Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सन् १९०४ की प्रस्तावित योजना

प्राक्कथन

 

       हिन्दू विश्विविद्यालय की योजना की प्रमुख विशेषताएँ पहले पहल सन् १९०४ में मिण्ट-हाउस बनारस में श्रीमान् महाराजाधिराज बनारस के सभापतित्त्व में होने वाली सभा में प्रकट की गई थीं इस योजना का अधिकांश भाग लिख लिया गया था, और महीनों के वाद–विवाद और विचार के पश्चात् जुलाई के अंत में यह छपने के लिये भेज दी गयी थी सन् १९०५ के अक्तूबर महीने में इसकी अनेक प्रतियाँ भिन्न –भिन्न प्रान्तों के प्रमुख हिन्दुओं को भेजी गई थीं और उन्होंने इस योजना का हार्दिक स्वागत किया था ३१ दिसम्बर सन् १९०५ में बनारस टाउन हॉल में समस्त भारत की हिन्दू जनता के प्रतिनिधियों और सुप्रसिद्ध शिक्षा-प्रेमियों की सभा हुई, जिसमें एक समिति नियुक्त हुई, जो इस योजना की अभिवृद्धि में सहयोग दे और उसका निश्चित स्वरूप निर्णय करे  अन्त में यह योजना प्रयाग में २० से २१ जनवरी १९०६ ई. तक आयोजित सनातनधर्म महासभा के अधिवेशन के सम्मुख रक्खी गई समस्त भारतवर्ष के हिन्दुओं ने इस सभा के कार्यक्रम में भाग लिया था परमहंस परिव्राजकाचार्य जगद् गुरु श्री शंकराचार्यजी के सभापतित्त्व में सुप्रसिद्ध साधुओं तथा विद्वानों की इस सभा ने निम्नांकित प्रस्ताव पास किए कि..........

१. भारत विश्वविद्यालय के नाम से काशी में एक हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की जाय, जिसके निम्नांकित उद्देश्य हों .........  

     (अ)  श्रुतियों तथा स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित वर्णाश्रमधर्म के पोषक सनातनधर्म के सिद्धान्तों का प्रचार   करने के लिये धर्म शिक्षक तैयार करना

      (आ)     संस्कृत भाषा और साहित्य के अध्ययन की अभिवृद्धि करना

(इ)   भारतीय भाषाओँ तथा संस्कृत के द्वारा वैज्ञानिक तथा शिल्प-कला-सम्बन्धी शिक्षा के प्रचार में योग देना  

२. विश्वविद्यालय में निम्नांकित संस्थाएँ होंगी........

(अ) वैदिक विद्यालय--- जहाँ वेद-वेदांत, स्मृति, दर्शन, इतिहास तथा पुराणों की शिक्षा दी जाय  ज्योतिष विभाग में एक ज्योतिष-सम्बन्धी तथा अन्तरिक्ष-विद्या-सम्बन्धी वेधशाला भी निर्मित की जाय

(आ) आयुर्वेदिक विद्यालय ---जिसमें प्रयोगशाला हो तथा वनस्पति-शास्त्र के अध्ययन के लिये एक उद्यान भी हो | एक सर्वोत्कृष्ट चिकित्सालय तथा पशु-चिकित्सालय की स्थापना की जाय |

(इ) स्थापत्यवेद व, अर्थशास्त्र---जिसमें तीन विभाग होंगे | (१) भोतिकशास्त्रा विभाग (सैद्धान्तिक तथा प्रयोगात्मक), (२) प्रयोगों तथा अन्वेषण के लिये एक प्रयोगशाला और (३) मशीन तथा बिजली का काम सीखने वाले इंजीनियरों की शिक्षा के लिये मंत्रालय की स्थापना की जाय |

(ई) रसायन विभाग----जिसमें प्रयोगों और अन्वेषणों के लिये प्रयोगशालाएँ तथा रासायनिक द्रव्यों के बनाने की शिक्षा के लिये यंत्रालय स्थापित किया जाय |

(उ) शिल्पकला विभाग ---जिसमें मशीन द्वारा व्यवहार में आने वाली नित्यप्रति की वस्तुएँ तैयार की जायँ | इस विभाग में भूगर्भशास्त्र, खनिज तथा धातुशास्त्र की शिक्षा भी सम्मिलित रहेगी |

(ऊ) कृषि विद्यालय---जहाँ प्रयोगात्मक तथा सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ कृषिशास्त्र के नवीन अनुभवों के अनुसार दी जाय |

(ए) गन्धर्व वेद तथा अन्य ललित कलाओं का विद्यालय |

(ऐ) भाषा विद्यालय---जहाँ अंग्रेजी, जर्मन तथा अन्य विदेशी भाषाएँ इस उद्देश्य से पढ़ाई जायँ कि उनकी सहायता से भारतीय भाषाओँ का साहित्य-भण्डार नये रत्नों से परिपूर्ण हो तथा विज्ञान कला के नवीन शोधों द्वारा उनके विकास में अभिवृद्धि हो |

३. (अ) इस विश्वविद्यालय का धर्म-सम्बन्धी कार्य तथा वैदिक कॉलेज का कार्य उन हिन्दुओं के अधिकार में होगा जो श्रुति, स्मृति तथा पुराणों द्वारा प्रतिपादित सनातनधर्म के सिद्धान्तों के माननेवाले होंगे |

(आ) इस विद्यालय में वर्णाश्रमधर्म के नियमानुसार ही प्रवेश होगा |

(इ) इस विद्यालय के अतिरिक्त अन्य सब विद्यालयों में सब धर्मावलम्बियों तथा सब जातियों का प्रवेश हो सकेगा तथा संस्कृत भाषा की अन्य शाखाओं की शिक्षा बिना जाती-पाँति का भेदभाव किए सबको दी जायगी |

४ (अ) निम्नांकित सज्जनों की एक समिति बनाई जाय जिन्हें अपने सदस्यों की संख्या बढ़ाने का अधिकार हो, जो इस विश्वविद्यालय की आयोजना को कार्य रूप में परिणत करने के लिये आवश्यक उपाय काम में लावें, जिसके मंत्री माननीय पण्डित मदन मोहन मालवीय हों |

(आ) बनारस टाउन हॉल की सभा में जो समिति नियुक्त हुई थी, उसके सदस्यों से प्रार्थना की जाय कि वे इस समिति के भी सदस्य हो जायँ |

५. (अ) विश्वविद्यालय के लिये एकत्र किया हुआ समस्त धन काशी के माननीय मुंशी माधोलाल के पास भेजा जाय जो उसे “”””” “”बैंक ऑफ बंगाल, बनारस’’ में जमा कर दे , जबतक कि उपर्युक्त समिति इस सम्बन्ध में कोई और आज्ञा न दे |

(आ) इस विश्वविद्यालय के लिये  आए हुए रुपयों में से तबतक कुछ भी धन व्यय न किया जाय जबतक कि विश्वविद्यालय समिति एक संगठित संस्था की तरह रजिस्टर्ड न हो जाय | और जबतक इसके नियम निश्चित न हो जायँ तबतक इसका व्यय सनातनधर्म महासभा के लिये आए हुए धन में से होना चाहिए |

इस प्रकार जो समिति बनी , उसने अपना कार्य चालू कर दिया है | यह सोचा गया है कि विश्वविद्यालय का शिलारोपण ३० लाख रूपया एकत्र हो जाने पर अथवा एक लाख रूपया वार्षिक सहायता का वचन मिल जाने पर हो जाना चाहिए |

      दाताओं की इच्छानुसार दान तथा चन्दे द्वारा आया हुआ धन विश्वविद्यालय के विशेष विभागों तथा विशेष कार्यो के लिये , अथवा विश्वविद्यालय के लिये खर्च किया जायगा |

प्रयाग                                                                          मदन मोहन मालवीय

 

 

मार्च १२ , सन् १९०६ ई.                                                                       मंत्री

 

 

प्रथम भाग

 

 

इसकी आवश्यकता क्यों हुई?

 

    भारतीय हिन्दू जनता की वर्तमान दशा समस्त विद्वान् हिन्दुओं द्वारा विचारणीय है| हिन्दुओं की वर्तमान आर्थिक दशा की तुलना एक सुसम्पन्न अँग्रेज जैसी जाति से करने से सम्भवत: हिन्दुओं की दशा का पता चल जाय | भारतवासियों की प्रतिदिन की आय का औसत ,(जिसमें अधिकांश हिन्दू ही हैं और जनसंख्या का केवल १/६ भाग ही मुसलमानों का है ), लगभग एक आना प्रति व्यक्ति है, अर्थात् इंग्लैण्ड के प्रति व्यक्ति औसत आमदनी का केवल बीसवाँ भाग | पिछले ५० वर्षो के इतिहास से प्रकट है कि यह थोड़ी सी आय भी प्रतिदिन घटती जा रही है | हिन्दुओं की शिक्षा का भी इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जनसंख्या का ९४.१ प्रति सैकड़ा भाग अशिक्षित है| कुछ प्रान्तों-- जैसा कि संयुक्तप्रान्त, में देखा गया है कि जनसंख्या का ९७ प्रतिशत भाग अशिक्षित है| अशिक्षितों की संख्या का औसत इंग्लैण्ड में ४.७ प्रतिशत तथा जर्मनी में 0.११ प्रतिशत है| भारतभर में हिन्दू जाति के अधिकांश लोग खेती या मजदूरी करते हैं, उनकी सूखी हुई हड्डियाँ, धंसी हुई आँखें, फटे कपड़े और टूटे मकान ही घोर दरिद्रता की साक्षी दे रहे हैं, फिर आँकड़ों की आवश्यकता ही क्या ? प्रत्येक दसवें वर्ष इनमें से लाखों दुष्काल के कराल गाल में चले जाते हैं और बहुत से प्रतिवर्ष प्लेग के शिकार बन जाते हैं| यह बात भलीभाँति विदित है कि हिन्दू लोग अन्य जातियों की अपेक्षा प्लेग के जल्दी शिकार बनते हैं| हिन्दुओं का स्वास्थ्य और उनका शारीरिक सौन्दर्य प्रतिदिन नष्ट होता जा रहा है| जनसंख्या की गणना के हर अवसर पर हिन्दू जाति की शक्ति-क्षीणता, शीघ्र मृत्यु और उत्पत्ति-हीनता निरंतर दृष्टिगोचर होती जा रही है| हिन्दुओं का उच्च वर्ग इसलिये नष्ट हो रहा है कि उन्हें अपनी जीविका का मार्ग बन्द सा मालूम पड़ता है, तथा निम्न श्रेणी के लोग इसलिये दुःखी हैं कि उनकी शक्ति अत्यधिक जीवन प्रतियोगिता के कारण नष्ट हो रही है| हिन्दू कृषक, जो समाज के आधारस्तम्भ हैं, अधिकांश प्रान्तों में, जमीन की प्रतियोगिता के कारण अनुचित भूमि कर देने के लिये बाध्य किये जाते हैं और इसलिये वे भूखों मरते हैं| देश के बहुत से भागों में जमीन्दार कर्ज के असहनीय भार से दबे हुए हैं| जो धनवान् हैं वे या तो मुक़दमेबाजी के शिकंजे में जकड़े हुए हैं अथवा उन्हें अपनी इन्द्रिय-लोलुपता से ही छुट्टी नहीं मिलती, अथवा वे भिन्न-भिन्न समुदायों में बंटकर अपनी शक्ति का दुरूपयोग कर रहे हैं|

     जनसंख्या का अधिकांश भाग सरकार को इसके लिये दोषी ठहराता है| यद्यपि वर्तमान शासन-प्रणाली तथा कानूनों का स्वरूप हमारी आर्थिक दुरवस्था के लिये अधिकांश में उत्तरदायी है, परन्तु केवल एक यही बात ही किसी देश का भविष्य निर्णय करने में सहायक नहीं होती | यद्यपि सरकार के समर्थक भी शाशन की त्रुटियों का अनुभव कर रहे हैं तथापि इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि वर्तमान शासन-प्रणाली सरकार के प्रमुख कर्त्तव्यों का पालन कर रही है, अर्थात् शान्ति –स्थापन तथा देशवासियों के जानमाल की रक्षा करना इसके प्रशंसनीय कार्य हैं | सरकार ने सभ्यता की अभिवृद्धि के लिये और भी अधिक कार्य किए हैं और इसकी छत्रच्छाया में हम यश, योग्यता तथा धन प्राप्त कर सकते हैं | बम्बई के पारसी और भाटिया तथा कलकत्ते के सुसम्पन्न तथा वैभवशाली मारवाड़ी इसके जीते जागते उदाहरण हैं | और भी अन्य जातियाँ इसी तरह अथवा इससे भी अधिक उन्नति कर सकती हैं| तब क्या कारण है कि इन सब बातों के होते हुए भी वर्तमान हिन्दू जाति की यह दशा है? वे धन-धान्य से परिपूर्ण देश के निवासी हैं, उनका देश संसार के अन्य देशों की भांति उपजाऊँ है और अच्छे-से-अच्छे खाद्य पदार्थ तथा फल भी इसी भूमि में उत्पन्न होते हैं|  इस देश के जंगलों में ईंधन तथा लकड़ी की भी प्रचुरता है|  देश की खानों से बहुमूल्य खनिज पदार्थ प्रतिवर्ष निकलते हैं| देश के कृषक परिश्रमी, गम्भीर और मितव्ययी हैं| उद्योग-धन्धी पुरुष चतुर और व्यवसायी हैं, देश के मजदूर सन्तोषी और परिश्रमी हैं, देश की ऊँची श्रेणीवाले लोगों में ऐसे व्यक्ति हैं जो संसार के सभ्यातिसभ्य मनुष्यों के साथ सभ्यता की प्रतियोगिता में खड़े किए जा सकते हैं, और वे उचित अवसर आने पर संसार के सभ्य पुरुषों द्वारा किए जाने वाले सभी महत्त्वपूर्ण कार्य करने की क्षमता रखते हैं | प्राचीन समय में भारत में अनेक महापुरुष उत्पन्न हुए हैं और उन्होंने अनेक महान् कार्य भी किए हैं | हिन्दू समाज उस समय एक उच्च तथा सुन्दर नींव पर खड़ा था | अब वह एक निराधार जनसमूह मात्र रह गया है | यह अवस्था किसी भी कारण से हुई हो, किन्तु यह बात सर्वसम्मत है कि हिन्दू समाज के ह्रास का प्रमुख कारण यह है कि समाज के अधिकांश अंगों ने समाज को धारण करने वाली शक्ति धर्म के पालन करने में शिथिलता दिखलाई है |

    सहस्त्रों वर्षों से हिन्दू लोग इस बात के लिये प्रसिद्ध रहे हैं कि उन्होंने जीवन के अन्य अंगों की उपेक्षा कर धर्म को अधिक महत्व दिया है| प्रोफ़ेसर मेक्समूलर से अधिक भारत के प्राचीन इतिहास के ज्ञाता सम्भवतः कोई भी हमारे सम्मुख नहीं है| उन्होंने हमारे कथन की पुष्टि करते हुए कहा है कि “” महाभारत के वर्णनों के आधार पर, यूनानी आक्रमणकारियों की सम्मति को लेकर, बौद्धों के त्रिपिटिकों तथा स्वयं उपनिषदों और वेदमन्त्रों के आधार पर, महाराज हर्ष के समय से लेकर अब तक भारतीय संस्कृति में हमें जो बात मुख्य दिखलाई पड़ती है वह यह है कि भारतवासियों ने सदा से आध्यात्मिक उन्नति की ओर ही विशेष ध्यान दिया है, तथा भारतीय जाति हमें दार्शनिकों तथा विचारकों की एक जाति दिखलाई पड़ती है”’’  “( Six Systems of Hindu Philosophy, 1st Ed.,p.42)|

    दुःख है कि जिस स्वरूप का चित्रण उक्त सुप्रसिद्ध विद्वान् ने किया है, समय के परिवर्तन से आज समाज का वह स्वरूप नष्ट हो गया है| धर्म आज मुख्यतः समाज के थोड़े से इधर-उधर के लोगों तक ही परिमित है | थोड़े से व्यक्तियों को छोड़कर अधिकांश विद्वान् तथा अग्रणी मनुष्य सरकारी नौकरियों के पीछे दौड़ते हैं और सांसारिक उन्नति की ही चिंता करते हैं| वे धर्म का नाम लेना एक प्रकार से भूल ही जाते हैं| जो धनिक तथा शक्तिशाली हैं वे अपने निजी झगड़ों तथा सांसारिक पचड़ों में इस प्रकार उलझे हुए हैं कि वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति की ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं देते | बचे हुए लोगों में अशिक्षित कृषक, छोटे दुकानदार, नौसिखुए उद्योग-धन्धेवाले, भूख से व्याकुल श्रमजीवी तथा पूर्णतया दुखी और आतुर पुरुष सम्मिलित हैं| थोड़े से व्यक्तियों को छोड़कर प्रत्येक हिन्दू इस बात को भूल रहा है कि उसके कार्यों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है और वह अपनी डफली पर अपना राग अलाप रहा है | संगठित जीवन के चिन्ह, पारस्परिक विश्वास तथा सहयोग हिन्दू समाज से पूर्णतया लुप्त हो गए हैं | जनसमुदाय का सुचारू रूप से संचालन करने वाले व्यक्ति बहुत ही कम हैं, और जो हैं भी उनमें सहयोग के साथ संगठित रूप से कार्य करने की क्षमता प्रायः नष्ट सी हो गई है|

        वर्तमान शोचनीय दशा में परिवर्तन का एकमात्र उपाय यही है कि जनसमाज में शिक्षा का व्यापक प्रचार किया जाय तथा धर्म को उचित आसन पर प्रतिष्ठित किया जाय | भारत का प्राचीन धर्म इस बात की शिक्षा दे रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने को समस्त संसार का एक अंग समझे और समस्त संसार के लाभ के लिये कार्य करे तथा जीवन-धारण करे, क्योंकि कोई भी व्यक्ति तबतक समस्त संसार के कल्याण में सहायक नहीं हो सकता, जब तक कि वह अपने साथियों के साथ सहयोग नहीं करता | इसलिये धर्म ने जो कुछ नियम बनाए हैं और प्रतिबन्ध रक्खें हैं, वे यदि उचित रूप से कार्य में लाए जायँ और उनका उचित रूप से मनन किया जाय तो मनुष्यमात्र में अच्छे सम्बन्ध स्थापित हो जायं; समाज प्रेम तथा उदार भावनाओं से ओत-प्रोत हो जाय और उसके द्वारा संसार का अधिकाधिक कल्याण हो|

    हममें से बहुतों की राय है कि यदि हम भारतवर्ष के प्राचीन धर्म का पालन करेंगे तो संसार से विरक्त और उदासीन बन जायेंगें | यह सत्य है कि हिन्दू लोग कभी उस समय में भी माया के फेर में नहीं पड़े जब वे संसार में सबसे अधिक धनी समझे जाते थे | उनका ध्येय लक्ष्मीपूजा छोड़ अन्य ध्येयों की ओर अग्रसर होना था, और उन ध्येयों में उन्होंने वह सफलता प्राप्त की, जिसके लिये कोई भी राष्ट्र अभिमान कर सकता है | किन्तु हिन्दू समाज के संस्थापकों ने तो धन को भी मनुष्य जीवन का उद्देश्य माना है | वास्तव में यह मनुष्य जीवन के चार प्रमुख उद्देश्यों, अर्थात् धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में से, एक उद्देश्य रहा है | धर्मशास्त्र तथा अध्यात्मशास्त्र के साथ-साथ अर्थशास्त्र का भी अध्ययन होता था | केवल एक अथवा दो अंगो में ही उन्नति करने वाला व्यक्ति पूर्ण रूप से उन्नत नहीं समझा जाता था |

      भारत का प्राचीन धर्म मनुष्य की इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों जीवन सम्बन्धों को मानता था | हिन्दू सभ्यता का समस्त ढाँचा हिन्दू धर्म के आधार पर खड़ा है | वर्तमान संस्कृत साहित्य में सुरक्षित उस सभ्यता के अवशेष चिन्हों में एक ऐसी योजना दी गई है जिससे प्रत्येक व्यक्ति शारीरिक, नैतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति कर सके और वे सुसंगठित समृद्ध जाति बन सके | प्राचीन धर्म का सबसे पहला उद्देश्य मनुष्य जीवन को सुरक्षित तथा उसे स्वस्थ रखना था| आयुर्वेद धर्मशास्त्र का प्रमुख अंग समझा जाता था और उस समय यह उपवेद के नाम से प्रसिद्ध था |

     भारत का आयुर्वेद यूरोपीय औषधि-विज्ञान का भूला हुआ पिता समझा जाता है -------- जिसके पुत्र को कुछ भी ज्ञान नहीं है, और यद्यपि इस शास्त्र में पिछली सात-आठ शताब्दियों से कोई विशेष उन्नति नहीं हुई, तथापि चरक, सुश्रुत तथा अन्य आयुर्वेदिक विषयों का ज्ञान रखने वाले आयुर्वेद चिकित्सक कलकत्ते जैसे प्रसिद्ध स्थान में भी धन और मान प्राप्त कर रहे हैं, जहाँ यूरोपीय सभ्यता का इतना अधिक प्रचार है, और जहाँ यूरोपीय ढंग से चिकित्सा की जाती है, जिसकी उन्नति में समस्त पाश्चात्य देशों ने योग दिया है, और जिनको सुप्रसिद्ध वैज्ञानिकों ने अपनी विद्वत्तापूर्ण गवेषणाओं द्वारा उपकृत किया है | व्यक्तिगत तथा घरेलू स्वास्थ्य के नियम, खाने – पीने के नियम तथा प्रतिबन्ध इस कथन को भली प्रकार पुष्ट करते हैं | वे हिन्दू समाज के सामाजिक नियमों के अन्तर्गत आ जाते हैं तथा उनका पालन वर्त्तमान हिन्दू धार्मिक कृत्य समझ कर अब तक करते आ रहे हैं |

 

प्राचीन हिन्दुओं का बौद्धिक स्तर

 

     ज्ञान–प्राप्ति तथा मस्तिष्क को संयत और उन्नत करने के लिये भारत के ऋषि महात्माओं ने जिन नियमों को प्रतिपादित किया है, तथा जो साधन बनाए हैं, वे पूर्ण रूप से तर्क तथा बुद्धि के आधार पर अवलम्बित हैं | भाषा, जो मनुष्य के मानसिक विकास के लिये सर्वप्रथम तथा सबसे आवश्यक साधन है, तथा जो मनुष्यमात्र के एक दूसरे पर विचार प्रगट करने का सबसे अच्छा तथा सुगम उपाय है, सर्वप्रथम हिन्दुओं द्वारा परिश्रम तथा बुद्धिमानी से संस्कृत की गई तथा नियमानुसार बनाई गई थी | भाषा की ऐसी पूर्णता का उदाहरण संसार में और कहीं नहीं मिलता | संस्कृत भाषा संसार की समस्त भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट समझी जाती है | यह भाषा मनुष्य के उच्चातिउच्च विचारों को सुन्दर तथा सम्यक् रूप में प्रकट करने के लिए सर्वथा उपयुक्त पाई गई है | यह भाषा स्वर तथा छन्द के नियमों द्वारा इस प्रकार व्यवस्थित की गई है कि मनुष्य जाति के विचारों के संकलन, स्मरण तथा एक दूसरे पर प्रकट करने के लिये संसार में इस प्रकार की दूसरी भाषा मिलना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है | सर मोनियर विलियम्स के कथनानुसार ‘संस्कृत भाषा का अध्ययन मनुष्य को एक ऐसा आनन्द देता है, जिसका प्रभाव कभी किसी अन्य साधन द्वारा कम नहीं किया जा सकता”’’ |” यह बात सर्वसम्मत है कि संसार के किसी और देश ने व्याकरण तथा भाषाशास्त्र के ऐसे सुन्दर नियमों को----- जैसे प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि तथा पतंजलि ने अगाध परिश्रम तथा विद्वत्ता के साथ बनाए--- जन्म नहीं दिया, जैसा भारतवर्ष ने संस्कृत भाषा द्वारा संसार को दिया | असत्य तथा माया का परित्याग करते हुए वास्तविक सत्य की खोज का मार्ग निर्धारित करना सुविद्वान् भारतीय दर्शनकारों का ही कार्य था, जिसकी विद्वत्ता को देखकर संसार आज भी दाँतों तले उँगली दबा रहा है | मनुष्य के विचारों तथा दिव्य भावों के अधिकाधिक विकास के लिये पतंजलि के योगसूत्र द्वारा निर्धारित माध्यम के समान प्रयत्न करने पर भी आज तक संसार के किसी भी राष्ट्र द्वारा प्राचीन तथा वर्त्तमान समय में माध्यम नहीं खोजा जा सका | यह सत्य है कि हिन्दू दर्शनशास्त्र के समस्त सम्प्रदायों द्वारा प्रतिपादित मार्गों का प्रधान उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति का विकास तथा आत्मा की मुक्ति ही था; किन्तु यह बात भी निस्सन्देह कही जा सकती है कि उसके मार्गों का केवल अध्ययन ही करने से सांसारिक ज्ञानों में भी अभिवृद्धि होती है | ऐसा मनुष्य जो ऐसे मार्गों तथा ऐसे दर्शनशास्त्र से भलीभाँति परिचित है, जबतक निश्चित सत्य तथा सिद्धान्तों को नहीं पाता, तबतक उसकी सन्तुष्टि नहीं होती | प्रत्येक वास्तविक ज्ञान तथा प्रत्येक प्रबल अनुभूति का यह सिद्धान्त मानो आधारस्तम्भ है | जिन ॠषियों ने हिन्दू समाज की संस्थापना की, वे सत्य के बड़े भारी पक्षपाती थे और उन्होंने भलीभाँति निर्धारित सत्य सिद्धान्तों के आधार पर ही अपनी सभ्यता तथा संस्कृति की रक्षा की थी |

 

नैतिक और आध्यात्मिक उच्चता

 

     जिस नैतिकता का हमारे ॠषियों तथा महात्माओं ने समर्थन किया है, उसमें मनुष्य जाति के अक्षय अस्तित्त्व और शान्तिपूर्ण सहयोग के गुण भलीभाँति निहित हैं | इसका ध्येय तो पशुपक्षियों तक को हिंसा से बचाना है | अहिंसा मनुष्य के सबसे सुन्दर गुणों में से एक गुण समझा गया है और समाज के समस्त मनुष्य इस नियम का यथाविधि पालन करते हैं | जो मनुष्य अपनी वर्त्तमान अवस्था से ऊँची अवस्था में जाना चाहता था, उसे अहिंसा की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती थी| सत्य मनुष्य का मुख्य धर्म तथा कर्त्तव्य समझा जाता था | सत्यान्नास्ति परो धर्म: | श्रुति, स्मृति, इतिहास तथा पुराण सबमे सत्य को मनुष्य का सर्वप्रथम मुख्य धर्म माना है, और सबमें मनुष्य को प्रत्येक समय तथा प्रत्येक अवस्था पर सत्य जैसे अमूल्य रत्न की रक्षा करने का आदेश दिया है| प्राचीन समय में बालक को सर्वप्रथम गुरु द्वारा यह पाठ पढाया जाता था –  ‘सत्यं वद, धर्म चर’| भारत का साहित्य हरिश्चन्द्र, युधिष्ठिर तथा दशरथ जैसे महानुभावों के चरित्रों से रंगा पड़ा है, जिन्होंने सत्य की वेदी पर अपने जीवन की बलि दे दी थी, और जिसके लिये हिन्दुओं में अब भी उतना ही सम्मान है, और उतनी ही श्रद्धा है | हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों का दूसरा आदेश लोकसेवा का भाव है, जिसकी वर्त्तमान समय में बहुत आधिक आवश्यकता है | हिन्दुओं के पवित्र साहित्य में किसी सिद्धान्त पर इतना जोर नहीं दिया गया जितना मोह को पूर्णरूप से जीत लेने के सिद्धान्त पर | प्राचीन समय के हिन्दुओं के लिये यह सबसे अधिक गौरव की बात थी कि उन्होंने स्वार्थ की भावना का पूर्ण रूप से परित्याग कर वास्तविक सभ्यता के निर्देशन, वसुधैव कुटुम्बकम् के उच्च सिद्धान्त को पूर्ण रूप से अपना लिया था| अपने शरीर, अपने साथियों, तथा अपने बाल – बच्चों की चिन्ता तो पशु भी कुछ समय तक करते हैं| सभ्यता की उच्च कोटि पर पहुँचने से पहले स्वार्थवाद का भाव प्रत्येक मनुष्य समाज में पूर्ण रूप से उपस्थित रहता है| केवल बहुत समय से सभ्यता के उत्तम आदर्श का पालन करती रहने वाली जातियाँ ही विश्च – बन्धुत्व के उच्च आदर्श की रक्षा कर सकती हैं| केवल वे ही मनुष्य लोक – संग्रह का कार्य कर सकते हैं जिन्होंने सांसारिक मोहमाया को जीत लिया है (गीता,३/२०,२४)| चरित्र-गठन की शिक्षा धन संग्रह से सदा उच्च समझी गई थी ( वृत्तं यत्नेन संरक्षेद्वित्तमायाति याति च )| वेदशास्त्रों के कोरे ज्ञान की अपेक्षा चरित्र की पवित्रता को बहुत अधिक उच्च स्थान दिया गया था    ( सावित्रीमात्रसारोऽपि वरं विप्रः सुयन्त्रित:| नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि )| हिन्दू शास्त्रों में क्षमा, धैर्य, शम, दम, दया, परोपकार, अर्थात् वे सब गुण सुन्दर उपदेशों, कथाओं, तथा आख्यायिकाओं द्वारा भली प्रकार निर्देशित किए गए हैं, जिनके पालन से मनुष्य का चरित्र अधिक दिव्य, अधिक पवित्र, अधिक उदात्त बनता है, जिनके ऊपर मनुष्य समाज सधा हुआ है, तथा जो मनुष्यमात्र में शान्ति और कल्याण के बीज बोते हैं | हिन्दू काव्य ने हिन्दू दर्शनशास्त्र के साथ मनुष्य के चरित्र को उच्च बनाने में पूर्ण सहयोग दिया है – उसने यह भलीभाँति शिक्षा दी है कि संसार के समस्त प्राणी दूसरे रूप में उसी के प्रतिबिम्ब हैं, तथा संसार के जिन व्यक्तियों के साथ सह सम्पर्क में आता है उनके कल्याण की चिन्ता करने से वह मनुष्य रूप देवता स्वरूप है, तथा इसके विरुद्ध आचरण करने से वह पशुओं से भी गिरा हुआ है | पुनर्जन्मवाद तथा कर्मवाद के सिद्धान्त इस प्रकार मनुष्य को देवता बनाने में बहुत अधिक सहायक होते हैं|

भारत के पवित्र धार्मिक साहित्य में आध्यात्मिक उन्नति के लिये भारत के ऋषियों, महर्षियों तथा मनीषियों ने जो नियम निर्धारित किए हैं, वे संसार के इतिहास में अद्वितीय हैं|

 

प्राचीन भारत की महान संस्थाएँ और

 

 

राष्ट्रीय एकात्मता तथा समृद्धि को उनकी देन

       संस्कृत साहित्य के विद्वान् तथा चतुर विद्यार्थी इस बात का अवश्य अनुभव करेंगे कि हिन्दू समाज के प्राचीन संस्थापकों का उद्देश्य एक शक्तिशाली, विकसित, वैभव-सम्पन्न तथा सुसंघटित समाज की स्थापना करना था | उन लोगों ने देवी देवताओं के लिये जो प्रार्थनाएँ लिखी हैं, उनमें भी यह उद्देश्य निहित है |

 

सांख्यिक शक्ति

      इस कथन से यह स्पष्ट हो गया होगा कि किसी भी जाति की उन्नति के लिये उसकी जनसंख्या की अभिवृद्धि आवश्यक है | यह भी भलीभाँति विदित है कि वर्तमान समय में इस कमी की पूर्त्ति के लिये फ्रांस तथा अमेरिका के प्रजातन्त्रों में यथासाध्य प्रयत्न किया जा रहा है | प्राचीन समय में हिन्दुओं के लिये यह बात धार्मिक कर्त्तव्य के रूप में सब लोगों पर लागू थी कि सब नागरिकों को इसके लिये यथासाध्य प्रयत्न करना चाहिए | केवल नैष्ठिक ब्रह्मचारी ही लोकसेवा के लिये कौमार्यव्रत धारण करते थे जिनके जीवन का ध्येय समस्त जीवन शिक्षा प्राप्त करना था |

      किन्तु केवल जनसंख्या की अभिवृद्धि ही किसी जाति को शक्तिशाली नहीं बनाती | इसी बात को ध्यान में रखकर हिन्दू शास्त्रकारों ने विवाह-सम्बन्धी नियम बनाए थे, जिससे वर्णसंकर तथा अयोग्य व्यक्ति जन्म लेकर समाज को कलंकित न करें, बल्कि वे ही लोग जन्म लें जो शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक सब दृष्टियों से पूर्ण हैं |

 

 

चार आश्रम, जीवन की चार अवस्थाएँ

 

     इन दिव्य गुणों के विकास के लिये प्रत्येक द्विज के लिये आवश्यक था कि सुयोग्य गुरु की संरक्षता में रहकर ब्रह्मचर्य के साथ विद्यार्थी-जीवन व्यतीत करे| पूर्ण पवित्रता तथा संयम के साथ इस जीवन को बिता लेने के पश्चात् उसे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकार था, किन्तु वहाँ भी लोक-सेवा और परोपकार के सुन्दर नियमों का उसे पालन करना पड़ता था, और इस प्रकार उसे व्यावहारिक ज्ञान बढ़ाने

१.        हे परमात्मन् ! हमारे देश के ब्राह्मण ज्ञानवान तथा पवित्रता के प्रचारक हों, क्षत्रिय शूरवीर, पराक्रमी तथा तेजस्वी हों, कृषकों की गायें प्रचुर दुग्धवर्षा करें, वृषभ शक्तिशाली हों, अश्व द्रुतगामी हों, स्त्रियाँ चतुर गृहिणी हों, पुत्र विजयी योद्धा हों, जो अपने तेज से संसार को प्रदीप्त करें ! इस देश में मेघ इच्छानुसार जल बरसाएँ ! हमारी भूमि शस्यपूर्ण हो ! हम धनधान्य तथा वैभव से पूरिपूर्ण हों ( शुक्ल यजुर्वेद वाजसनेयी संहित, अध्याय २२, मन्त्र २२ )

 

 

का अवसर दिया जाता था| गृहस्थ जीवन का त्याग उस समय अनिवार्य था, जब मनुष्य को वृद्धावस्था आ घेरती थी और उसके बाल बच्चे बड़े हो जाते थे| यह समय उसके वानप्रस्थ जीवन का था, जबकि मनुष्य सांसारिक चिन्ताओं तथा नागरिक जीवन से विमुक्त हो एकान्तवास करने लगता था, और उसका मस्तिष्क पूर्ण शान्ति तथा विश्राम का अनुभव करता था, जो उच्च तथा पूर्ण विचारों के चिन्तन के लिये परमावश्यक है | सबके अन्त में सन्यास आश्रम का समय आता था, जब कि मनुष्य का मन पूर्णतया परमपुरुषार्थ के चिन्तन में लीन हो जाता था, और इस संसार के विचारों से एकदम उदासीन हो उसी के लिये प्रयत्न करता था| इस अवस्था में आत्मा को पूर्णतया पवित्र तथा विकसित होने का अवसर मिलता था, और यह अभ्यास उस समय तक रहता था जब तक की यह आत्मा परमात्मा में पूर्णतया लीन न हो जाय, या यों कहिए, जबतक उसे ब्रह्मपद की प्राप्ति ना हो जाय |

 

श्रम-विभाजन, प्रतिभा और अभिक्षमता का वंशानुगत संचरण

 

     सामाजिक उन्नति के लिये समाज का कार्य भिन्न-भिन्न व्यक्तियों तथा वर्गों में बँटा हुआ था, जिनका कर्त्तव्य उस कार्य को सुचारू रूप से पूर्ण करना था, और अपने अनुभव, योग्यता, चतुराई आदि को अपनी सन्तान के लिये छोड़ जाना था | ज्ञान के विकास और उसकी रक्षा करने, नियमों और धर्मिक संस्थाओं द्वारा समाज को नियमित करने तथा शिक्षा – सम्बन्धी साहित्यिक तथा वैज्ञानिक कार्य द्वारा सभ्यता को उन्नत करने का उत्तरदायित्व समाज के एक ऐसे अंग को सौंप दिया गया था, जो बचपन से ही ज्ञान और सद्गुण को अपनी परम निधि मानते थे, और जिन्हे कठोर आत्मत्याग और आत्म – निर्भरता की शिक्षा दी जाती थी| समाज की रक्षा का भार उन मनुष्यों को सौंप गया था, जो अपने बाहुबल तथा राज्यशासन – प्रबन्ध की योग्यता के कारण इस कार्य के लिये सर्वथा उपयुक्त थे | धन की उपज और उसको समाज में विभाजन करने का काम एक ऐसे वर्ग को सौंपा गया था, जो अपने परिश्रम, मितव्ययिता, ज्ञान तथा व्यवहार – कुशलता द्वारा इस कार्य को भलीभाँति पूर्ण कर सकता था | यद्यपि क्षत्रिय तथा वैश्य अपने अपने निर्धारित कार्य के लिये शिक्षित बनाए जाते थे, तथापि उनके लिये वेदों तथा शिक्षा के अन्य अंगों का ज्ञान उतना ही आवश्यक था, जितना ब्राह्मणों के लिये | नीची श्रेणी के लोगों को समाज के उच्च अंगों की सेवा करने का विधान था| यह बात संसार के सब देशों में तथा सब समय पर होती आई है | प्रत्येक जाति के लिये इस प्रकार जो जाति धर्म बनाए गये थे, समाज  – हित के लिये उस जाति ने उनका पालन भली प्रकार किया, और इसी रूप में कुलधर्म का कुछ कुलों ने पालन कर समस्त समाज के हितों का ध्यान उसी प्रकार रक्खा, जिस प्रकार शरीर का प्रत्येक अवयव शरीर के हित के लिये प्रत्येक समय कार्य करता हुआ शरीर–रक्षा में योग देता है |

 

सामाजिक संस्थाओं के वास्तविक परिणाम

 

 

    हमारा प्राचीन वर्णविभाग वर्त्तमान समय के उन नियमों के अनुसार ही था जिन्हें आज सभ्य संसार श्रमविभाजन तथा ‘रूचि और बुद्धि की परम्परागत प्राप्ति’ के नाम से पुकारता है | ये नियम आश्रम-विभाग की संस्था के हित के लिये कार्य करते थे, और इन्हीं नियमों के परिणामस्वरूप भारतवर्ष शताब्दियों तक संसार के सबसे धनाढ्य और वैभवसम्पन्न देशों में से एक समझा जाता था| यूनानी इतिहासकार हेरदतुस् ने भारतवासियों को अपने समय की सबसे बड़ी जातियों में से एक कहा था | उस समय यूनान से बढ़कर सभ्य समझी जाने वाली थ्रेशियन जाति भी भारतवासियों की अपेक्षा कम बलवती थी | भारत के धनधान्य की प्रचुरता से सिकन्दर के समय से लेकर अब तक अनेक विदेशी आक्रमणकारियों के मुँह में पानी भर आया | भारत की बनी हुई वस्तुओं की प्रशंसा संसार में प्रत्येक जगह होती थी | एशिया तथा यूरोप के देशों में भारत की बनी वस्तुओं की खूब बिक्री होती थी | कर्नल टॉड द्वारा वर्णित राजस्थान के इतिहास के समय तक सिपाही लोग अपनी शूरवीरता तथा युद्धकौशल के लिये विख्यात थे, जिस समय कि हमारा जातीय इतिहास पराकाष्ठा को पहुँच गया था | संस्कृत साहित्य में भारतीय वैभवपूर्ण जातियों, शक्तिशाली राज्यों, सुन्दर नगरों, दर्शनीय प्रासादों, उद्यानों, क्रीड़ास्थलों, व्यापारिक उन्नति, उद्योग-धन्धों, कलाकौशल तथा विद्वत्ता के सुन्दर तथा हृदयग्राही वर्णन मिलते हैं| ये वर्णन केवल कवियों के दिमाग की उपजमात्र ही न थे, जैसा कि कुछ लोगों का विचार है, बल्कि मेगस्थनीज तथा ह्वेनशांग आदि विदेशी यात्रियों के लिखे वर्णन भी इसी कथन की पुष्टि करते हैं | भारतीय समाजशास्त्र का थोड़ा भी ज्ञान रखने वाला विचारपूर्ण व्यक्ति इस बात को निस्संकोच मानेगा कि प्राचीन समय में भारतवासियों ने खनिज पदार्थों से भरपूर भारत जैसी उर्वरा भूमि में विद्वान् परोपकारी ॠषि महात्माओं द्वारा बनाई संस्थाओं में पलकर जीवन के भिन्न-भिन्न अंगों में कैसी आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर ली थी | यूरोप के संस्कृत विद्वान् अब इस बात को स्वीकार करते हैं कि धर्म, दर्शनशास्त्र, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, कविता, नाटक, वास्तुकला, संगीतशास्त्र, कला-कौशल, उद्योग-धन्धों, तथा विद्या के समस्त अंगों को भारतीयों ने ही जन्म दिया और अपने परिश्रम से उन्होंने जो रूप उन्हें दिया है उसका दूसरा उदाहरण सम्भवत: और कहीं भी न मिलेगा |

 

शास्त्रीय संस्कृति, धार्मिक शिक्षा एवं नियंत्रण का अभाव

 

    वर्त्तमान समय में भारतीय हिन्दुओं की जो शोचनीय दशा हो गई है, वह मुख्यत: हमारे प्राचीन साहित्य तथा धर्म से उदासीनता के कारण है| कोई ऐसी संस्था भारत में नहीं है जो जनसमाज में, सत्य, पवित्रता, कार्यशीलता तथा आत्म-नियंत्रण जैसे सद्गुणों का प्रचार करने के लिये शिक्षक उत्पन्न कर सके, जिसकी आवश्यकता तथा महत्ता भारत के प्राचीन धर्मग्रन्थों में भली प्रकार दिखाई गई है | दो-एक को छोड़ कर सारे हिन्दू शासक, धनी-मानी पुरुष तथा शिक्षित लोग, यहाँ तक कि ब्राह्मण भी नियमानुसार धार्मिक तथा आध्यात्मिक शिक्षा से पूर्णतया वंचित रह जाते हैं| यह तो हमारे समाज की दशा हुई | दूसरी ओर अमेरिका तथा यूरोप के देशों पर दृष्टि डालिए जहाँ शिक्षा के साथ धर्म का भी अध्ययन नियमानुसार होता है, जहाँ अच्छे-अच्छे गिरजाघरों में धार्मिक शिक्षा की पूरी व्यवस्था है, जहाँ पादरी लोग राजकीय आज्ञा से श्रोतागणों को शिक्षा देते हैं, जहाँ धनिक शिक्षित समाज तथा अन्यान्य समुदायों को रोम और यूनान के प्राचीन साहित्य की शिक्षा दी जाती है, जो उन्हें सुसंस्कृत तथा सभ्य बनाने में बहुत अधिक सहायक होते हैं, और जिनके परिणामस्वरूप वे अपने जीवन में प्रसिद्ध महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करते हैं | यूरोप का पठित समाज रोम तथा यूनान के प्राचीन साहित्य से भलीभाँति परिचित तथा शिक्षित है, किन्तु हिन्दू समाज में अधिकांश व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने उच्च शिक्षा तो प्राप्त कर ली है, किन्तु वे अपने देश के प्राचीन तथा पवित्र साहित्य में पूर्णतया पारंगत नहीं हैं, और उनमें से ऐसे लोगों की तो संख्या और भी कम है, जिन्होंने संस्कृत साहित्य के अगाध सागर में गोते लगाकर अमूल्य रत्न निकालने का प्रयत्न किया हो |

 

रोम एवं यूनान के साहित्य के प्रति यूरोपीय सभ्यता की कृतज्ञता

 

 

     यूरोपीय इतिहास के विद्वान् इस बात से भलीभाँति परिचित हैं कि वर्त्तमान यूरोप की सभ्यता, उनका कला – कौशल तथा उनकी वैज्ञानिक उन्नति उसी आन्दोलन के फलस्वरूप है जो पुनरुत्थान के नाम से प्रसिद्ध है, जिसका उद्देश्य मुख्यत: यूनान तथा रोम की सभ्यता का पुनरुत्थान करना था, और जिसका सूत्रपात रोमन सभ्यता के घर इटली में हुआ, और जो क्रमश: फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, इंग्लैण्ड तथा यूरोप के अन्यान्य देशों में फैल गयी |

 

संस्कृत विद्या की पुर्नस्थापना की आवश्यकता

 

     हिन्दुओं की किसी वास्तविक उन्नति से पहले यह आवश्यक हो जाता है कि हिन्दू विद्या की महान् पुर्नस्थापना हो | उनके उद्धार की प्रत्येक योजना में उनकी एतिहासिक प्रगति तथा उनके पुरुषों द्वारा किए गए महान् कार्यों में उचित सामंजस्य स्थापित हो जाना चाहिए | प्रत्येक हिन्दू भाषा और साहित्य की उन्नति के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी जननी संस्कृत भाषा के साहित्य से उचित परामर्श तथा सामग्री लेती रहे | जो इस साहित्य से भलीभाँति परिचित हैं, वे भली प्रकार जानते हैं कि इस साहित्य में नौतिक तथा सांसारिक उन्नति के लिये अनमोल रत्न भरे पड़े हैं|

१.        प्रो. मैक्सम्यूलर इस बात से सहमत है कि संस्कृत साहित्य में ऐसे अनमोल रत्न है,  जिनका पाश्चात्य विद्धानों को बहुत ही थोड़ा ज्ञान है | उनका कथन है कि वास्तव में हमसे पीछे आने वाले सज्जनों के लिए अब भी बहुत सा कार्य करना शेष है, क्योंकि अब तक जो कुछ किया गया है, उससे हम भारतीय दर्शन तथा साहित्य की पहली सीढी पर पहुँचे हैं | हम उस बच्चे की तरह हैं, जिसके सामने प्राचीन साहित्य का अगाध समुद्र है, और वह उसके किनारे खड़ा हुआ है | उसे कभी कभी पत्थर के टुकड़े तथा घोंघे मिल जाते हैं | ( six system of Hindu philosophy , 1st ed ., p.42 )

पाश्चात्य विद्वान् भी संस्कृत साहित्य की वर्त्तमान यूरोप के साहित्य तथा सभ्यता के जनक, यूनानी तथा लैटिन साहित्यों से तुलना करके संस्कृत को श्रेष्ठतर बताते हैं |

 

भारत में अँग्रेजी शिक्षा

 

 

      अंग्रेजी भाषा की शिक्षा वर्त्तमान अवस्था देखते हुए हिन्दू जाति के केवल अल्पांश को ही मिल सकती है | भारत की समस्त संख्या में १००० पीछे ६.८ मनुष्य अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त हैं | इनमें यूरोपियन तथा युरेशियन भी सम्मिलित है | भारत में अंग्रेजी शिक्षा पास हुए अधिकांश ऐसे मनुष्य हैं, जो अपने व्यवसायों और नौकरियों में सम्मान – प्राप्त हैं और कार्यों को योग्यतापूर्वक कर रहे हैं | परन्तु ऐसे बहुत कम स्थान हैं, जहाँ अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की खपत हो | इसी शिक्षा की प्राप्ति के लिये समाज की शक्ति तथा आर्थिक अवस्था का जो भयंकर ह्लास हो रहा है वह अलग, क्योंकि किसी विदेशी भाषा के द्वारा जो शिक्षा किसी देश के बच्चों को दी जाती है, उससे समय तथा धन का भारी अपव्यय होता है, और इससे बचने का एक ही मार्ग है कि उससे देश के बच्चों को उन्हीं की भाषाओं के माध्यम द्वारा शिक्षा दी जाय | जिन्होंने अंग्रेजी भाषा के सीखने में अपने जीवन के पन्द्रह या बीस वर्ष व्यतीत किए हैं, उनमें से ऐसे लोगों की संख्या तो और भी कम है, जो इस भाषा द्वारा अपने  भावों से संसार के कल्याण में सहायक हो सकें | जो भारत प्राचीन समय में तत्त्वज्ञों के लिये प्रसिद्ध था, वह आज अपने मौलिक विचारों को मानो खो ही बैठा है | विचारों में मौलिकता लाने के लिये किसी व्यक्ति की मातृभाषा जो सहायता दे सकती है, वह सहायता कोई भी विदेशी भाषा नहीं दे सकती | विदेशी भाषा उन व्यक्तियों के लिये लाभदायक है, जिनके पास उसे प्राप्त करने के लिये पर्याप्त साधन हैं, किन्तु किसी पूरे देश तथा जाति को शिक्षित करने के लिये वह भाषा कदापि सुगम साधन नहीं हो सकती | जो लोग सरकारी पदों के इच्छुक हैं, उन्हीं के लिये अंग्रेजी भाषा की शिक्षा की सदैव आवश्यकता रहेगी | यह भाषा वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करने के लिये तथा उसे जन-समाज में फैलाने के लिये पढ़नी चाहिए | क्योंकि इस भाषा के द्वारा हमारे देशवासियों

१.        यह तुलना सर मोनियर विलियम्स ने अपनी ‘संस्कृत इंगलिश डिक्शनरी’ की प्रस्तावना में की है|

उनका कथन है कि “”कोई भी व्यक्ति, जिसकी मानसिक तथा शारीरिक शक्तियाँ परिमित हैं, एक अथवा दो से अधिक इतनी विस्तृत विभागों को पूर्ण रूप से अध्ययन नहीं कर सकता, जिनमें कि एतिहासिक पुरात्तत्वशास्त्र के अतिरिक्त कोई एक विशेष विषय ऐसा नहीं है, जिसके कि एक-एक विभाग में संसार की अन्य भाषाओं की अपेक्षा आधिक पुस्तकें न लिखी गई हों | कुछ विशेष विषयों में, विशेषतया प्राकृतिक दृश्यों तथा गृहस्थ-प्रेम में तो संस्कृत साहित्य रोम तथा यूनान के प्राचीन साहित्य से भी बाजी मार ले जाता है, और विद्वत्ता, भाव – गाम्भीर्य तथा नैतिक उच्चता में तो संस्कृत साहित्य के सुन्दर वर्ण संसार के इतिहास में अद्वितीय हैं | इन सब बातों के अतिरिक्त प्राचीन हिन्दुओं में ज्योतिषशास्त्र, बिजगणित, अंकगणित, वनस्पतिशास्त्र तथा आयुर्वेद में यूरोप के प्राचीन देशों की अपेक्षा प्रशंसनीय उन्नति कर ली है | उनके व्याकरण जैसी उन्नति तो संसार में आज तक नहीं हुई | नि:सन्देह यह प्राच्य देश हमारे समस्त प्रकाश तथा ज्ञान का स्रोत रहा है |

 

को, यूरोप तथा अमेरिका में पिछले सत्तर या अस्सी वर्षो में हुए वैज्ञानिक अनुसन्धानों तथा यंत्र के प्रचार और रासायनिक पदार्थों से अधिक क्षेत्र में हुई आश्चर्यजनक उन्नति का ज्ञान हो सकेगा| भारतीय भाषाओं के द्वारा ही भारत की अधिकांश जनता शिक्षित हो सकती है, और उनका पोषण भी संस्कृत जननी द्वारा होना चाहिए|

 

हिन्दू संस्कृति का ह्लास

 

   एक समय था जब भारतवर्ष समस्त आर्यजगत् को केवल अपनी धार्मिक तथा आध्यात्मिक शिक्षाओं द्वारा ही नहीं, अपितु विज्ञान, कला-कौशल, उद्योग-धन्धे आदि समस्त विद्याओं द्वारा उपकृत करता था | यूरोपीय विद्वानों तथा अन्वेषकों का कथन है कि भारतवर्ष ने ही अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, ज्योतिषशास्त्र तथा आयुर्वेद को जन्म दिया है, और वे हमारे पूर्वजों को इसके लिये धन्यवाद देते हैं कि उन्होंने ही संसार को धातुओं का प्रयोग बतलाकर संसार की सभ्यता की अभिवृद्धि में सहयोग दिया था | दुःख है कि समय के परिवर्त्तन से भारत ने कला-कौशल तथा विज्ञान में पिछली नौ या दस शताब्दियों से कुछ भी नहीं किया | इतना ही नहीं, बल्कि उसकी सब उन्नतियों का वर्त्तमान समय में भयंकर ह्लास होता जा रहा है | भास्कराचार्य के समय से लेकर अब तक गणित में कोई उन्नति नहीं हुई, तथा आयुर्वेद ने भी वाग्भटट् के समय से लेकर अब तक बहुत ही थोड़ी उन्नति की है | भारतीय विद्वत्ता का पौधा, जिसको विद्वानों ने अपने सराहनीय परिश्रम से सींचा था, आज दिनोदिन सूखता जा रहा है | प्रत्येक कला-कौशल तथा व्यापार भी आज नितान्त चौपट होता जा रहा है | जिन वेदों के ज्ञान का हमें किसी समय बड़ा अभिमान था, वह आज हमारे देश से लुप्तप्राय होता जा रहा है | वास्तव में यूरोप में वेदों का अध्ययन भारत की अपेक्षा अधिक उत्साह से किया जाता है| हमारी आँखों देखते ही कितने संगीतज्ञ तथा दार्शनिक महापुरुष अपनी कला तथा विद्वत्ता को सुयोग्य वक्तियों के हाथ सौंपे बिना ही इस संसार से कूच कर गए हैं | कच्ची धातुओं से फौलाद बनाने की कला भी प्राचीन समय में भारत के कई भागों में काम में लाई जाती थी, किन्तु आजकल के कारीगर उस कला को भूल गए हैं | बारीक सूती कपड़े भी हमारे ही देश में बुने जाते थे, जिनको हम ‘शबनम’ तथा ‘आबेरवाँ’ कहकर पुकारते थे | इस कला को तो हमने अभी-अभी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासनकाल में खोया है |

      अवनति का यह क्रम पिछले १२०० वर्षों से अबाध गति से चला आ रहा है | वर्त्तमान समय के हमारे ह्लास पर दृष्टिपात करने से सम्भवत: हमारी सभ्यता का हमें कुछ पता लग जाय| हमारे उत्तरोत्तर ह्लास के होते हुए भी भारत उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक संसार के अन्य देशों से आर्थिक सम्पन्नता में किसी प्रकार कम न था | उस समय तक भारत यूरोप तथा अन्यान्य देशों को बारीक़ कपड़े तथा अन्य वस्तुएँ भेजी थीं | किन्तु पिछले पचहत्तर वर्षों से यूरोप तथा अमेरिका में भौतिक तथा रसायनशास्त्र में जो उन्नति हुई है, भाप तथा बिजली के आविष्कार ने उद्योग-धन्धों को तैयार करने में जो सराहनीय सहयोग दिया है, उसने भारत के उद्योग-धन्धों, उसके व्यवसायों तथा उसकी शिल्पकला को एकदम चौपट कर दिया है |

 

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता

 

 

      भारत अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करने में तबतक सर्वथा असमर्थ है, जब तक वह वर्तमान वैज्ञानिक अन्वेषणों का अध्ययन नियमित तथा अनिवार्य नहीं बनाता | विज्ञान उस समय तक राष्ट्र की सम्पत्ति न हो सकेगा, जब तक कि उसका अध्ययन देश के बच्चों के लिये राष्ट्रभाषा में नहीं होता| समाज को भयंकर गरीबी से मुक्त करने के लिये विज्ञान आवश्यक है, किन्तु उसकी उन्नति उस समय तक देश में सुचारू रूप से नहीं हो सकती, जबतक उसके अध्ययन का क्रम देश ही में और देशी भाषाओं द्वारा न हो जायगा | विदेशों में शिल्प-सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने के लिये विद्यार्थी भेजने का जो स्तुत्य कार्य देशवासी कर रहे हैं, निस्सन्देह राष्ट्र की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं| किन्तु वे भी वास्तव में देश-सेवा का कार्य बहुत छोटे पैमाने पर कर रहे है | शिल्पविद्या उस समय तक वास्तविक उन्नति नहीं कर सकती, जबतक समस्त देश में एक केन्द्रीय संस्था न हो, जहाँ विद्यार्थियों को शिल्प-सम्बन्धी सिद्धान्तों का पूर्ण परिचय तथा उन्हें कार्य रूप में परिणत करने की उचित शिक्षा दी जा सके|

 

धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता

 

 

      किन्तु भारत केवल औद्योगिक विकास के बल पर ही संसार में वह स्थान नहीं प्राप्त कर सकता, जो उसे प्राचीन समय में संसार के सभ्य देशों में प्राप्त हुआ था, और भारत में औद्योगिक उन्नति भी तबतक नहीं हो सकती, जब तक कि समाज में पारस्परिक विश्वास तथा परस्पर सहयोग की भावना नहीं उत्पन्न होती, और ये दिव्य गुण उसी समय आ सकते हैं जब समाज के अधिकांश व्यक्ति अपने प्रत्येक कार्य में विश्वास रखने लगें | ऐसे मनुष्य प्रचुर संख्या में समाज को उसी समय प्राप्त हो सकेंगे, तथा उसी समय उसे संघटित, सुचारू तथा हृस्ट-पुष्ट दशा में रख सकेंगे जब कि समाज एक धार्मिक तथा जीवित संस्था के प्रभाव में रहेगा |

     उपर्युक्त विचार इस बात की ओर संकेत करते हैं कि हिन्दू जाति को एक शिक्षासूत्र में बाँधने की इस समय नितान्त आवश्यकता है, जो इसके सदस्यों को जीवन के ध्येय (त्रिवर्ग) की ओर अग्रसर होने में सहायता देगी | हिन्दू शास्त्रों के अनुसार जीवन के मुख्यत: निम्नलिखित ध्येय हैं---

                          

(१)   धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करना (धर्म)

           (२)   धन की प्राप्ति (अर्थ) और,

          (३)   आनन्द का उपभोग (काम) |

    प्रत्येक प्राणी को अपने प्रयत्न द्वारा धार्मिक गुरु की संरक्षता में अपने जातिगत तथा व्यक्तिगत मतानुसार जीवन का चौथा ध्येय मोक्ष प्राप्त करना चहिए |

 

द्वितीय भाग

 

 

हिन्दू विश्वविद्यालय, अन्तरिम योजना

 

      शिक्षा का जो स्वरूप पिछले पृष्ठों में निर्धारित किया गया है, उसको कार्य रूप में परिणत करने के लिये एक ऐसे विश्वविद्यालय की आवश्यकता है, जो (अ) हिन्दू समाज तथा संसार के हित के लिये भारत की प्राचीन सभ्यता की अच्छाई और महत्ता की रक्षा और उसके प्रचार के लिये संस्कृत विद्या का विकास करे | इसका उद्देश्य विशेषत: उन उपदेशों की रक्षा भी होगा, जिसने ऐसे महात्माओं को जन्म दिया, जो अपनी सादगी तथा पवित्रता के लिये संसार में प्रसिद्ध थे, और जिन्हें लोक तथा समाज की सेवा में हार्दिक आनन्द प्राप्त होता था | यह संस्कृत भाषा वर्त्तमान वैज्ञानिक अनुसन्धानों को भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्त्त करके देश के कल्याण-साधन में सहायक हो, और जो (ब) देश के नवयुवकों को देश के आर्थिक कल्याण के लिये वैज्ञानिक तथा शिल्प सम्बन्धी शिक्षा दे |

     संस्कृत विद्या का अध्ययन केवल ब्राह्मणों तक ही परिमित है, और उनमें भी बहुत कम लोग पढ़ते हैं, और वे भी किसी निश्चित ध्येय से अध्ययन नहीं करते | ब्राह्मण-बालक संस्कृत का अध्ययन या तो धार्मिक कर्त्तव्य समझ कर करते हैं, या असंख्य वर्षों से चली आई रूढ़ियों का पालन करने के लिये | उनमें से बहुत से तो सांसारिक लोभ तथा धन का लालच त्यागकर इसके वास्तविक गुणों के कारण इसके पक्षपाती बन जाते हैं | आर्थिक प्राप्ति तो उस घोर परिश्रम तथा समय के मूल्य की तुलना में प्राय: नहीं के बराबर है | साधारण कोटि के पण्डितों को तो यह विचार स्वप्न में भी नहीं होता कि संस्कृत भाषा के अध्ययन से उन्हें धन-धान्य की भी प्राप्ति हो सकती है| वे यह नहीं जानते हैं कि संस्कृत के अध्ययन से मनुष्य की बुद्धि का विकास होता है, जिससे मनुष्य बुद्धि-साध्य व्यवसायों के लिये योग्य बन जाता है, तथा इसके अध्ययन में मनुष्य-चरित्र अधिक उदात्त तथा पवित्र बनता है, जिससे मनुष्य संसार में वास्तविक उन्नति कर सकता है | विश्वविद्यालय के अन्यान्य उद्देश्यों में से एक यह भी है कि संस्कृत भाषा के अध्ययन का क्रम सभी वर्ग के लोगों के लिए इतना विस्तृत कर दिया जाय कि जो उसके अध्ययन के लिये उत्युक हैं, वे इसकी शिक्षा पा सकें, इसके द्वारा जाति के चरित्र को उच्च बना सकें, राष्ट्र के मानसिक विकास में सहयोग दे सकें, तथा समाज-सेवा आदि अन्य कर्त्तव्यों को अत्यन्त सुगमतापूर्वक कर सकें | इस प्रकार संस्कृत देश के सब भागों के पठित समाज की फिर वैसे ही भाषा हो जायगी जैसे यह प्राचीन समय में थी |

 

संस्कृत अध्ययन के अवसर-क्षेत्र

 

   इस विश्वविद्यालय में संस्कृत साहित्य के समस्त अंगों, विशेषत: वेद-वेदांग, उपवेद, कल्पसूत्र, धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराण तथा अन्य हिन्दू राजनीतिक मूल विषयों की शिक्षा दिया जाना प्रस्तावित है| शिक्षा के इस क्रम की व्यवस्था ठीक उसी प्रकार की है, जैसी श्रीयुत् जोनाथन डंकन ने काशी के क्वीन्स कॉलेज के लिये निर्धारित की थी | उक्त महोदय के क्वीन्स कॉलेज स्थापन-कार्य के लिये देश सदैव उपकृत रहेगा | किन्तु पीछे इस सिद्धान्त के अनुसार, कि इसाइयों के राज्य में इसाई धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मो की शिक्षा में सहयोग देना अधार्मिक कार्य है-- वेद तथा अन्य हिन्दू धर्मशास्त्रों के अध्ययन का क्रम रद्द कर देना पड़ा |

 

वेद

 

 

       वेदाध्ययन के लिये शिक्षा-संस्थाओं का पूर्ण अभाव होने के कारण वेदों का नाम हमारे देश से उठता जा रहा है | कुछ यूरोपीय विद्वानों ने पिछले पचास या साठ वर्षों से वेदाध्ययन का क्रम जारी किया है, किन्तु उन्हें अपने देश में वैसी सुविधाएँ प्राप्त नहीं, और उन्हें बहुत सी वैदिक पुस्तकों का अर्थ स्पष्ट नहीं होता | इसके अतिरिक्त उनका अध्ययन भाषाशास्त्र तथा ऐतिहासिक ज्ञान के लिये होता है | इसी से उनका परिश्रम भारतवासियों के लिये तबतक लाभदायक नहीं हो सकता जबतक कि वे स्वयं संस्कृत साहित्य के इस प्रमुख विभाग के अध्ययन की ओर पूर्ण रूप से दत्तचित्त न हो जायँ| -------------------------------------------

१.        क्वींस कॉलेज बनारस के इतिहास से उधृत (कॉलेज संग्रहालय में सुरक्षित )

         ““रेजिडेण्ट १७ नवम्बर १७७१ को इस नये कॉलेज में पहली बार आए और सरकार को प्रेषित अपने पहले प्रतिवेदन में उन्होंने हिन्दू साहित्य का विश्लेषण प्रोफेसरों को यह इंगित करते हुए देना प्रारम्भ किया कि विद्या की इन विविध शाखाओं का पोषण, और शायद बाद में परिष्कार करना भी उनका उद्देश्य होना चाहिए |

 

अग्निपुराण से साहित्य का विश्लेषण

अठारह विद्याएँ

वेद     :ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद

उपदेव   :आयुर्वेद (चिकित्सा, बनस्पतिशास्त्र आदि), गान्धर्ववेद (संगीत आदि), धनुर्वेद (शस्त्र) अथर्वेद (मशीनी कला)                                                                                

वेदांग   :शिक्षा (शुद्धोच्चारण), व्याकरण, छन्द शास्त्र, निरुक्त (पवित्र शब्द कोश), कला (कर्मकाण्ड), ज्योतिष (गणित)

दर्शन   : मीमांसा आदि (तत्त्व विज्ञान), न्याय आदि (तर्कशास्त्र)

धर्म    : संहिता (विधि)

पुराण  : १८ पुराण आदि (१८ इतिहास नीतिशास्त्र आदि)

 

नौ विद्याओं में समाहित

 

१.        वेद: (प्रधानत: उपनिषद) ब्रह्म विज्ञान, २.आयुर्वेद : चिकित्सा एवं प्राकृतिक इतिहास, ३. गान्धर्व वेद : संगीत सिद्धान्त, गीत एवं नाठ्यशास्त्रीय कविता, ४. व्याकरण : व्याकरण, छन्दशास्त्र और काव्य, ५. ज्योतिष : खगोल विज्ञान, भूगोल, शुद्ध गणित, ६. मीमांसा एवं वेदान्त : दर्शन एवं तत्त्व विज्ञान, ७. न्याय : तर्क एवं दर्शन, ८. धर्मशास्त्र : नागरिक एवं आध्यात्मिक विधि, ९. पुराण : इतिहास, नितिशास्त्र, वीर गाथाएँ

 

          संहिता, ब्राह्मण, उपनिषद्, श्रौत, गृह्यसूत्र तथा धर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा अन्य पुराणों के अध्ययन का क्रम इस विश्वविद्यालय में रक्खा जायगा और हिन्दू समाज के विकास तथा संघटन का अध्ययन विशेष रूप से करने का आयोजन होगा | इस प्रकार का अध्ययन हिन्दू संस्थाओं के कार्य-क्रम को ठीक-ठीक समझाने में सहायक होगा, और इसके परिणामस्वरूप अधिकाधिक संख्या में विद्वान् उपदेशक निकलेंगे, जो समाज को नैतिक तथा आध्यात्मिक सत्य का मार्ग बता सकेंगे, जिससे समाज का कलेवर वर्त्तमान समय की अपेक्षा एकदम बदल जायगा |

 

वेदांग

 

 

वेदांगों में से केवल व्याकरण का ही अध्ययन कुछ उत्साह के साथ किया जाता है | ज्योतिष का भी अध्ययन जहाँ-तहाँ जारी है, किन्तु इसकी उचित शिक्षा का पूर्ण अभाव है | थोड़े से व्यक्ति छन्दशास्त्र का भी अध्ययन करते हैं, किन्तु वैदिक छन्दशास्त्र को हमने एकदम भुला ही दिया है | शिक्षा, कल्प तथा निरुक्त का ज्ञान तो किसी बिरले को ही है | व्याकरण के अध्ययन को अधिक व्यावहारिक बनाने की तथा अन्य वेदांगों, विशेषतया ज्योतिष तथा अन्तरिक्षशास्त्र अध्ययन के लिये एक वेधशाला बनेगी तथा संस्कृत साहित्य इन विषयों के  समस्त अन्वेषणों से भरा-पूरा रहेगा |

 

दर्शन

       प्रत्येक दर्शन के लिये एक-एक सुयोग्य विद्वान् नियुक्त किए जायेंगे | पूर्व मीमाँसा तथा दर्शन के लिये विशेष आयोजन किया जायगा, जिनका अध्ययन एकदम भुला दिया गया है | संस्कृत साहित्य का विशेष अध्ययन करने वालों तथा धर्मोपदेशकों के लिये पद, वाक्य तथा प्रमाण का ज्ञान आवश्यक होगा|

 

उपवेद 

(अ) आयुर्वेद

 

          उपवेदों में आयुर्वेद को विशेष महत्त्व दिया जायगा | अन्य जातियों द्वारा चिकित्साशास्त्र तथा शरीर –विज्ञानशास्त्र में जो आश्चर्यजनक उन्नति हुई है, वे सब भी आयुर्वेद के अध्ययन में सम्मिलित किए जायेंगे | इस विभाग का मुख्य उद्देश्य देश को ऐसे वैद्यों से भर देना है जो औषधिशास्त्र तथा चीरफाड़ दोनों विषयों में पारंगत हों | औषधि में काम आने वाली जड़ी-बूटियों के लिये एक वनस्पति –वाटिका भी बनाई जायगी | रसों, तेलों तथा आसवों के बनाने के लिये एक प्रयोगशाला भी होगी, जहाँ आयुर्वेदिक अन्वेषण के प्रयोग किए जायेंगे | यूरोपीय देशों से प्रसिद्ध वैद्य तथा डॉक्टर बुलाए जायेंगे जो आयुर्वेद के विद्यार्थियों को चिकित्साशास्त्र, शरीर-विज्ञानशास्त्र तथा स्वास्थ्यविज्ञान की पूर्ण रूप से शिक्षा देंगे तथा संस्कृत और देशी भाषाओं में इन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के तैयार करने में वैद्य लोगों को सहायता देंगे |

 

 (ब) स्थापत्य वेद ( वैज्ञानिक तथा तकनीकी )

        इस विश्वविद्यालय का सबसे मुख्य कार्य नवीन रूप से स्थापत्यवेद अथवा अर्थशास्त्र के अध्ययन का क्रम होगा, जिसका अध्ययन एक प्रकार से भारत में भुला दिया गया है और बहुतों को इसके नाम में ही शंका होती है |यह कार्य सबसे कठिन तथा व्यय–साध्य होगा | भौतिकशास्त्र तथा रसायनशास्त्र, प्रयोगात्मक तथा सैद्धान्तिक दोनों पढ़ाए जायेंगे| कातना, बुनना, रंगसाजी, छापने का काम, शीशे का काम तथा अन्य उपयोगी काम यहाँ अच्छी तरह सिखाए जायेंगे| देश के लिये चतुर कारीगर उत्पन्न करने के लिये लकड़ी तथा लोहे के कार्यालय खोले जायेंगे| अन्वेषणों तथा प्रयोगात्मक शिक्षा के लिये भौतिक तथा रासायनिक प्रयोगशालाएँ होंगी | देश को समृद्धिशाली बनाने के लिये इंजीनियर तैयार किए जायेंगे | मशीनों को बनाने तथा प्रयोग करने की शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया जायगा |

 

(स) कृषि विज्ञान

 

भारत कृषि-प्रधान देश है | कृषि की उन्नति के लिये इस विश्वविद्यालय में कृषि-सम्बन्धी शिक्षा भी दी जायगी, जिसकी सहायता से पाश्चात्य देशों में भूमि में अधिक फसलें उगाई जाती हैं तथा अधिक परिमाण और गुणवाले फल तथा अन्न उपजाए जाते हैं | बड़ी प्रसन्ता का विषय है कि भारत सरकार ने अब कृषि-सम्बन्धी अन्वेषणों तथा कृषि-विज्ञान की शिक्षा का महत्त्व स्वीकार कर लिया है | किन्तु देश के लिये इस विषय की महत्ता को स्वीकार करते हुए तथा इसके तात्कालिक परिणामों पर विचार करने से पता चल जायगा कि जनता के इस विश्वविद्यालय में कृषि की उन्नति तथा शिक्षा के लिये भी उचित आयोजन होना चहिए | इसी उद्देश्य को सम्मुख रखते हुए एक कृषि महाविद्यालय की भी स्थापना होगी, जहाँ पर कृषि–सम्बन्धी विषयों पर देशी भाषाओं द्वारा वर्त्तमान ढंग पर सर्वोच्च शिक्षा दी जायगी |

 

(द) गान्धर्ववेद और अन्य ललित कलाएँ

 

          यद्यपि इस विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य उपर्युक्त विषयों द्वारा धर्म तथा अर्थ की शिक्षा देना है तथापि मनुष्य-जीवन के तृतीय अंग ‘काम’ को भी यह अपने कार्य-क्रम में सम्मिलित रक्खेगा | भारतीय सभ्यता के संस्थापकों ने यद्यपि नैतिक उच्चता के लिये कठोर-से-कठोर नियम बनाए हैं, तथापि वे कलापूर्ण तथा सौन्दर्यमय जीवन के भी एकदम विपरीत न थे | वास्तविक सभ्यता के रहस्य को समझ कर उन्होंने मानव-आनन्द के विषय संगीत, काव्य, नाट्यकला, चित्रकला, वास्तुकला तथा मुर्त्तिकला में पर्याप्त उन्नति की थी | हिन्दू सभ्यता पर समय–समय पर आने वाली आपत्तियों के फलस्वरूप ये कलाएँ कुछ तो पूर्ण रूप से तथा कुछ अधूरे रूप से नष्ट–भ्रष्ट हो गई हैं | हिन्दू विश्वविद्यालय इस बात का प्रयत्न करेगा कि इन कलाओं का पुनरुत्थान हो जिससे ये हिन्दू घरों को फिर प्राचीन समय की भाँति अलंकृत करें |

 

महाविद्यालय विश्वविद्यालय में निम्न संस्थाएँ होंगी

 

 १. संस्कृत विद्या का एक महाविद्यालय, जहाँ वेद, वेदांग, स्मृति, दर्शन, इतिहास तथा पुराणों एवं संस्कृत       साहित्य के अन्य विभागों की शिक्षा दी जायगी | वेदांगों के अंग ज्योतिष विभाग में एक खगोलीय तथा मैासम विज्ञान सम्बन्धी वेधशाला संयुक्त की जाएगी जो महाविद्यालय का एक अंग होगी|

२. एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय, जिसमें प्रयोगशालाएँ तथा वनस्पति-वाटिकाएँ भी होंगी | एक उच्च कोटि का अस्पताल तथा पशु चिकित्सा विभाग भी इस महाविद्यालय में होंगे | सुन्दर-सुन्दर घोड़ो तथा पशुओं को उत्पन्न करने का प्रबन्ध होगा |

३. एक स्थापत्यवेद अथवा अर्थशास्त्र का विद्यालय, जिसमें अलग-अलग भवनों में तीन विभाग                           होंगे- (अ) भौतिक विज्ञान-विभाग, सैद्धान्तिक तथा प्रयोगात्मक, जिसमें प्रयोगों तथा अन्वेषणों के लिये प्रयोगशालाएँ भी होंगी | यान्त्रिक (मैकेनिकल) तथा वैद्युतीय (इलेक्ट्रिकल) अभियन्ताओं के प्रशिक्षण के लिए कार्यशालाएँ (वर्कशाप्स) होंगी | (ब) रसायनविज्ञान विभाग, जिसमें प्रयोगों तथा अन्वेषणों के लिये प्रयोगशालाएँ भी होंगी | अम्लो, रंगों, चित्रकारी के सामनों, सीमेण्ट, रोगन तथा अन्य रासायनिक पदार्थों के उत्पादन की शिक्षा के लिये कार्यशालाएँ होंगी | (स) मशीनों के माध्यम से निजी एवं घरेलू उपयोग में आने वाली प्रमुख वस्तुओं के उत्पादन की शिक्षा देने के लिए एक शिल्प विज्ञान विभाग होगा जिनके लिए भारत अभी बाह्य देशों पर निर्भर है | खनिज विज्ञान तथा धातुविज्ञान इस विभाग के महत्त्वपूर्ण भाग होंगे |

४.  एक कृषि महाविद्यालय, जहाँ प्रयोगात्मक तथा सैद्धान्तिक दोनों प्रकार की शिक्षाएं कृषिशास्त्र के नवीन अन्वेषणों के आधार पर दी जायगी |

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१.   जब मार्च १७०६ में पहला विवरण-पत्र (प्रास्पेक्टस) अन्तत: जारी किया गया तो इस महाविद्यालय का नाम “ ‘वैदिक महाविधालय’” रखा गया, जिसके नीचे निम्नलिखित टिप्पणी जोड़ दी गई थी | टिप्पणी- इस विश्वविद्यालय का धर्म-सम्बन्धी कार्य तथा वैदिक महाविद्यालय का कार्य उन हिन्दुओं के अधिकार में होगा, जो श्रुति, स्मृति तथा पुराणों द्वारा प्रतिपादित सनातनधर्म के मानने वाले होंगे | धार्मिक शिक्षकों की शिक्षा तथा परीक्षा आदि का प्रबन्ध भी इसी महाविद्यालय में होगा | इस महाविद्यालय में वर्णाश्रम धर्म के आधार पर प्रवेश होगा | अन्य सब महाविद्यालयों में सब धर्मावलम्बियों तथा सब जातियों का प्रवेश हो | संस्कृत भाषा की अन्य शाखाओं की शिक्षा बिना जाती-पाँति का भेदभाव किये सबको दी जायेगी |

 

५. गान्धर्व वेद तथा अन्य ललित कलाओं का महाविद्यालय | इस महाविद्यालय का कार्य होगा कि- (अ) प्राचीन भारत के रागों में अन्तरनिहित सौन्दर्यमय तथा दिव्य जगत् को मुर्त्तिमान कर देना और उसे संस्कृत वर्गों के लिये सुलभ कर देना | (ब) नाट्यकला को उसकी पूर्वकालीन परिशुद्धता पर पुनर्स्थापित करना तथा नैतिक शिक्षा के लिये इसे उपयुक्त साधन बना देना | (स) सुयोग्य शिक्षकों द्वारा चित्रकला तथा मूर्तिकला के शिक्षण को उनके लिए प्रोत्साहित करना जिनके अन्दर उन कलाओं के लिए नैसर्गिक रुझान है | (द) विदेशी नमूनों के नकल करने की दासता की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने एवं विभिन्न सज्जा-कलाओं को प्रोत्साहित करने के लिए कलात्मक वस्तुओं के उत्पादन में डिजाइन की शुद्धता की रक्षा करना |

६. भाषाशास्त्र-सम्बन्धी एक महाविद्यालय, जहाँ अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाएँ इस उद्देश्य से पढ़ाई जायँगी कि भारतीय साहित्य, विज्ञान तथा भाषा में उनसे भली प्रकार समृद्ध हो सके | भाषाएँ इस रोचक तथा परिष्कृत ढंग से पढ़ाई जायँगी कि उसे पढ़ने वाला आसानी से उस भाषा को बोल तथा लिख सकेगा तथा इसके साहित्य को सुगमता से हृदयंगम कर सकेगा | अन्य महाविद्यालयों के अध्यापकों तथा पण्डितों से अनुरोध किया जायगा कि वे इस महाविद्यालय में अध्ययन कर भारतीय साहित्यों को नवीन वैज्ञानिक तथा साहित्यिक रत्नों से भरपूर कर दें |

 

आवासीय भवन

        इन महाविद्यालयों और उनके अन्तर्गत विभागों के अतिरिक्त अध्यापकों तथा विद्यार्थियों के लिए आवासीय भवन होंगे | प्राचीन ब्रह्मचर्याश्रम के पुनरुत्थान के लिये महत्वपूर्ण प्रयत्न किया जायगा | देश के कोने-कोने से मेधावी विद्यार्थी इस विश्वविद्यालय में आवेंगे जहाँ उपनयन के पश्चात् ब्रह्मचर्याश्रम में उसका प्रवेश होगा | देश के गण्यमान्य व्यक्तियों के बालकों एवं अन्य सम्बन्धियों को इस आश्रम में प्रविष्ट होने के लिये आमंत्रित किया जाएगा |

      महाविद्यालयों में प्रवेश करने से पहले विद्यार्थियों की शिक्षा के लिये एक पाठशाला होगी, जिसका सम्बन्ध इसी आश्रम से होगा | इस स्थान पर उनको अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करने के योग्य बनाया जायगा | विश्वविद्यालय की सीमा के अन्दर रहने वाले अध्यापकों का कर्त्तव्य होगा कि वे विद्यार्थियों का जीवन उन्हीं आदर्शों पर ढालें जिसके लिये हमारे प्राचीन साहित्य में आदेश किया गया है |  सत्य, दया, तप, शैाच, तितिक्षा, शम, दम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, धृति, क्षमा, आर्जव, विनय, शील, निर्ममत्त्व, निरहंकार, पौरुष, उत्साह, धैर्य, वीर्य, औदार्य, मैत्री, तथा हमारे पवित्र साहित्य में दिए हुए अन्य गुणों का विद्यार्थियों से उनके दैनिक जीवन-आचार में पालन कराया जायगा |

 

 अध्ययन का पाठ्यक्रम

        अध्ययन का क्रम इस प्रकार निर्धारित किया जायगा कि साधारण कोटि का विद्यार्थी बारह वर्षों में आधुनिक प्रणाली द्वारा शिक्षा दिए जाने पर (अ) संस्कृत भाषा तथा साहित्य में धर्मज्ञता की योग्यता बिना अपनी शक्ति पर अधिक भार डाले ही प्राप्त कर सके, जिससे उसके धार्मिक तथा नैतिक विचारों में दृढता आ जाय और वह संस्कृत भाषा की उन शाखाओं से भी परिचित हो जाय जो बिना किसी विशेषज्ञ की सहायता के ही वह प्राप्त करने में समर्थ हो जा सके | (आ) विद्यार्थी किसी अर्थकरी कला में दक्ष हो सके तथा उस कला के सिद्धान्तों से भी भलीभाँति परिचित हो जाय| ब्रह्मचर्याश्रम के जिन विद्यार्थियों के चरित्र निष्कलंक पाए जायेंगे, तथा जो निश्चित पाठ्यक्रम समाप्त कर लेंगे, वे स्नातक पद पाने के अधिकारी समझे जायेंगे | स्नातक होने के पश्चात् जो विद्यार्थी विश्वविद्यालय में या उसके बाहर अन्यत्र कहीं अपने अध्ययनक्रम को जारी करेंगे, उसको आचार्य पद दिया जायगा| तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिये जो विद्यार्थी चैादह या पन्द्रह वर्ष की अवस्था के बाद विश्वविद्यालय में प्रवेश करेंगे निश्चित पाठ्यक्रम पूरा करने के पश्चात् उन्हें अनुज्ञप्ति-पत्र (लाइसेन्सिएट) के रूप में डिप्लोमा दिया जायगा | यदि वे संस्कृत न जानते होंगे तो उन्हें देश-भाषा द्वारा धार्मिक तथा नैतिक शिक्षाएँ दी जायगी|

     तकनीकी महाविद्यालयों में विद्यार्थियों को धनोपार्जन की जो शिक्षा दी जायगी वह उन्हें रूपये पैसे की चिन्ता से मुक्त कर देगी, और यह आशा की जाती है कि महाविद्यालय छोड़ने से पहले ही वे धन कमाने लगेंगे और उनकी प्रशिक्षुता की अवस्था में ही उनके द्वारा कमाए धन में से कुछ छात्रवृत्ति भी उन्हें दी जाने लगेगी | वे लोग जीवन में मजदूरों को नियुक्त करने वाले, उद्योगों के संचालक भूसम्पत्तियों तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के प्रबंधक, वैज्ञानिक और साहित्यिक विद्वान्, अभियन्ता, प्राध्यापक, धार्मिक शिक्षक, साहित्यिक क्षेत्रों में शोधकर्ता, और प्राकृतिक नियमों, तथ्यों के अन्वेषक के रूप में विशिष्टत: स्थापित होंगे | गौरवपूर्ण साधनों द्वारा धन कमाने में सक्षम होने के कारण वे अयोग्य आचरण के प्रलोभनों से परे रहेंगे और संस्कृत विद्या के श्रेष्ठ सिद्धान्तों से प्रेरित होने के कारण वे निष्ठावान् ईमानदार और अविकृत सत्यनिष्ठा सम्पन्न लोग होंगे | उनका ब्रह्मचर्य उन्हें शारीरिक और मानसिक दृढता प्रदान करेगा जो उन्हें बौद्धिक कार्य के दबाव को, चाहे वह व्यावसायिक हो या सामाजिक, झेल सकने की सामर्थ्य देगा | वे सभ्य होने के कारण समाज में आदरणीय तथा सुचरित्रता के कारण विश्वासपात्र बनेंगे| उनके वचन की गारंटी बड़े औद्योगिक उद्यमों के लिए पूँजी आकर्षित करेगी | प्रत्येक धार्मिक, शिक्षा-सम्बन्धी, व्यापारिक तथा औद्योगिक क्षेत्र में हमारे नवयुवक अपनी योग्यता तथा कार्य-कुशलता के कारण सफलता प्राप्त करेंगे | हिन्दू विश्वविद्यालय के आधार पर वे देश के भिन्न-भिन्न भागों में स्कूल तथा कॉलेज स्थपित करेंगे, फिर वे स्कूल विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो जायेंगे | समाज में जहाँ कहीं अशान्ति तथा कलह होगी, वहाँ उनके सतत प्रयत्न से शान्ति तथा संघटन का राज्य हो जायगा |

शिक्षण का माध्यम

 

    उन सबको, जो संस्कृत के माध्यम से शिक्षा चाहते हैं, संस्कृत में शिक्षा दी जायगी | धर्मशिक्षकों तथा चिकित्सा विज्ञान में सर्वोच्च उपाधि पाने के इच्छुक लोगों के लिये संस्कृत के अध्ययन पर बल दिया जाएगा | औरों के लिये संस्कृत का इतना ही ज्ञान पर्याप्त होगा कि वे सरल धार्मिक ग्रन्थों को आसानी से समझ सकें तथा देशी भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर सकें| शेष व्यक्तियों के लिये शिक्षा का माध्यम हिन्दी होगा, जो देश के अधिकांश भाग द्वारा समझी जाती है | यह आशा है कि ऐसे भारतीय विद्यार्थी, जो टोकियो विश्वविद्यालय में दिए जाने वाले व्याख्यानों को समझने के लिए जापानी भाषा सीखने के इच्छुक हैं, इसे बहुत कष्टसाध्य नहीं समझेंगे यदि उनसे प्रस्तावित विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु हिन्दी के पर्याप्त ज्ञान की अपेक्षा की जाए | वर्त्तमान समय में भी मद्रास से, जो देश का एकमात्र ऐसा भाग है जहाँ के अधिकांश लोग हिन्दी नहीं समझ पाते, बहुत से विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिये काशी आते हैं | वे संस्कृत सीखने के लिए यहाँ आते हैं और साधारण तथा थोड़े ही समय में हिन्दी का ज्ञान भी उन्हें हो जाता है | हमारी जाति की शोचनीय आर्थिक अवस्था को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि एक केन्द्रीय स्थान पर समस्त शक्तियों तथा साधनों को एकत्र करके एक ऐसी संस्था बनाई जाय जहाँ विभिन्न कला-कौशल तथा विज्ञान की शिक्षा जो देश के लोगों में समृद्धि को पल्लवित-पुष्पित करे, देश के अधिकाधिक युवकों को दी जाय | जब ऐसी संस्था एक स्थान पर स्थापित और पूर्णत: सज्जित हो जायगी तब उसकी शाखाएँ प्रत्येक प्रान्त तथा देश के समस्त भागों में स्थापित करने का आयोजन किया जायगा |

     इस स्थान पर यह पूछा जा सकता है कि कम-से-कम प्रारम्भ में अंग्रजी को शिक्षण का माध्यम क्यों न रखा जाय, क्योंकि यह प्राध्यापकों के लिए, मात्र उनके लिए ही नहीं जो विदेशी है, बल्कि मद्रास तथा बंगाल से आने वालों के लिए भी आसान होगा | कारण यह है कि चूँकि व्याख्यानों के लाभों को देश के अधिकतम युवकों को उपलभ्य करना लक्ष्य है, इसलिये उसी भाषा के द्वारा शिक्षा देना उचित होगा जिसको अधिकाधिक व्यक्ति आसानी से समझ सकें या सीखना आसान मान सकें | किसी विषय को अंग्रेजी माध्यम द्वारा सीखने के लिये अंग्रेजी भाषा के जितने ज्ञान की आवश्यकता है, उतना ज्ञान प्राप्त करने के लिए जो वर्षो का परिश्रम अपेक्षित है, यदि उस समय तथा परिश्रम का उपयोग किसी विषय का अध्ययन करने के लिये किया जाय तो उससे देश का कितना लाभ होगा, इसका विचार प्रत्येक विचारशील व्यक्ति कर सकता है | दूसरा कारण यह भी है कि यदि प्रारम्भ ही से देशी भाषाओं के माध्यम द्वारा शिक्षा नहीं दी जायगी तो देशी भाषाओं में पाठ्यपुस्तकों की रचना का मार्ग विलम्बित होगा, जो शिक्षण के माध्यम के रूप में वस्तुत: अँग्रेजी के लगातार प्रयोग को ही पुष्ट करेगा |

 

पाठ्यपुस्तकों की रचना

 

    विश्वविद्यालय द्वारा उठाए गए कदमों में सबसे पहला काम होगा विभिन्न विज्ञानों तथा कलाओं पर संस्कृत तथा अन्य आधुनिक भारतीय भाषाओं में ऐसे विशेषज्ञों द्वारा लिखी पुस्तकें प्रकाशित करना जो अपने विषयों में विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न होने के साथ-साथ सही और परिष्कृत भाषा में भी पर्याप्त दक्ष होंगे एवं जो औषधिशास्त्र, खगोलशास्त्र, मैासम-विज्ञान, दर्शन, संगीत एवं अन्य तकनीकी विषयों पर संस्कृत के मानक ग्रन्थों में प्रयुक्त विचक्षण और प्रभावी विधियों में भी पारंगत होंगे | इन पुस्तकों की रचना इस प्रकार की जाएगी कि उनके द्वारा किसी भी विदेशी भाषा के न जानने वाले भारतीय विद्यार्थी उन विषयों को समझ सकें | वे पुस्तकें विज्ञान एवं कलाओं को ऐसे प्रस्तुत करेंगी जैसे कि वे भारत में ही विकसित हुई हो | संक्षेपत: आधुनिक सभ्यता में जो कुछ भी उपयोगी या लाभकारी है, उसको भारतीय सभ्यता में सरलता से समावेश और आत्मसात करने के लिए अनुकूलन किया जाएगा |

           देशी भाषाओं में उस साहित्य का निर्माण करना एक दुस्तर कार्य है, जिसके माध्यम द्वारा वैज्ञानिक तथा तकनीकी विषयों में उच्च शिक्षा दी जा सके | इसके लिये अगाध परिश्रम तथा समय की आवश्यकता होगी | किन्तु आत्मविश्वास तथा दृढ निश्चय के सम्मुख सब कठिनाइयाँ सरल बन जाती हैं | परन्तु जो हमारा अभीष्ट है, उसको आज ही प्रारम्भ कर देना चाहिए, चाहे उसको पूरा करने में कितना ही समय क्यों न लगे | इस दिशा में उन राष्ट्रों द्वारा की गई उन्नति, जिन्होंने उत्तराधिकार में वैसा राष्ट्रीय साहित्य नहीं पाया, जैसाकि हमारा है, भी एक उदाहरण प्रस्तुत करती है जिसे हमारे उद्यमों को उस दिशा प्रोत्साहित करना ही चाहिए |

 

प्राध्यापक

 

      विश्वविद्यालय के भिन्न-भिन्न विभागों में शिक्षा देने के लिये देश अथवा विदेश से सुयोग्य व्यक्ति निमंत्रित किए जायेंगे | कुछ अध्यापकों के व्याख्यान प्रारम्भ में हिन्दी में अनूदित किए जायेंगे, किन्तु यह आशा की जाती है कि कुछ समय में वे हिन्दी की व्यावहारिक योग्यता से परिचित हो जायेंगे और हिन्दी में व्याख्यान देने लगेंगे | अहिन्दी –भाषा-भाषी अध्यापक महोदयों के साथ एक सहकारी रक्खा जायगा जो उनके व्याख्यानों का अनुवाद विद्यार्थियों को हिन्दी द्वारा समझा सकेगा |

 

विश्वविद्यालय के लिए कोष

      इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण विस्तृत योजना के लिये निस्सन्देह बहुत धन की आवश्यकता होगी | भूमि प्राप्त करने, आवश्यक भवनों के निर्माण और सुसज्जित करने, पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं एवं कारखानों के साज-सामनों, अध्यापकों की सेवाएँ सुनिश्चित करने, एवं सुपात्र, किन्तु निर्धन छात्रों को वजीफा देने के प्रारम्भिक खर्चों की पूर्ति के लिए काफी धनराशि की आवश्यकता होगी| प्रारम्भिक खर्चों की व्यवस्था एवं एक स्थायी निधि निर्माण के लिए एक करोड़ रुपया एकत्र करना प्रस्तावित है, जिसका ब्याज इस संस्था की व्यवस्था के लिए पर्याप्त होगा | इस राशि का कम से कम आधा वैज्ञानिक, तकनीकी एवं औद्योगिक शिक्षा के समुन्नयन हेतु निर्धारित किया जाएगा | वार्षिक, अर्धवार्षिक तथा मासिक चन्दे भी आमंत्रित किये जायेंगे और ऐसी आशा है कि स्थायी निधि से होने वाली आय में वे पर्याप्त राशि की संपूर्ति कर पायेंगे | किसी गैर सरकारी शिक्षण संस्था के लिये एक करोड़ रुपया इकट्ठा करना आसान कम नहीं है | निस्सन्देह, किन्तु यह विश्वास करने के कारण मौजूद हैं कि यदि समूचे भारत के हिन्दू राजा, कुलीन लोग, और हिन्दू जाति के अन्य प्रधान जन एक साथ इस बात के कायल हो जायँ कि योजना ठोस व विश्वसनीय है, या यों कहें कि यह प्रस्ताव लोगों की प्रसन्नता और समृद्धि में पर्याप्त वृद्धि करेगा, ऐसा लगे तो धन आना प्रारम्भ हो जायेगा | अनेकानेक हृदय यह सोचकर व्यथित होते हैं कि भारत जैसे प्राकृतिक संसाधनों से अति उर्वर देश में लोगों का एक बड़ा भाग, जिन्होंने विरासत में एक श्रेष्ठ धर्म तथा अति उन्नत सभ्यता पाई है, अज्ञानता और गरीबी के कीचड़ में पड़े हैं और न जाने कितनी सामाजिक तथा आर्थिक संकटों एवं असुविधाओं से ग्रस्त हैं | जनता की वर्त्तमान दशा को सुधारने के लिये देश के अनेक भागों में पिछले वर्षों में कई संस्थाएँ खोली गई हैं | इन प्रयासों ने प्रशंसनीय कार्य किया है और वे कर भी रहे हैं, किन्तु चूँकि वे अपना संबल सीमित क्षेत्र एवं वर्ग से ग्रहण करते हैं इसीलिए पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता में बाधित हैं और स्वभावत: उनके द्वारा प्रदत्त लाभ भी सीमित ही हैं| यह समय, इसलिए ऐसी संस्था को स्थापित करने के लिए सर्वतोभावेन उपयुक्त है, जो भारत के सभी भागों की हिन्दू जाति के संसाधनों से अपना अवलंब ग्रहण करेगी और जो उस पूरे समुदाय की नैतिक और भौतिक उन्नति हेतु कार्य करेगी | यदि ऐसी संस्था अस्तित्त्व में ला दी जाती है, तो यह विश्वास है कि अपने देश के हजारों शुभेच्छु प्रसन्नतापूर्वक अपना समय, शक्ति और संसाधन उसकी सफलता हेतु अर्पित करेंगे |

 

विश्वविद्यालय का स्थान

 

      देश के विभिन्न भागों में हिन्दू समुदाय के नेताओं की स्वीकृति की दशा में एवं पर्याप्त भूमि की अवाप्ति की शर्त पूरी होने की स्थिति में, विश्वविद्यालय का स्थान काशी में गंगा के तट पर होगा, जो अनादि काल से हिन्दू विद्या का केन्द्र रहा है | काशी वास की प्राचीन प्रथा को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जायगा तथा हिन्दू समाज के विद्वान् तथा गण्यमान्य व्यक्तियों को विश्वविद्यालय के परिवेश में रहने के लिए आमंत्रित किया जायगा | अब भी बहुत से हिन्दू अपने जीवन के अन्तिम भाग को काशी में व्यतीत करने के लिए काशी की शरण लेते हैं | ऐसी आशा करना युक्तिसंगत लगता है कि प्रस्तावित विश्वविद्यालय के स्थापित हो चुकने पर अपने विद्वान् और धर्मनिष्ठ लोग काशी के प्रति आकृष्ट होंगे और अपने जीवन के अन्तिम वर्षों को अपने देश और अपने धर्म हेतु अर्पित करना अपना सौभाग्य मानेंगे |

 

प्रबन्ध-समिति का गठन

 

    ऐसी राष्ट्रीय संस्था की प्रबन्ध-समिति का समुचित गठन इस योजना की सफलता के लिए सर्वाधिक महत्त्व का विषय है | समस्त हिन्दू शासकों एवं गणमान्य श्रेष्ठजनों को इस संस्था के संरक्षक होने हेतु आमंत्रित किया जाना एवं प्रबन्ध समिति में, जो प्रमुख कुलीन जनों एवं भारत के विभिन्न भागों में हिन्दू समुदाय का नेतृत्त्व करने वाले विद्वद्जनों को मिलाकर गठित होगी, अपने प्रतिनिधियों की नियुक्ति हेतु अनुरोध किया जाना प्रस्तावित है | संस्था के नियम तथा परिनियम आदि बनाये जायेंगे एवं जब योजना व्यापक रूप से स्वीकृत हो जायेगी तो इसे ठोस एवं क़ानूनी आधार देने हेतु आवश्यक कदम उठाए जायेंगे|

 

उपसंहार

 

      यह योजना हिन्दू शासकों एवं अन्य हिन्दू विद्वद्जनों एवं नेताओं के विचारार्थ इस अनुरोध के साथ प्रस्तुत है, कि वे प्रवर्तकों को अपने विचारों से अवगत करायें तथा इसमें संशोधन तथा सुधार हेतु सुझाव दें ताकि यह विकासमान वैज्ञानिक ज्ञान की सहायता से लोगों की भौतिक समृद्धि की अभिवृद्धि में प्रभावी साधन साबित हो सके तथा वे अपने पवित्र ग्रन्थों की शिक्षाओं के आधार पर अधिक पवित्र तथा सुखी जीवन व्यतीत कर सकें|

Mahamana Madan Mohan Malaviya