Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Reminiscences

महामना मालवीय- कुछ संस्मरण

 

वेंकटेश नारायण तिवारी

 

 

भंगियों को भोजन कराया - कथा सुनाई

 

'वसंत पंचमी के आने से पहले ही महामना मालवीय जी ने प्रयाग की सेवा-समिति के मंत्रियों को यह आदेश दिया था कि प्रत्येक भंगी को एक धोती, एक सफ़ेद कुर्ता और एक साफा दिया जाए I वसंत पंचमी के दिन उनकी आज्ञा का पालन प्रयाग की सेवा-समिति ने किया, क्योंकि प्रयाग की सेवा समिति के सभापति, महामना मालवीय जी ने उन्हें यह आज्ञा दी थी I

'सब भंगियों को मालवीय जी के यहाँ- वह एक कुटिया में रहते थे- भोजन के लिए आमंत्रित किया I भंगियों की पंगत लग गयी और मालवीय जी के परिवार की देवियों ने बड़ी लगन और उत्साह से अपने कर-कमलों से उन्हें वे पदार्थ परोसे, जिनको उन्होंने खुद तैयार किया था I मालवीय जी भी इन भंगियों को भोजन कराने में तल्लीन थे I घूम-घूम कर जिस भंगी का पत्तल वह खाली देखते, उसे और लेने के लिए वह बाध्य करते थे I'

'भोजनोपरान्त, मालवीय जी ने उन आमंत्रित भंगियों को धर्म-कथा सुनायी I उस धर्म-कथा की कैसे चर्चा की जाए! मैं श्रोता की तरह भंगियों में बैठा था I लगभग दो घंटे तक यह धर्म-चर्चा होती रही I उनकी सारी वक्तृता में उन्हीं शब्दों की- देशज और तदभव शब्दों की- छटा थी, जिन्हें आज के हिन्दी लेखक अपनी रचनाओं में प्रयोग करने में शर्माते हैं I उनकी भाषा जितनी सरल थी उतना ही उसमें वाग्मिता का पुट था I यह चमत्कार सिर्फ मालवीय जी की वाणी में संभव हो सकता था I कितनी मीठी उनकी वाणी थी! भाषा कितनी सरल, पर रसमय थी! जिन्होंने उनके इस भाषण को नहीं सुना, वे वास्तव में जीवन के अदभुत चमत्कार को देखने से वंचित रह गए I'

 

हरिजनों को दीक्षा

 

यह कलकत्ते की बात है I जनवरी, सन १९२९, को दीक्षा देने का कार्य प्रारम्भ हुआ I दीक्षा-स्थान पर पुलिस और स्वंय-सेवकों का प्रबंध था I किन्तु विरोधी हतोत्साहित नहीं हुए थे I मालवीय जी ने जब स्नान के लिए गंगा जी में प्रवेश किया, उसी समय एक हिन्दू गुंडे ने मालवीय जी पर छुरे से वार करने का असफल प्रयत्न किया I महाराज(मालवीय जी) बच गए और गुंडा पकड़ लिया गया I प्रातः नौ बजे से मध्याह् बारह बजे तक मालवीय जी बराबर तथाकथित अस्पृश्यों को दीक्षा देते रहे I

अगस्त, सन १९३४, को एक सभा में भाषण करते हुए मालवीय जी ने कहा था- "सदाचार ऐसी वास्तु है कि इससे नीच कुल में उत्पन्न होकर भी मनुष्य ऊँचा सम्मान पा सकता है I

'चाण्डाल भी हमारे अंग ही हैं I क्या आप लोगों में से कोई चाहते हैं कि उन्हें पीने को पानी मिले?  (श्रोता- नहीं-नहीं)

'क्या आप चाहते हैं कि जिन सड़कों पर सब लोग चलते हैं, उन पर उन्हें चलने दिया जाय?  (श्रोता- कभी-नहीं)

"क्या आप चाहते हैं कि जिन स्कूलों में ईसाई-मुसलमानों के लड़के पढ़ते हैं, उनमें वे पढ़ने दिये जाएँ?  (श्रोता- कभी-नहीं)

"मेरी यही इच्छा है कि ऐसी जगहों में जहाँ रोक हो वह मिट सके I

"हमें इन अछूतों को जल देना है, रहने को स्थान देना है और उन्हें शिक्षा देनी है I मैं चाहता हूँ कि इनके चार करोड़ घरों में मूर्तियां रखीं हों और भगवान का भजन हो, तभी मंगल होगा I"

सन १९२५ में कांग्रेस के अधिवेशन के समय उसी पंडाल में हिन्दू-महासभा का जलसा हुआ I कांग्रेस की सभापति श्रीमती सरोजिनी नायडू थीं I हिन्दू-महासभा के सभापति थे श्री नरसिंह चिन्तामणि केलकर जो मालवीय जी के प्रधान हाथ थे और अछूतोद्धार पर बहुत जोर उन्होंनें दिया था I उसके मंच पर मालवीय जी ने एक 'हरिजन' के हाथ का जल ग्रहण किया I उनका यह कार्य असाधारण था क्योंकि खानपान के मामले में उनकी कटटरता भारतवर्ष भर में प्रसिद्द थी I यह बात किसी से छिपी नहीं है कि वाइसराय तक की पार्टियों में उन्होंने कभी चाय या जल तक नहीं पिया I

 

हरिजन मंत्री के हृदयोद्गार

 

श्रीयुत चौधरी गिरधारीलाल ने, जो उत्तर प्रदेश के एक मंत्री हैं, मालवीय जी को 'युग का महानतम मानव' कहते हुए एक लेख लिखा है I उसमें वह यह कहते हैं- "यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे काशी विश्वविद्द्यालय में लगातार चार वर्ष रहने और पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ I उस समय विद्द्यालय के जन्मदाता गोलोकवासी महामना पं० मदन मोहन मालवीय ही उसके कुलपति थे I प्रवेश-द्वार के कुछ ही आगे बढ़ने पर दाहिने हाथ वाली कोठी में वह रहा करते थे I मैंने  जीवन का क्रम बना लिया था कि प्रातः काल उठकर (उनकी) कोठी की ओर जाना और इस युग के सबसे बड़े और सबसे महान मानव के दर्शन करके अपने जीवन को सफल बनाना और उनसे प्रेरणा लेना I वह भी घूमने जाया करते थे I घड़ी की सुई की चाल को प्रतिद्वंदिता में हराने की उनमें अपूर्व क्षमता थी I मैंने समय को भाँप लिया था और ठीक एक ही स्थान पर और एक ही समय मेरा और ऋषि-समान महामानव का आमना-सामना हो जाया करता था I मैं उनका चरण-स्पर्श कर अपने मानव जीवन को कृतकृत्य समझा करता था I

मेरे जीवन में जो मोड़ मिला, वह उसी महामानव की कृपा के फल से I वह ऐसा युग था जब किसी हरिजन बालक का पढ़ना इतना आसान नहीं था (जैसे आज कल है) I विद्द्यालयों में बड़े-बड़े प्रतिबंध लगे हुए थे और उच्च शिक्षा प्राप्त करना तो प्रायः असंभव ही था I किन्तु महामना के काशी विश्वविद्द्यालय में इस छुआछूत के अभिशाप का प्रवेश नहीं था I उनके (मालवीय जी के ) दर्द भरे दिल में ऊँच-नीच का भेद-भाव जैसे कभी आया ही नहीं, और यदि उनका झुकाव भी हुआ तो हरिजनों ही की ओर I बस, उनको मालुम भर हो जाना चाहिए कि यह बालक हरिजन है और उनकी उदारता के कपाट उसके लिए खुल जाते थे I शिक्षा-शुल्क और छात्रावास-शुल्क  तो माफ़ ही हो जाता था, उसके दूसरे खर्चे भी महामना अपने पास से पूरा कर देते थे I आज शिक्षित-हरिजन-समुदाय में काफी संस्था उन लोगों की है, जिन्हें मालवीय जी की उदारता के कारण ही सारी सहूलियतें प्राप्त हुईं I


हरिजनों की दशा पर अश्रुधारा

 

देहरादून की बात है I मसूरी जाते हुए सन १९३५ में महामना के दर्शन का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ I हरिजनों की दुर्दशा का जिक्र छिड़ गया I वह बताने लगे कि 'मानव नामधारी ये करोड़ों प्राणी कितनी दयनीय दशा से गुजर रहे हैं I इन्हें एक वक़्त का अन्न जुटाने के लिए असंख्य यंत्रणाओं का सामना करना पड़ता है, फिर भी भोजन नसीब नहीं होता I मैंने अपनी आँखों से देखा है उन सैंकड़ों हरिजन बालक और बालिकाओं को जो गाय के गोबर से अन्न के दाने बीनते है, ताकि उससे वे अपनी क्षुधा-निवारणा कर सकें I यह कहते-कहते उस करुणा सागर की आँखों से अजस्त्र अश्रुधारा बह निकली I उपस्थित जन-समुदाय निस्पन्द हो गया I कितनी दया और कितनी करुणा भरी थी उस दयासागर के ह्रदय में हरिजनों के प्रति I


करुणा के सागर - कुत्ते की शुश्रूषा

 

एक बार मदन मोहन मालवीय बिजली की तरह मेरे घर धमके I वे बहुत जल्दी में थे I बोले, "एक कुत्ते के कान के पास कान से ही मिला हुआ एक बड़ा घाव है I घाव में कीड़े पड़ गए हैं I उसकी दवा बतलाइये I" मैंने एक अंग्रेजी दवा बतायी और इस सम्बन्ध में सलाह के निमित्त डाक्टर अविनाश के यहाँ गया I उनसे सारा हाल कहा I अविनाश हँस पड़े I बोले, "आपकी तजबीज की हुई दवा ठीक है I" मदनमोहन मेरे यहाँ से होकर दौड़े हुए वापस कुत्ते के पास गए I

उनके साथ में बहुत से स्कूली लड़के भी थे I कुत्ता मक्खियों के डर से टट्टर की आड़ में दुखी होकर बैठा था I मदनमोहन ने एक बांस में कपडा लपेट कर उसे दवा से तर किया और दूर से कुत्ते के घाव में दवा लगाना शुरू किया I कुत्ता भयंकर स्वर से गुर्राता और भौंकता था I वह दवा लगाने वाले को डरा कर भगा देना चाहता था I पर मदनमोहन भी अपनी धुन के पक्के थे I वे चुपचाप दवा लगाते जाते थे I दवा लगाने के बाद कुत्ते को आराम मिला और चिल्लाता हुआ कुत्ता थोड़ी देर में आराम से सोने लगा I ऐसा दु:खी कुत्ता पागलपन की अवस्था में रहता है I उस समय मदनमोहन की धुन में भी पागलपन का ही पुट था I अविनाश की हँसी का यह एक माकूल कारण था I अविनाश डाक्टर थे, इसलिए ऐसी कार्यवाही पर हँस सकते थे; पर उस दु:खी कुत्ते के दुःख को अनुभव करने और उसके दुःख को दूर करने की व्याकुलता से तड़पने के लिए एक ऐसे ह्रदय की जरुरत है जो मदनमोहन-जैसे कुछ थोड़े प्रतिभा-सम्पन्न महानुभावों को ही प्राप्त है

 

महामना का आत्मत्याग

 

सन १९११ की बात है I उन दिनों में गोखले जी के साथ भारत-सेवक-समिति के प्रधान कार्यालय में मैं रहता था I उनके अतिरिक्त, बाकी सदस्य अपने-अपने काम से बाहर चले गए थे I एक दिन शाम के वक़्त श्री गोपालकृष्ण गोखले और मैं एक बेंच पर बैठे थे I उस समय श्री गोपालकृष्ण गोखले ने अपनी तुलना मालवीय जी से की I उन्होंने कहा- 'मेरा आत्मत्याग क्या  है? मैं तो जिस समय फर्ग्युसन  कॉलेज में पढ़ाने लगा, तब मुझे माह के अंत में ८०) एकमुश्त मिलने लगे I इतनी बड़ी धन-राशि मैंने कभी नहीं देखी थी I अतएव उसे पाकर मैं तो मालामाल हो गया I' मालवीय जी के विषय में उन्होंने ने कहा कि- 'त्याग तो मालवीय जी का है I ,०००) रु० माहवार की आमदनी उनकी वकालत से होती थी I मालवीय जी के सामने गेंद था, लेकिन उन्होंने ठोकर मार कर उसे आगे बढ़ाने की कभी लालसा नहीं की I जो आदमी वकालत जैसे पेशे को लात मार सकता है, उसका आत्म-त्याग वास्तव में आत्म-त्याग है I'

 

अपने लिए कभी दान स्वीकार नहीं किया

 

"पूज्यचरण मालवीय जी के ज्येष्ठ पुत्र रमाकांत मालवीय का स्वर्गवास हो चुका था I उनके बंगले पर (जो प्रयाग स्थित जॉर्ज टाउन में था) कुछ ऋण बाकी था I इस कारण मालवीय जी के पौत्र बहुत चिन्तित रहा करते थे I पौत्र के दुःख से महाराज (मालवीय जी) भी दुखित थे I कुल पंद्रह-बीस हजार रुपयों की बात थी I मुझे जब मालुम हुआ तब मैंने मालवीय जी के भक्त एक महाराजा साहब से इस बात की चर्चा की I महाराज साहब मालवीय जी से मिलने काशी पधारे और जब वह उनसे मिले तब पचास हजार रुपयों का एक चेक देते हुए वह मालवीय जी से बोले- 'महाराज, ये रूपये आपके व्यक्तिगत कार्यों के लिए हैं I इनका उपयोग व्यक्तिगत कार्यों के लिए जैसा आप चाहें वैसा करें I'

 

'मालवीय जी की आँखों में आँसू छलछला आए और उन्होंने महाराजा साहब को धन्यवाद देते हुए उस चेक को व्यक्तिगत कार्यों के लिए लेना अस्वीकार कर दिया I महाराजा साहब ने बहुत आग्रह किया, पर मालवीय जी ही नहीं माने I

 

'अन्त में महाराजा साहब ने मालवीय जी से कहा- 'महाराज, आप तो विद्द्वान शास्त्रज्ञ हैं I दिया हुआ दान कहीं वापस लिया जाता है? मैं ये चेक अब वापस कैसे ले सकता हूँ ?'

 

'मालवीय जी ने मुझे बुलाया और चेक मुझे देते हुए बोले- 'इसे सनातन धर्म महासभा के खाते में जमा कर दो I आधा सभा के लिए है और आधा धर्म-ग्रंथों का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित कराने के लिए है I"


कभी अपने हठ से नहीं डिगे

 

मदनमोहन में बचपन से ही एक जबर्दस्त हठ यह था  कि जिस बात को वे उचित और सच समझते थे, उससे उनको कभी कोई डिगा नहीं सकता था I इस सम्बन्ध में बड़ों की झिड़कियों की भी परवाह करके अपने मत पर कायम रहते थे I एक बार रायबहादुर लाला रामचरनदास जी और इनमें बहुत कड़ाई के साथ जवाब-सवाल हो गया I रायबहादुर साहब को क्रोध गया था और उन्होंने मदनमोहन को फटकार कर कहा, 'तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो!' मदनमोहन का उत्तर बहुत सादा था I उन्होंने कहा, 'मैं खूब जानता हूँ, कि आप बहुत बड़े आदमी हैं और मैं छोटा हूँ; मगर मेरी बात सही है और इस काबिल नहीं है कि वह काटी जाय I'

 

मदनमोहन की दृढ़ता बानी रही, मगर रायबहादुर साहब में परिवर्तन हो गया I बाद में वे ही मदनमोहन को लड़कों की तरह प्यार करने लगे थे और मदनमोहन जिस काम के लिए भी उनको पकड़ लेते थे, वह रायबहादुर को करना ही पड़ता था I कभी-कभी मदनमोहन रायबहादुर साहब से इतना काम लेते थे कि वे झुंझला जाते थे और कहते थे कि 'भाई' मालवीय तो मुझको बहुत तंग करते हैं I हिन्दू-यूनिवर्सिटी की स्थापना के सम्बन्ध में मदनमोहन ने रायबहादुर लाला रामचरनदास से एक लाख रुपया लिया था I इस दान की कथा कम रोचक नहीं है I


जनता के सेवक

 

जिस समय पंडित पद्मकांत मालवीय जी बनारस हिन्दू स्कूल में पढ़ते थे, उस समय की एक घटना का उन्होंने जिक्र किया है I उससे मालवीय जी की सज्जनता और उदारता का हमे सहज ही बोध हो जाता है I श्री गोविंद मालवीय जी (मालवीय जी के चौथे पुत्र) मालवीय जी साथ रहते थे I मालवीय जी की तबियत काफ़ी ख़राब थी और डॉक्टरों ने उन्हें किसी से मिलने या बात करने की सख्त मन ही कर दी थी I श्री गोविंद मालवीय ने मकान के सबसे पिछले ऊपरी हिस्से के एक कमरे में उनके रहने का प्रबंध कर दिया था I एक दिन कुछ मद्रासी भाई मालवीय जी के दर्शनों की अभिलाषा से बंगले पर आए I श्री गोविंद मालवीय उन्हें मिलने से रोक रहे थे और वे लोग कहते थे कि 'बिना दर्शन किए हम जाएँगे नहीं I' दर्शनार्थी जोर-जोर से चिल्ला कर बातें करने लगे I आवाज़ बाबू जी के कानों तक पहुँच गयी I उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा कि 'मामला क्या है ?' मैंने साफ़-साफ़ बता दिया I उन्होंने कहा, 'बुलाओ गोविंद को I' मैं (उन्हें) लाया I आते ही श्री गोविंद मालवीय पर बाबू जी नाराज़ होने लगे, बोले, 'मुझसे मिलने वालों को रोकने का तुम्हे क्या अधिकार है ? यह बंगला जनता का है I मेरी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं I मैं जनता कि सेवा करता हूँ I इसलिए यहाँ (मैं) रहता हूँ I जनता को अधिकार है कि वह जब चाहे, तब अपने सेवक से सेवा ले  सकती है I उन लोगों को बुला लाओ I श्री गोविंद मालवीय नाराज़ हो गए और मालवीय जी से तर्क वितर्क करने लगे I बाबू जी का धैर्य छूट गया I उन्होंने बिगड़ कर कहा, 'गोविंद, मैं तुमसे तर्क नहीं सुनना चाहता I यदि तुम्हें इन बातों से कष्ट होता है तो अच्छा है कि तुम अपने रहने का प्रबंध किसी दूसरी जगह कर लो I इस मकान पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है I यहाँ रह कर मैं तुम्हें अपने और जनता के बीच आने का अधिकार कदापि नहीं दे सकता I'

 

श्री पद्मकांत मालवीय से मालवीय जी ने कहा कि 'तुम जाओ और उन लोगों को यहाँ बुला लाओ I बेचारे इतनी दूर से आते हैं I बार-बार आने का पैसा बेचारे गरीबों के पास कहाँ है! और गोविंद, वे चाहते क्या हैं, कुछ नहीं, केवल अपने सेवक का दर्शन; और तुम उन्हें रोक रहे हो I छि: छि: कैसी छोटी बात है I'


भिक्षा का अन्न समाज सेवी ही ग्रहण कर सकता है

 

दूसरी घटना का जो वर्णन श्री पद्मकांत मालवीय ने किया है, उससे मालवीय जी के विचार भिक्षा-वृत्ति के विषय में हमें मालूम होते है I उन्होंने कहा है- 'देखो, जानते हो मैंने तुम्हें अपना भोजन क्यों नहीं करने दिया था? तुम्हें यह मालुम है कि मेरे भोजन की सामग्री शिवप्रसाद (देशभक्त स्वर्गीय बाबू शिवप्रसाद गुप्त) के यहाँ से आती है ? वह सीधा मेरे लिए दान में आता है I बाबू (हमारे परबाबा अर्थात मालवीय जी के पिता) कहा करते थे कि वही ब्राह्मण दान ले, जिसमे दान को पचाने की शक्ति हो I इसीलिए हमारे यहाँ दान नहीं लिया जाता I दान एक प्रकार की भीख ही तो है I भिक्षा का अन्न खाना कोई अच्छी बात नहीं I ऐसा अन्न खाने से मनुष्य में आलस्य आता है I 'आलस्याद अन्नदोषाच्च' I मैं थोड़ी-बहुत देश और समाज की जो सेवा कर देता हूँ, उसके बदले यह दान स्वीकार कर लेता हूँ I मज़बूरी, क्या करूँ ? उस जन्म में जाने कौन सा पाप बन पड़ा था जो इस जीवन में दूसरों का आश्रित बनना पड़ा I मैं नहीं चाहता कि मेरे परिवार में अन्य कोई व्यक्ति दूसरों का आश्रित होकर भिक्षा का जीवन यापन करे I"



 

 


Mahamana Madan Mohan Malaviya