनकी उपासना करनी चाहिए।

इसी प्रकार दिन में जो पाप या भूल बन पड़े उसका प्रायश्चित्त सायंकालसन्ध्याके द्वारा करना चाहिए और सब पवित्रता और मंगल के निधान परब्रह्म का 'ॐनम: शिवाय'इस मंत्र के द्वारा पूजन और ध्यान करना चाहिए। नारायण, वासुदेव, रुद्र,बिष्णु, पितामह, राम, कृष्ण, शिव, ईश्वर, परमेश्वर, परब्रह्म, आदिदेव, महादेव, यह सबएक ही जगत्पिता के अनेक नाम हैं। इनमें भेदभाव समझना भूल है।

जो पुरुष और स्त्री ऊपर लिखी विधि से सबेरे और साँझ को मन, वचन से,या काया से, भूल से या जानकर भी जो पाप हुए हैंउनका प्रायश्चित्त करते रहते हैंउनका मनपाप में लिप्त नहीं होता और प्रतिदिन ईश्वर के ध्यान से उनका मन पवित्रऔर प्रकाशमय होता जाता है। इसलिये जो अपना भला चाहता है, उस प्रत्येक प्राणी को नित्य नियम और श्रद्धा के साथ ऊपर लिखी विधि से सन्ध्या और परमात्मा की उपासनाकरनी चाहिए।


एकादशी-व्रत

मनुष्य अपने कपड़ेको रोज धोता है, तथापि कई दिन पहन चुकने के बादजब कपड़ाअधिक मैला हो जाता है तो उसको चौथे, आठवें या पन्द्रहवें दिन साबुनया रीठे से धोता है या धूलवाता है, और उस कपड़े की मैल जो नित्य धोने पर भी बचरही है वह निकल जाती है। इसी प्रकार ऋषियों ने मनुष्यमात्र केहित के लियेप्रात:काल और सायंकाल की सन्ध्या और उपासना विधि के अतिरिक्त पन्द्रहवें दिनएकादशी व्रत का विधान किया है। इस एकादशी व्रत कीबड़ी महिमा है। चौदह दिनमें जो कुछ पाप या भूल बनी हो उसके प्रायश्चित्त के लिये इस एकादशी के व्रत कीविधि कही गई है। इस तिथि को हरिवासर, आर्थत्ईश्वर का दिन कहते हैं। इसका यहअभिप्राय है कि यद्यपि ईश्वर का ध्यान और पूजन प्रतिदिन करना चाहिए तथापि पन्द्रहवेंदिन अपने नित्य के काम और व्यापार से मन को खींचकर धर्म के भाव से विशेषभावित होना,पन्द्रह दिन में जो कुछ पाप या भूल बन गई हो उसका पछतावा करनाऔर इस प्रकार से उसके कालेपन से अपने मन को मुक्त और पवित्र करना, ईश्वर केध्यान और स्तुति से, मंत्र के जप से, कथा और उपदेश के सुनने से, मन में ज्ञान, भक्तिऔर धर्म का भाव दृढ़ करना, यह विशेष मंगल का मार्ग है। एकादशी व्रत करने काब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्त चारों वर्णोंको अधिकार है। तत्त्वसागर में लिखा है-


मातेव सर्वबालानामौषधं रोगिणामिव।

रक्षार्थंसर्वलोकानां निर्मितैकादशी तिथि:।।

संसाररोगदष्टानां नराणां पापकर्मणाम्।

एकादश्युपवासेन सद्य एव सुखं भवेत्।।



जैसे सब बच्चों के लिये माँ सहारा और हित करनेवाली है, जैसे रोगी केलिये औषधि है,वैसे ही सब प्राणियों की रक्षा के लिये एकादशी तिथि नियत की गईहै। संसार के रोग से डसे हुए पाप करने वाले प्राणियों के लिये एकादशी का उपवासतुरन्त ही सुख और मंगल करने वाला होता है। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में लिखा है-


विशोधनमिदं पुंसां शुष्कार्द्रस्यांहस: परम्।

तत्स्यरूपं श्रुतं तीर्थं स्नानादप्यधिकं विदु:।।

स्वर्गमोक्षप्रदा ह्येषा राज्यपुत्र प्रसाधिनी।

सुकलत्रप्रदा ह्येषा शरीरारोग्यदायिनी||


जो पाप पुराने होकर सूख गए हैं या जो अभी ओदे अर्थात् तुरन्त के किए हैं, उन सब पापों के धोने के लिये यह एकादशी का व्रत सबसे ऊँचा साधन है। इसके फल को कुछ लोग तीर्थस्नान से भी अधिक बताते हैं। श्रद्धा और भक्तिपूर्वक व्रत करनेवालों को यह एकादशी स्वर्ग, मोक्ष, राज्य, पुत्र और भली स्त्रीको देनेवाली है। इसलिये प्रत्येक हिन्दू-सन्तान को उचित है कि एकादशी के दिन व्रत रहा करें।

उपवास करना सबके लिये आवश्यक नहींबच्चों, बूढों,सधवास्त्रियों औररोगियों को उपवास करना विहित नहीं है। जिनको उपवास करने की शक्ति नहीं है,उनको उचित है कि दूध या फल खाकर रहेंअथवा केवल एक समय शुद्ध भोजन कर दिन बितावेंऔर यह भी न हो सके तो एकादशी के दिन माँस तो कदापि न खायं औरपुरुष-स्त्रीदोनोब्रह्मचर्य से रहें। उस दिन विशेष रूप से ईश्वर का ध्यान और आराधनकरें, और सायंकाल कथा सुनें और ईश्वर के नाम और उसकी महिमा का कीर्त्तन करें।


मद्य का निषेध


बुद्धिं लिम्पति यद्दव्यं तद्धिमादकमुच्यते।


मनुष्य को परमात्मा ने सबसे बड़ी निधि बुद्धि दी है। जो वस्तु बुद्धि को मैलीकरती या हर लेती है उसको मादक अर्थात् नशीली वस्तु कहते हैं। मनुष्य को उचितहै कि किसी प्रकार का नशीला पदार्थ कभी ग्रहण न करे। ब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्तहिन्दू-सन्तान के लिये मदिरा पीना मना है। मनुजी से लेकर सब ऋषियों ने लिखा हैकि मदिरा का पीना ब्राह्मण की हत्या के समान महापातक है। और शिवपुराण में लिखाहै कि सब वर्णों के प्राणियों का यह धर्म है कि वे मद्य को और मद्य की गन्ध को भीबचावें। इसलिये प्रत्येक हिन्दू-सन्तान को उचित है कि वह स्वयं मद्य का ग्रहण न करे और अगर उसका कोई भाई मद्य ग्रहण करता हो तो अपनी सामर्थ्य भर उसकोमदिरापान के पाप और दोष से छुटाने का जतन करें।

 

व्यापार


धनाद्धर्मं तत: सुखम्


पुरुष और स्त्री सब मनुष्य-सन्तान को उचित है कि वे अपने परिश्रम सेकुछ-न-कुछ धन अर्जन करें। उसका सबसे अच्छा और सरल उपाय यह है कि देशका प्रत्येक प्राणी और विशेषकर प्रत्येक स्त्रीथोड़ा सूत कातें और गाँव भर के प्राणीमिलकर इतना सूत कातें जितना उनके आवश्यक वस्त्र बनाने के लिये काफी हो, औरअपने गाँव ही में उस सूत को बुनवा कर कपड़ेको काम में लावें। इससे उनको घनऔर धर्म दोनों का लाभ होगा। देश में हाथ के काते सुत और हाथ के बुने कपड़ेका प्रचार से हमारे करोड़ों भाइयों और बहनों को पेट को अन्न और तन को वस्त्र मिलनेलगेगा और कितनों की लाज और पत रह जायगी। इसलिये जितना ही हम देशी कपड़ेका बुनना और काम में लाना बढ़ावेंगे उतना ही हमको अपने भूखे भाइयों और बहनोंको अन्न वस्त्र के दान का पुण्य मिलेगा। विदेशी कपड़े के द्वारा इस समय हमारे देश का बहुत अधिक धन हर साल दूसरे देशों को जाता है। इसको पाकर वहाँ के लोग तोसुखी होते हैं, किन्तु इस देश के लोगों की जीवन-शक्ति घटती जाती है। इंगलैण्ड तथाऔर देशों में मनुष्य की औसत आयु पचास वर्ष के लगभग है, किन्तु इस देश में केवलतेईस वर्ष के लगभग है। इन कारणों से प्रत्येक भारतवासी का यह कर्त्तव्यहै कि वह विदेशी वस्त्र का व्यवहार और व्यापार बन्द करें और स्वदेशी वस्त्र का और उसमें भी जहाँ तक हो सके खद्दर, अर्थात् हाथ से काते सूत के कपड़ेका व्यवहार बढ़ावें


शारीरिक बल

शास्त्र में लिखा है कि-

धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलकारणम्।


धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पदार्थों के साधन का मूल कारणआरोग्य है। आरोग्य, निरोगता, तन्दुरुस्ती के बिना इनमें से एक का भी साधन नहीं हो सकता। आरोग्य रखने के लिये यह आवश्यक है कि पुरुष और स्त्री नियम के साथउचित परिश्रम, अर्थात् कसरत करें। पुरुष और स्त्री सब स्नानकर प्रात:काल सूर्यनारायणके सामने खड़े होकर अपनी शक्ति के अनुसार १०, २०, ५०, १०० बार नमस्कारकरके अपने मन को पवित्र और शरीर को निरोगऔर बलवान कर सकते हैं।

प्रत्येक स्त्री और पुरुष को उचित है कि किसी-न-किसी प्रकार का व्यायाम नित्य करें। जिसमें धर्म के साधन,अर्थ के कमाने,सुख के भोगने और अन्त में परमात्माके प्राप्त करने के लिये उसकी काया प्रबल और मन निर्मल बना रहे। जो प्राणी नित्यव्यायाम करते हैं उनको रोग नहीं सताता। यदि किसी संयोग से आ भी जाता है तो बिनाबहुत क्लेश दिए उनको छोड़कर चला जाता है।

समस्त हिन्दू-सन्तान के लिये शास्त्र के अनुसार मैंने सन्क्षेप में हिन्दूधर्म काकुछ उपदेश लिख दिया है। जो प्राणी श्रद्धा और भक्तिपूर्वक इस उपदेश को बर्तेगा वहइस लोक में सुख और मान पावेगा और परलोक में परम पद को पहुँचेगा।


श्री विश्वनाथ: प्रसीदतु।

(माघ कृष्ण अमावश्या, सं.१९९०)

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