Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya
Speeches & Writings

       

ॐ श्री हरिः

 

जगत् में सबसे उत्तम और जानने योग्य कौन है?

 

ईश्वर

 

स संसार में सबसे पुराने ग्रन्थ वेद हैं। यूरोप के विद्वान् भी इस बात को मानते हैं कि ऋग्वेद कम-से-कम चार सहस्त्र वर्ष पुराना है,  और उससे पुराना कोई ग्रन्थ नहीं। ऋग्वेद पुकार कर कहता है कि सृष्टि के पहले यह जगत् अन्धकारमय था। उस तम के बीच में और उससे परे केवल एक ज्ञानस्वरूप स्वयम्भू भगवान् विराजमान थे,  और उन्होंने उस अन्धकार में अपने को आप प्रकट किया,  और अपने तप से, अर्थात् अपनी ज्ञानमयी शक्ति के संचालन से,  सृष्टि को रचा। लिखा है-




तम आसीत्तमसा गुठठ्हमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।

तुच्छयेनाभ्यपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।।

(ऋग्वेद अष्टक ८, अध्याय ७, वर्ग १७, मंत्र ३)


        इसी वेद के अर्थ को मनु भगवान् ने लिखा है कि सृष्टि के पहले यह जगत् अन्धकारमय था। सब प्रकार से सोता हुआ-सा दिखाई पड़ता था। जिनका किसी दूसरी शक्ति के द्वारा जन्म नहीं हुआ, जो आप अपनी शक्ति से अपनी महिमा में सदा से वर्तमान हैं और रहेंगे,  उन ज्ञानमय, प्रकाशमय, स्वयम्भू ने उस समय अपने को आप प्रकट किया और उनके प्रकट होते ही अन्धकार मिट गया। मनुस्मृति में लिखा है-


             

आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वत:

तत: स्वयम्भूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्।

महाभूतादिवृत्तौजा: प्रादुरासीत्तमोनुद:

योऽसावतीन्द्रियग्राह्य: सूक्ष्मोऽव्यक्त: सनातन:।

          सर्वभूतमयोऽचिन्त्य: स एव स्वयमुद्वभौ।। (१/ ५-७)


 


ऋग्वेद कहता है-  


   हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।

    स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।   (८।७।३।१)

य इमा विश्वा भुवनानि जह्वदृषिर्होता न्यसीद पिता न:।

स आशिषा द्रविणमिच्छमान: प्रथमच्छदवरां आविवेश।।

विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात।

                          सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैद्यावाभूमि जनयन देव एक:।। (८।३।१६।१,३)

यो न: पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यो देवानां नामधा एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्त्यन्या।।


औ भी श्रुति कहती है-



'आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्’   (ऐतरे.१।१।१)

'एकमेवाद्वितियम्          (छान्दोग्य.६।२।१)


भगवात में भगवान् का वचन है-


            अहमेवासमेवाग्रे नान्यत्सदसत: परम्।

                  पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।। (२।९।३२)


सृष्टि के आदि में कार्य (स्थूल) और कारण (सूक्ष्म) से अतीत एकमात्र मैं ही था,  मेरे सिवा और कुछ भी न था। सृष्टि के पश्चात् भी मैं ही रहता हूँ और यह जो जगत्प्रपंच  दीख पड़ता है,  वह भी मैं ही हूँ तथा सृष्टि का संहार हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है,  वह भी मैं ही हूँ। शिवपुराण में भी लिखा है-


स एव तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्ति कश्चन।

संसृज्य विश्वं भुवनं गोप्तान्ते संचुकोच स:।।

विश्वतश्चक्षुरेवायमुतायं विश्वतोमुख: ।

तथैव विश्वतोबाहुर्विश्रत: पादसंयुत:।।

द्यावाभूमी च जनयन् देव एको महेश्वर: ।

           स एव सर्वदेवानां प्रभवश्चोद्भवस्तथा।।  (७।१।६।१४-१६)

अचक्षुरपि य: पश्यत्यकर्णोऽपि शृणोति य:।

             सर्वं वेत्ति न वेत्तास्य तमाहु: पुरुषं परम्।।  (७।१।६।२३)


     उस समय एक रुद्र ही थे,  दूसरा कोई न था। उन जगत् के रक्षक ने ही संसार की रचना करके अन्त में उसका संहार कर दिया। उनके चारों ओर भुजाएँ हैं तथा चारों ओर चरण हैं। पृथिवी और आकाश को उत्पन्न करने वाले एक महेश्वर देव ही हैं,  वे ही सब देवताओं के कारण और उत्पत्ति के स्थान हैं। जो बिना आँख-कान के ही देखते और सुनते हैं,  जो सबको जानते हैं पर जिन्हें  कोई नहीं जानता,  वे परमपुरुष कहे जाते हैं।  भागवत में लिखा है-


एक: स आत्मा पुरुष: पुराण: सत्य: स्वयं ज्योतिरनन्त आद्य:।

           नित्योऽक्षरोऽजस्त्रसुखो निरंजन: पूर्णोऽद्वयो मुक्त उपाधितोऽमृत:।। (१०।१४।२३)


वह एक ही आत्मा पुराण पुरुष, सत्य, स्वयंप्रकाशस्वरुप, अनन्त, सबका आदि कारण, नित्य,  अविनाशी, निरन्तर सुखी,  माया से निर्लिप्त,  अखण्ड,  अद्वितीय,  उपाधि से रहित तथा अमर है। सब वेद, स्मृति, पुराण के इसी तत्त्व को गोस्वामी तुलसीदासजी ने थोड़े अक्षरों में यों कह दिया है-


ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनंदरासी।।

 

 

आदि अन्त कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।।

आननरहित सकल रस भोगी। बिनु वानी वकता बड़ जोगी।।

आतन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान-बिनु बास असेषा।

         असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहीं बरनी।।


किन्तु यह विश्वास कैसे हो कि ऐसा कोई परमात्मा है?  जो वेद कहते हैं कि यह

परमात्मा है,  वही यह भी कहते हैं कि उसको हम आँखों से नहीं देख सकते।


न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्|

ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमान:।।


       ‘ईश्वर को कोई आँखों से नहीं देख सकता, किन्तु हममें से हर एक मन को पवित्र कर विमल बुद्धि से ईश्वर को देख सकता है।’ इसलिये जो लोग ईश्वर को मन की आँखों (बुद्धि) से देखना चाहते हैं, उनको उचित है कि वे अपने शरीर और मन को पवित्र कर और बुद्धि को विमल कर ईश्वर की खोज करें।


      

हम देखते क्या हैँ?


 

हमारे सामने जन्म से लेकर शरीर छूटने के समय तक बड़े-बड़े चित्र-विचित्र दृश्य दिखाई देते हैं, जो हमारे मन में इस बात को जानने की बड़ी उत्कण्ठा उत्पन्न करते हैं कि वे कैसे उपजते हैं और कैसे विलीन होते हैं?  हम प्रतिदिन देखते हैं कि प्रातःकाल पौ-फट होते ही सहस्त्र किरणों से विभूषित सूर्यमण्डल पूर्व दिशा में प्रकट होता है और प्रकाश-मार्ग से विचरता,  सारे जगत् को प्रकाश,  गर्मी और जीवन पहुँचाता,  सायंकाल पश्चिम दिशा में पहुँच कर नेत्रपथ से परे हो जाता है। राणितशास्त्र के जानने वालों ने गणना कर यह निश्चय किया है कि यह सूर्य पृथ्वी से नौ करोड़ अट्ठाईस लाख तीस सहस्त्र मील की दूरी पर है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि यह इतनी दूरी से इस पृथिवी के सब प्राणियों को प्रकाश, गर्मी और जीवन पहुँचाता है! ऋतु-ऋतु में अपनी सहस्त्र किरणों  से जल को खींचकर सूर्य आकाश में ले जाता है और वहाँ से मेघ का रूप बनाकर फिर जल को पृथिवी पर बरसा देता है और उसके द्वारा सब घास, पत्ती, वृक्ष, अनेक प्रकार के अन्न और धान और समस्त जीवधारियों को प्राण और जीवन देता है। गणितशास्त्र बतलाता है कि जैसा यह एक सूर्य है ऐसे असंख्य और हैं और इससे बहुत बड़े-बड़े भी हैं जो सूर्य से भी अधिक दूर होने के कारण हमको छोटे-छोटे तारों के समान दिखाई देते हैं। सूर्य के अस्त होने पर प्रतिदिन हमको आकाश में अनगिनत तारे-नक्षत्र-ग्रह चमकते दिखाई देते हैं। सारे जगत् को

 

 



सो प्रकाश तुम साजे सदा,  जीव कर्म करि बन्धन बँधा।

सर्वव्यापी तुम सब ठाहर,  तुमहिं दूर जानत नर नाहर||

तुम सबके प्रभु अन्तर्यामी,  जीव बिसर रह्यो तुमको स्वामी||


         यह परमात्मा जीव रूप में प्रत्येक जीवधारी के हदय के बीच में विराजमान है- ईश्वर-अंश जीव अविनाशी। चेतन अमल सहज सुखराशी।। स्वयं भगवान् ने गीता में कहा है- ईश्वर: सर्वभूतानां ह्नद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। (१८।६१) हे अर्जुन! ईश्वर सब जीवों के हृदय में रहते हैं।


इस विषय में याज्ञवल्क्य मुनि ने सब वेदों  का तत्त्व यों वर्णन किया है-


एक सौ चवालीस सहस्त्र हित और अहित नाम की नाडियाँ प्रत्येक मनुष्य के हृदय में दौड़ी हुई हैं। उसके बीच में चन्द्रमा के समान प्रकाश वाला एक मण्डल है, उसके बीच में  अचल दीप के समान आत्मा विराजमान है,  उसी को जानना चाहिए। उसी का ज्ञान होने से मनुष्य आवागमन से मुक्त होता है।

      यह आत्मा मनुष्य से लेकर पशु-पक्षी,  कीट-पतंग,  वृक्ष-विटप,  समस्त छोटे-बड़े जीवधारियों  में समान रूप से विराजमान है।

वेदव्यासजी कहते हैं-


ज्योतिरात्मनि नान्यत्र समं तत्सर्वजन्तुषु।

स्वयं च शक्यते द्रष्टु सुसमाहितचेतसा।


        ब्रह्म की ज्योति अपने भीतर ही है,  वह सब जीवधारियों मे एकसम है,  मनुष्य मन को अच्छी तरह शान्त और स्थिर कर उसी से उसको देख सकता है।

गीता में स्वयं भगवान् का वचन है-


समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।

विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति।।

                       (१३१२७)


ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।

ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं  हृदि सर्वस्य विष्टितम्।।

                 (१३११७)


        वही पण्डित है,  जो विनाश होते हुए मनुष्यों के बीच में विनाश न होते हुए सब जीव-धारियों में बैठे हुए परमेश्वर को देखता है।


        सब ज्योतियों की वह ज्योति,  समस्त अन्धकार के परे चमकत्ता हुआ, ज्ञानस्वरूप,  जानने के योग्य,  जो ज्ञान से पहचाना जाता है,  ऐसा वह परमात्मा सबका सुहृद्,  सब प्राणियों के हृदय में बैठा है।


ऐसे घट-घट-व्यापक उस एक परमात्मा की मनुष्यमात्र को विमल भक्ति के साथ उपासना करनी चाहिए और यह ध्यानकर कि वह प्राणीमात्र में व्याप्त है, प्राणीमात्र से प्रीति करनी चाहिए। सब जीवधारियों को प्रेम की दृष्टि से देखना चाहिए। जैसा कि भक्तशिरोमणि प्रह्लादजी ने कहा है-


 

ततो हरौ भगवति भक्तिं कुरुत दानवा:।

आत्मौपम्येन सर्वत्र सर्वभूतात्मनी श्वरे।।

दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रिय: शुद्रा व्रजौकस:।

खगा मृगा: पापजीवा: सन्ति ह्यच्युततां गता:।।

एतावानेव लोकेऽस्मिन् पुंस: स्वार्थपर: स्मृत:।

एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम्।।

                           (श्रीमद्भा .७।७।५३--५५)


          अतएव हे दानवों! सबको अपने ही समान सुख-दुःख होता है, ऐसी बुद्धि धारण करके सब प्राणियों के आत्मा और ईश्वर भगवान् श्रीहरि की भक्ति करो। दैत्य, यक्ष,  राक्षस,  स्त्रियाँ,  शूद्र, ब्रजवासी गोपाल,  पशु,  पक्षी और अन्य पातकी जीव भी भगवान् अच्युत की भक्ति से निस्सन्देह मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं। गोविन्द भगवान् के प्रति एकान्त-भक्ति करना और चराचर समस्त प्राणियों में भगवान् है,  ऐसी भावना करना ही इस लोक में सबसे उत्तम स्वार्थ है।


           

सनातनधर्म का मूल


भगवान्वासुदेवो हि सर्वभूतेष्ववस्थित:।

एतज्ज्ञानं हि सर्वस्य मूलं धर्मस्य शाश्वतम्।।


        यह ज्ञान कि भगवान् वासुदेव सब प्राणियों के हृदय में स्थित है,  सम्पूर्ण सनातनधर्म का सदा से चला आता हुआ और सदा रहने वाला मूल है। इसी ज्ञान को भगवान् ने अपने श्रीमुख से गीता में कहा है- समोऽहं सर्वभूतेषु  ( ९।२९) मैं सब प्राणीमात्र में एक समान हूँ। तथा यह कि-


विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।

                  शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।    (गीता ५।१८)


      विद्या और विनय से युक्त ब्रह्मण में,  गौ-बैल में,  हाथी में,  कुत्ते में और चाण्डाल में पण्डित लोग समदर्शी होते हैं,  अर्थात् सुख-दु:ख के विषय में उनको समान भाव से देखते हैं। तथा यह भी कि-


आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

                               सुखं वा यदि वा दुःख स योगी परमो मत:।।            (गोता ६।३२)


         जो पुरुष सबके सुख-दु:ख के विषय में अपनी उपमा से समान दृष्टि से देखता है उसी को सबसे बड़ा योगी समझना चाहिए।

 

इसीलिए महर्षि वेदव्यासजी ने कहा है-


श्रुयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्त्वा चाप्यवधार्यताम्।

                         आत्मन: प्रतिकुलानि परेषां न समाचरेत्।। (विष्णुधर्मोत्तर. ३।२५५।४४)

न तत्परस्य सन्दध्यात् प्रतिकूलं यदात्मन:।

एष सामासिको धर्म: कामादन्य: प्रवर्त्तते।।

               (महा.अनु.११३।८)


        सुनो धर्म का सर्वस्व और सुनकर इसके अनुसार आचरण करो। जो अपने को प्रतिकूल जान पड़े,  जिस बात से अपने को पीड़ा पहुँचे,  उसको दूसरों के प्रति न करो। दूसरे के प्रति हमको वह काम नहीं करना चाहिए जिसको यदि दूसरा हमारे प्रति करे तो हमको बुरा मालूम हो या दु:ख हो। संक्षेप में यही धर्म है,  इसके अतिरिक्त दूसरे सब धर्म किसी बात को कामना से किए जाते हैं।


जीवितुं य: स्वयं चेच्छेत्कथं सोऽन्यं प्रधातयेत्।

यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत्।।

                (महा.शां.५९।२२)


        जो चाहता है कि मैं जीऊँ,  वह कैसे दूसरे का प्राण हरने का मन करे?  जो-जो बात मनुष्य अपने लिये चाहता है उसको चाहिए कि वही-वही बात औरों के लिये भी सोचे।


 अहिंसा,  सत्य,  अस्तेय,  धर्म जिनका सब समय में पालन करना सब प्राणियों के लिये विहित है और जिनके उल्लंघन करने से आदमी नीचे गिरता है,  इन्हीं सिद्धान्तों पर स्थित हैं। इन्हीं सिद्धान्तों  पर वेदों में गृहस्थों  के लिये पंचमहायज्ञ का विधान किया गया है कि जो भूल से भी किसी निर्दोष जीव की हिंसा हो जाय तो हम उसका प्रायश्चित करें। जो हिंसक जीव हैं,  जो हमारा या किसी दूसरे निर्दोष प्राणी का प्राणघात करना चाहते हैं,  या उनका धन हरना या घर्मं बिगाड़ना चाहते हैं, जो हमपर या हमारे देश पर, हमारे गाँव पर आक्रमण करते हैं,- ऐसे लोग आततायी कहे जाते हैं। अपने या अपने किसी भाई या बहिन के प्राण,  धन,  धर्म,  मान की रक्षा के लिये ऐसे आततायी पुरुषों या जीवों का,  आवश्यकता के अनुसार आत्मरक्षा के सिद्धान्त पर वध करना धर्म है। निरपराधी अहिंसक जीवों की हिंसा करना अधर्म है।


इसी सिद्धान्त पर वेद के समय से हिन्दू लोग सारी सृष्टि के निर्दोष जीवों के साथ सहानुभूति करते आए हैं। गौ को हिन्दू लोकमाता कहते हैं। क्योंकि वह मनुष्य-जाति को दूध पिलाती है और सब प्रकार से उनका उपकार करती है। इसलिये उसकी रक्षा करना तो मनुष्यमात्र का विशेष कर्त्तव्य है, किन्तु किसी भी निर्दोष या निरपराध प्राणी को मारना,  किसी का धन या प्राण हरना,  किसी के साथ अत्याचार करना,  किसी को झूठ से ठगना,  ऊपर लिखे धर्म के परम सिद्धान्त के अनुसार अकार्य, अर्थात् न करने की बातें  हैं। और अपने समान सुख-दु:ख का अनुभव करने वाले जीवधारियों को सेवा करना,  उनका उपकार, यह त्रिकाल में सार्वलौकिक सत्य घर्म हैं।


इसी मूल सिद्धान्त के अनुसार वेदधर्म के मानने वालों को उपदेश दिया जाता है कि न केवल मनुष्यों को,  किन्तु पशु-पक्षियों तथा समस्त जीवों को बलिवैश्वदेव के द्वारा नित्य कुछ आहार पहुँचाना अपना धर्म समझें। यह बात नीचे लिखे श्लोकों से स्पष्ट है।

                  

बलिवेश्वदेव के श्लोक


ततोऽन्यदन्नमादाय भूमिभागे शुचौ पुन:।

 

 

दद्यादशेषभूतेभ्य: स्वेच्छया तत्समाहिता:।।

देवा मनुष्या: पशवो वयांसि सिद्धा: सयक्षोरगभूतसघ्ना:।

प्रेता: पिशाचास्तरव: समस्ता ये चान्नपिच्छन्ति मया प्रदत्तम्।।

पिपीलिका: कीटपतन्गकाद्या: बुभूक्षिता: कर्मनिबन्धबद्धा:।

प्रयान्तु ते तृप्तिमिदं मयान्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु।।

भूतानि सर्वाणि तथान्नमेतदहं च विष्णुर्न ततोऽन्यदस्ति।

तस्मादहं भुतनिकायभुतमन्नं प्रयच्छामि भवाय तेषाम्।

चतुर्दशो भूतगणो य एष तत्र स्थिता येऽखिलभूतसघ्ना:।

तृप्तयर्थमन्नं हि मया विसृष्टं तेषामिदं ते मुदिता भवन्तु।।

इत्युच्चार्या नरो दद्यादन्नं श्रद्धासमन्वितम्।

भुवि एभूतोपकाराय गृही सर्वाश्रयो यत:।।

(विष्णु.३।११।५०-५२, ५४-५६)


        और-और यज्ञों को करने के बाद मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार दूसरा अन्न ले,  पृथ्वी के पवित्र भाग में रखे,  फिर सावधानता पूर्वक समस्त जीवों के लिए बलि दे,  और यों कहे- ‘देवता, मनुष्य,  पशु,  पक्षी,  सिद्ध,  यक्ष,  सर्प,  नाग,  अन्य भूत-समूह,  प्रेत,  पिशाच तथा सम्पूर्ण वृक्ष एवं चींटी,  कीड़े और पतंगे आदि जीव जो कर्मबन्धन में बँधे हुए भूखे तड़प रहे हों,  और मुझसे अन्न चाहते हों,  उनके लिये यह अन्न मैंने रख छोड़ा है,  इससे उनकी तृप्ति हो और वे सुखी हों।  सब जीव,  यह अन्न, और मैं,  सब विष्णु ही है,  उनसे अन्य कुछ भी नहीं है,  इस कारण मैं जीवों के शरीरभूत इस अन्न को उन प्राणियों की रक्षा के लिये देता हूँ। यह जो चौदह प्रकार का भूतों का समुदाय है,  इसमें जो सम्पूर्ण जीवसमूह स्थित हैं,  उनकी तृप्ति के लिये मैंने यह अन्न दिया है। वे प्रसन्न हों।’ मनुष्य यों कहकर प्राणियों के उपकारार्थ पृथ्वी पर श्रद्धापूर्वक अन्न दे,  क्योंकि गृहस्थ सबका आधार होता है।


       इसी धर्म के अनुसार सनातनधर्मी नित्य तर्पण करने के समय न केवल अपने पितरों का तर्पण करते हैं,  किन्तु समस्त ब्रह्माण्ड के जीवधारियों का। यह नीचे लिखे श्लोकों से विदित है, यथा-


देवा: सुरास्तथा यज्ञा नागा गन्धर्वराक्षसा:

पिशाचा: गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा:।।

जलेचरा भूनिलया वाय्वाधाराश्च जन्तव:।

प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला:।।

नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिता:।

तेषामाप्यायनायैतद्दीयते सलिलं मया।


अपनी किरणों से सुख देनेवाला चन्द्रमा अपनी शीतल चाँदनी से रात्रि को ज्योतिष्मती करता हुआ आकाश में सूर्य के समान पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा को जाता है। प्रतिदिन रात्रि के आते ही दसों दिशाओं को प्रकाश करती हुई नक्षत्र-तारा-ग्रहों की ज्योति ऐसी शोभा धारण करती है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ये सब तारा-ग्रह सूत में बँधे हुए मार्गों में चलते हुए आकाश में घूमते दिखाई देते हैं। यह प्रत्यक्ष है कि गर्मी की ऋतु में यदि सूर्य तीव्र रूप से नहीं तपता तो वर्षाकाल में वर्षा अच्छी नहीं होती। यह भी प्रत्यक्ष है कि यदि वर्षा न हो तो जगत् में प्राणीमात्र के भोजन के लिये अन्न और फल न हों। इससे हमको स्पष्ट दिखाई देता है कि अनेक प्रकार के अन्न और फल द्वारा सारे जगत् के प्राणियों के भोजन का प्रबन्ध मरीचिमाली सूर्य के द्वारा हो रहा है। क्या यह प्रबन्ध किसी विवेकवती शक्ति का रचा हुआ है जिसको स्थावर-जंगम सब प्राणियों को जन्म देना और पालना अभीष्ट है,  अथवा यह केवल जड़ पदार्थो के अचानक संयोगमात्र का परिणाम है?  क्या यह परम आश्चर्यमय गोलकमण्डल अपने आप जड़ पदार्थों के एक दूसरे के खींचने के नियम मात्र से उत्पन्न हुआ है और अपने-आप आकाश में वर्ष-से-वर्ष,  सदी-से-सदी,  युग-से-युग घूम रहा है,  अथवा इसके रचने और नियम से चलाने में किसी चैतन्य शक्ति का हाथ है?  बुद्धि कहती है कि ‘है’ वेद भी कहते हैं कि 'है' । वे कहते हैं कि सूर्य और चन्द्रमा को,  आकाश और पृथ्वी को परमात्मा ने रचा।


सुर्य्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।

दिवन्च पृथ्वीन्चान्तरिक्षमथो स्व:।।

(ऋग्वेद ८1८।४८।३)


 

           

प्राणियों की रचना


      इसी प्रकार हम देखते हैं कि प्राणात्मक जगत् की रचना इस बात की घोषणा करती है कि इस जगत् का रचने वाला एक ईश्वर है। यह चैतन्य जगत् अत्यन्त आश्चर्य से भरा हुआ है। जरायु से उत्पन्न होने वाले मनुष्य,  सिंह,  हाथी,  घोडे,  गौ आदि;  अण्डों से उत्पन्न होने वाले पक्षी;  पसीने और मैल से पैदा होनेवाले कीड़े,  पृथिवी को फोड़कर उगने वाले वृक्ष;  इन सबकी उत्पत्ति, रचना और इनका जीवन परम आश्चर्यमय है। नर और नारी का समागम होता है। उस समागम में नर का एक अत्यन्त सूक्ष्म किन्तु चैतन्य अंश गर्भ में प्रवेश कर नारी के एक अत्यन्त सूक्ष्म सचेत अंश से मिल जाता है। इसको हम जीव कहते हैं। वेद कहते हैं कि-


         बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च।

                                            भागो जीव: स विज्ञेय: स चान्त्याय कल्पते।।                 (श्वेता.५।९)


एक बाल के आगे के भाग के खड़े-खड़े सौ भाग कीजिए और उन सौ में से एक के फिर सौ खड़े-खड़े टुकड़े कीजिए तो आपको ध्यान में आवेगा कि उतना सूक्ष्म जीव है। यह जीव गर्भ में प्रवेश करने के समय से शरीर रूप से बढ़ता है। विज्ञान के जानने वाले विद्वानों ने अणुवीक्षण यंत्र से देख कर यह बताया है कि मनुष्य के वीर्य के एक बिन्दु में लाखों जीवाणु होते हैं और उनमें से एक ही गर्भ में प्रवेश  पाकर टिकता और वृद्धि पाता है। नारी के शरीर में ऐसा प्रबन्ध किया गया है कि यह जीव गर्भ में प्रवेश पाने के समय से एक नली के द्वारा आहार पावे,  इसकी वृद्धि के साथ-साथ नारी के गर्भ में एक जल से भरा थैला बनता जाता है जो गर्भ को चोट से बचाता है। इस सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, अणु-से-अणु, बाल के आगे के भाग के दस हजारवें भाग के समान सूक्ष्म वस्तु में यह शक्ति कहाँ से आती है कि जिससे यह धीरे-धीरे अपनी माता और अपने पिता के समान रूप,  रंग और सब अवयवों को धारण कर लेता है?  कौन-सी शक्ति है,  जो गर्भ में इसका पालन करती और इसको बढ़ाती है?  वह क्या अद्भुत रचना है,  जिससे बच्चे के उत्पन्न होने के थोड़े समय पुर्व ही माता के स्तनों में दूध आ जाता है?  कोन-सी शक्ति है जो सब असंख्य प्राणवन्तों को,  सब पशु-पक्षियों को,  सब कीट-पतंगों को, सब पेड़-पल्लवों को पालती है और उनको  समय से चारा और पानी पहुँचाती है?  कौन-सी शक्ति है जिससे चीटियाँ दिन में भी और रात में भी सीधी भीत पर चढ़ती चली जाती हैं?  कौन-सी शक्ति है जिससे छोटे-से-छोटे और बड़े-से-बड़े पक्षी अनन्त आकाश में दूर-से-दूर तक बिना किसी आधार के उड़ा करते हैं?


नरों और नारियों की,  मनुष्यों की,  गौओं की,  सिंहों  की,  हाथियों की,  पक्षियों की,  कीडों की सृष्टि कैसे होती है?  मनुष्यों से मनुष्य,  सिंहों से सिंह,  घोडों से घोडे, गौओं से गौ,  मयूरों से मयूर, हंसों से हंस,  तोतों से तोते,  कबूतरों से कबूतर,  अपने अपने माता-पिता के रंग-रूप अवयव लिए हुए कैसे उत्पन्न होते हैं?  छोटे-से-छोटे बीजों से किसी अचिन्त्य शक्ति से बढ़ाए हुए बडे और छोटे असंख्य वृक्ष उगते हैं तथा प्रतिवर्ष और बहुत वर्षों तक पत्ती, फल, फूल, रस, तैल, छाल और लकड़ी से जीवधारियों को सुख पहुँचाते,  सैकडों,  सहस्त्रों स्वादु, रसीले फलों से उनको तृप्त और पुष्ट करते,  बहुत वर्षों तक श्वास लेते, पानी पीते,  पृथिवी से और प्रकाश से आहार खींचते प्रकाश के नीचे झूमते-लहराते रहते हैं?


इस आश्चर्यमयी शक्ति की खोज में हमारा ध्यान मनुष्य के रचे हुए एक घर की ओर जाता है। हमारे सामने एक घर बना हुआ है। इसमें भीतर जाने के लिये एक बड़ा द्वार है। इसमें  अनेक स्थानों में पवन और प्रकाश के लिये खिड़कियों तथा झरोखे हैं। भीतर बड़े-बड़े खम्भे और दालान हैं। धुप और पानी रोकने के लिये छतें और छज्जे बने हुए हैं। दालान-दालान में, कोठरी-कोठरी में, भिन्न-भिन्न प्रकार से मनुष्य को सुख पहुँचाने का प्रबन्ध किया गया है। घर के भीतर से पानी बाहर निकालने के लिये नालियाँ बनी हुई हैं। ऐसे विचार से घर बनाया गया है कि रहने वालों को सब ऋतु में  सुख देवे। इस घर को देख कर हम कहते हैं कि इसको रचने वाला कोई चतुर पुरुष था,  जिसने रहने वालों के सुख के लिये जो-जो प्रबन्ध आवश्यक था, उसको विचार कर घर रचा। हमने रचने वालों को देखा भी नहीं,  तो भी हमको निश्चय होता है कि घर का रचने वाला कोई था,  या है,  और वह ज्ञानवान्, विचारवान् पुरुष है।


                    अब हम अपने शरीर की ओर देखते हैं। हमारे शरीर में भोजन करने के लिये मुँह बना है। भोजन चबाने के लिये दाँत हैं। भोजन को पेट मे पहुँचाने के लिये गले में नाली बनी है। उसी के पास पवन के मार्ग के लिये एक दूसरी नाली बनी हुई है। भोजन को रखने के लिये उदर में स्थान बना है। भोजन पचकर रुधिर का रूप धारण करता है,  वह हृदय में जाकर इकट्ठा होता है और वहाँ से सिर से पैर तक सब नसों में पहुँचकर मनुष्य के सम्पूर्ण अंगों को शक्ति, सुख और शोभा पहुँचाता है। भोजन का जो अंश शरीर के लिये आवश्यक नहीं है,  उसके मल होकर बाहर जाने के लिये मार्ग बना है। दूध, पानी या अन्य रस का जो अंश शरीर को पोसने के लिये आवश्यक नहीं है, उसके निकलने के लिये दूसरी नाली बनी हुई है। देखने के लिये हमारी दो आँखें,  सुनने के लिये दो कान, सुँघने को नासिका के दो रन्ध्र, और चलने-फिरने के लिये हाथ-पैर बने हैं। सन्तान की उत्पत्ति के लिये जनन-इन्द्रियाँ हैं। हम पूछते हैं- क्या यह परम आश्चर्यमय रचना केवल जड़ पदार्थो के संयोग से हुई है या इसके जन्म देने और वृद्धि में,  हमारे घर के रचयिता के समान,  किन्तु उससे अनन्तगुण अधिक किसी ज्ञानवान्, विवेकावन, शक्तिमान् आत्मा का प्रभाव है?

 

                        

मन और वाणी की अद्भुत शक्तियाँ



      इसी विचार में डूबते और उतराते हुए हम अपने मन की ओर ध्यान देते हैं तो हम देखते हैं कि हमारा मन भी एक आश्चर्यमय वास्तु है। इसकी- हमारे मन को विचारशक्ति,  कल्पनाशक्ति, गणनाशक्ति,  रचनाशक्ति,  स्मृति,  धी,  मेधा सब हमको चकित करती हैं। इन शक्तियों से मनुष्य ने क्या-क्या ग्रन्थ लिखे हैं कैसे-कैसे काव्य रचे हैं, क्या-क्या विज्ञान निकाले हैं, क्या-क्या आविष्कार किए हैं और कर रहे हैं। यह थोड़ा आश्चर्य नहीं उत्पन्न करता। हमारी बोलने और गाने की शक्ति भी हमको आश्चर्य में डुबा  देती है। हम देखते हैं कि यह प्रयोजनवती रचना सृष्टि में सर्वत्र दिखाई पड़ती है और यह रचना ऐसी है कि जिसके अन्त तथा है आदि का पता नहीं चलता। इस रचना में एक-एक जाति के शरीरियों के अवयव ऐसे नियम से बैठाए गए हैं कि सारी सृष्टि शोभा से पूर्ण है। हम देखते हैं कि सृष्टि के आदि से सारे जगत् में एक कोई अद्भुतशक्ति काम कर रही है जो सदा से चली आई है,  सर्वत्र व्याप्त है और अविनाशी है।


 हमारी बुद्धि विवश होकर इस बात को स्वीकार करती है कि ऐसी ज्ञानात्मिका रचना का कोई आदि,  सनातन,  अज, अविनाशी, सत्-चित्-आनन्दस्वरूप, जगत्-व्यापक अनन्त-शक्ति-सम्पन्न रचयिता है। उसी एक अनिर्वचनीय शक्ति को हम ईश्वर, परमेश्वर, परब्रह्म,  नारायण,  भगवान्, वासुदेव, शिव, राम,  कृष्ण,  विष्णु,  जिहोवा,  गौड, खुदा,  अल्लाह आदि सहस्त्रों नामों से पुकारते हैं।


                                              

वह परमात्मा एक ही है


वेद कहते हैं-


                                                  ‘एकमेवाद्वितीयम्                              (छान्दोग्य-६| २|१)

                                                        ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति'                      (ऋग्वेद २।३।२२।४६)

        ‘एकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति'


      एक ही परमात्मा है,  कोई उसका दूसरा नाम नहीं। एक ही को विप्र लोग बहुत-से नामों से वर्णन करते हैं। है एक ही, किन्तु उसकी बहुत प्रकार से कल्पना करते हैं।


विष्णुसहस्त्रनाम और शिवसहस्त्रनाम इस बात के प्रसिद्ध उदाहरण है। युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा कि 'बताइये,  लोक में वह कौन एक देवता है?  कौन सब प्राणियों का सबसे बड़ा एक शरण है?  वह कौन है जिसकी स्तुति करने,  तथा जिसको पूजने से मनुष्य का कल्याण होता है?’ इसके उत्तर में पितामह ने कहा-

    

जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम्।

स्तुवन्नामसहस्त्रेण पुरुष: सततोत्थित:।।

अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम्।

लोकाध्यक्षं स्तुवन्नीत्यं सर्वदु:खातिगो भवेता।।

परमं यो महत्तेज: परमं यो महत्तप:।

 

परमं यो महद्ब्रह्म परम य: परायणम्।



पवित्राणां पवित्रं यो मन्गलानां च मन्गलम्।

दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्यय: पिता।।

(महा.अनु.१४९।४-७)


       अर्थात् ‘मनुष्य प्रतिदिन उठकर सारे जगत् के स्वामी,  देवताओं के देवता, अनन्त पुरुषोत्तम की सहस्त्र नामों से स्तुति करे। सारे लोक के महेश्वर,  लोक के अध्यक्ष (अर्थात् शासन करनेवाले), सर्वलोक में व्यापक विष्णु की,  जो न कभी जन्मे हैं,  न जिनका कभी मरण होगा,  नित्य स्तुति करता हुआ मनुष्य सब दु:खों से मुक्त हो जाता है। जो सबसे बड़े तेज हैं,  जो सबसे बड़े तप हैं,  सबसे बड़े ब्रह्म हैं और जो सब प्राणियों के सबसे बड़े शरण है। जो पवित्रों में सबसे पवित्र,  सब मन्गल बातों के मंगल, देवताओं के देवता और सब प्राणीमात्र के अविनाशी पिता हैं?


इससे स्पष्ट है कि बिष्णुसहस्त्रनाम और शिवसहस्त्रनाम तथा और स्तोत्र सब एक ही परमात्मा की स्तुति करते हैं। और मनुष्यमात्र को उचित है कि नित्य सायंप्रात: उस परमात्मा का ध्यान करे और उसकी स्तुति करे।


             

परमात्मा की तीन संज्ञाएँ


ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये उसी एक परमपिता की तीन संज्ञाएँ,  अर्थात् नाम हैं।

विष्णुपुराण में लिखा है-


                 सृष्टिस्थित्यन्तकरणी ब्रह्मविष्णुशिवभिधाम्।

                                            स संज्ञां याति भगवानेक एव जनार्दन:।।                    (१|२|६६)


वे एक ही जनार्दन भगवान् सृष्टि,  पालन और संहार करने वाले ब्रह्मा,  विष्णु  तथा  शिव नाम की तीन संज्ञा प्राप्त करते हैं। यही बात बृहन्नारदीय पुराण में भी लिखी है-


नारायणोऽक्षरोऽनन्त: सर्वव्यापी निरंजन:।

तेनेदमखिलं व्याप्तं जगत्स्थावरजंगमम्।।

तमादिदेवमजरं केचिदाहु: शिवाभिधम्।

                       केचिद्विष्णु सदा सत्यं ब्रह्माणं केचिदुच्यते।।            (१।२।२,५)


           भगवान् नारायण अविनाशी,  अनन्त,  सर्वत्र व्यापक,  तथा माया से अलिप्त हैं, यह स्थावर-जंगमरूप सारा संसार उनसे व्याप्त है। उन जरा रहित आदि देवता को कोई शिव,  कोई सदा सत्यस्वरूप विष्णु और कोई ब्रह्मा कहते हैं।


इसी प्रकार शिवपुराण में स्वयं महेश्वर का वचन है-


   त्रिधा भिन्नो ह्यहं विष्णो ब्रह्माविष्णुहराख्यया।

सर्गरक्षालयगुणै: निष्कलोऽयं सदा हरे।।

अहं भवानयं चैव रुद्रोऽयं यो भविष्यति।

                     एकं रूपं न भेदोऽस्ति भेदे च बन्धनं भवेत्।।      (२।१।९।२८,३८)


      हे विष्णो! सृष्टि, पालन तथा संहार इन तीन गुणों के कारण मैं ही ब्रह्मा,  विष्णु और शिव नामक तीन भेद से युक्त हूँ। हे हरे! वास्तव में मेरा स्वरूप सदा भेदहीन है। मैं, आप, यह (ब्रह्मा) तथा रुद्र और आगे जो कोई भी होंगे,  इन सबका एक ही रूप है,  उनमें कोई भेद नहीं है,  भेद मानने से बन्धन होता है।


भागवत में भी स्वयं भगवान् का वचन हैं-


अहं ब्रह्मा च सर्वश्च जगत: कारणं परम्।

आत्मेश्वर उषद्रष्टा स्वयंदृगविशेषण:।।

आत्ममायां समाविश्य सोऽहं गुणमयीं द्विज।

               सृजन् रक्षन् हरन् विश्वंदध्रे संज्ञां क्रियोचिताम्।।  (४|७|५०-५१)


हम ब्रह्मा और शिव संसार के परम कारण हैं,  हम सबके आत्मा,  ईश्वर,  साक्षी, स्वयंप्रकाश और निर्विशेष हैं। हे ब्राह्मण! वह मैं (विष्णु) अपनी त्रिगुणमयी माया में प्रवेश करके संसार की सृष्टि,  रक्षा तथा प्रलय करता हुआ भिन्न-भिन्न कार्यो के अनुसार नाम धारण करता हूँ।


     इसलिये ब्रह्या,  विष्णु,  महेश इनको भिन्न मानना भूल है। ये एक ही परमात्मा की तीन संज्ञाएँ हैं। इसीलिये शिवपुराण में भी लिखा है-


शिवो महेश्वरश्चैव रुद्रो विष्णु: पितामह:।

ससांरवैद्य: सर्वज्ञ: परमात्मेति मुख्यत:।।

           नामाष्टकमिदं नित्यं शिवस्य प्रतिपादकम्। (६।९।१-२)


शिव,  महेश्वर,  रूद्र,  विष्णु, पितामह, संसार-वैध,  सर्वज्ञ और परमात्मा- ये आठ नाम मुख्य रूप से शिव के बोधक हैं। इसलिये यह स्पष्ट है ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’  ‘ॐ नमो नारायणाय’ ‘ॐ  नम: शिवाय'  ‘श्रीरामाय नम:’  ‘श्रीकृष्णाय नम:’ -ये सब मंत्र एक ही परमात्मा को वन्दना हैं।


             

उस परमात्मा का क्या रूप है?



वेद कहते हैं-

                      

                      ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।’           (तैत्ति.२|१|९)


                 वह ब्रह्म सत्य,  ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त है।


भागवत में भी लिखा है-


विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक्सम्यगवस्थितम्।

सत्यं पूर्षामनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम्।।

              ऋषे विदन्ति मुनय: प्रशान्तात्मेन्द्रियाशया:।  (२।६।३९,४१)


 

ज्ञानं मात्रं परं ब्रह्म परेमात्येश्वर: पुमान।

            दृश्यादिभि: पृथग्भावैर्भगवानेक ईयते।। (३|३२|३२६१)


       ब्रह्म सत्य है,  सदा रहा है,  है भी,  सदा रहेगा भी। वह ज्ञानमय, चैतन्य और आनन्दस्वरूप है। उसका स्वयं शरीर नहीं है,  किन्तु विनाशवान् शरीरों में पैठकर वह संसार की लीला कर रहा है। वह केवल निर्मल ज्ञानस्वरूप है,  पूर्ण है। उसका आदि नहीं अन्त नहीं। वह नित्य और अद्वितीय है। एक होने पर भी अनेक रूपों में दिखाई देता है।


      दूसरे स्थान में कहा है- शरीरों के भीतर बैठा हुआ आत्मा पुराणपुरुष साक्षात् स्वयंप्रकाश, अज, परमेश्वर,  नारायण,  भगवान्,  वासुदेव अपनी माया से अपने रचित शरीरों में रम रहा है। ब्रह्म का पूर्ण और अत्यन्त हृदयग्राही निरूपण-वेद, उषनिषद् और पुराणों का सारांश-भागवत के एकादश स्कन्ध के तीसरे अध्याय में दिया हुआ है।


      राजा जनक ने ऋषियों से कहा- ‘हे ऋषिगण! आपलोग ब्रह्मज्ञानियों मे श्रेष्ट हैं,  अतएव आप मुझे यह बताइये कि जिनको नारायण कहते हैं उन परब्रह्म परमात्मा का ठीक स्वरूप क्या है?


पिप्पलायन ऋषि ने कहा- ‘हे नृप! जो इस विश्व के सृजन, पालन और संहार का कारण है, परन्तु स्वयं जिसका कोई कारण नहीं है,  जो स्वप्न, जागरण और गहरी नींद की दशाओं में भीतर और बाहर भी वर्तमान रहता है,  देह,  इन्दिय प्राण और ह्रदय आदि जिससे संजीवित होकर,  अर्थात् प्राण पाकर अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होते हैं, उसी परमतत्त्व को नारायण जानो। जैसे चिनगारियाँ अग्नि में प्रवेश नहीं पा सकतीं,  वैसे ही मन, वाणी, आँखें,  बुद्धि,  प्राण और इन्द्रियाँ उस परमतत्त्व का ज्ञान ग्रहण करने में असमर्थ हैं और वहाँ तक पहुँच न सकने के कारण उसका निरुपण नहीं कर सकतीं|


वह परमात्मा कभी जन्मा नहीं,  न वह कभी मरेगा,  न वह कभी बढ़ता है और न घटता है; जन्म-मरण आदि से रहित वह सब बदलती हुई अवस्थाओं  का साक्षी है एवं सर्वत्र व्याप्त है,  सब काल में  रहा है और रहेगा,  अविनाशी है और ज्ञानमात्र है। जैसे प्राण एक है तो भी इन्दियों  के भिन्न होने से आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं,  नाक सूंघती है,  इत्यादि भावों के कारण एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं, ऐसे ही आत्मा एक होने पर भी भिन्न-भिन्न देहों में अवस्थित होने के कारण भिन्न प्रतीत होता है।


  जितने जीव जरायु से उत्पन्न होते हैं- मनुष्य,  गौ,  घोड़े,  हाथी,  सिंह,  कुत्ते, भेड़,  बकरी आदि;  जो पक्षीवर्ग अण्डों से उत्पन्न होते हैं,  जो कीटवर्ग पसीने,  मैल आदि से उत्पन्न होते हैं, और जो वृक्षवर्ग (पेड़-विटप) पृथ्वी को फ़ोड़कर उगते हैं,  इन सबों में- सम्पूर्ण सृष्टि में-जहाँ-जहाँ जीव के साथ प्राण दौड़ता हुआ दिखाई देता है,  वहाँ-वहाँ ब्रह्म है। जब सब इन्द्रियाँ सो जाती हैं, जब ‘मैं हूँ’ यह अहम्भाव भी लीन हो जाता है,  उस समय जो निर्विकार साक्षी रूप हमारे भीतर बैठा हुआ ध्यान में आता है और जिसका हमारे जागने की अवस्था में 'हम अच्छे सोए'  'यह सपना देखा'  इस प्रकार की स्मृति होती है,  वही ब्रह्म है इत्यादि।


                            

ब्रह्म कहाँ है?


वेद कहते हैं-


                   एक देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।

            कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।।   (श्वेता.६।११)


       एक ही पत्मात्मा सब प्राणियों के भीतर छिपा हुआ है,  सबमें व्याप रहा है, सब जीवों के भीतर का अन्तरात्मा है, जो कुछ कार्य सृष्टि में हो रहा है,  उसका नियन्ता है। सब प्राणियों के भीतर बस रहा है,  सब संसार के कार्यो का साक्षी रूप में देखने वाला,  चैतन्य,  केवल,  एक,  जिसका कोई जोड़ नहीं और जो गुणों के दोष से रहित है। वेद,  स्मृति,  पुराण कहते हैं कि यह देवों का देव अग्नि में,  जल में,  वायु में,  सारे भुवन में,  सब औषधियों में,  सब वनस्पतियों में,  सब जीवधारियों में व्याप रहा है। कहते हैं-


एष देवो विश्वकर्मा महात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्ट:।

हृदा ह्रदिस्थं मनसा य एवमेवं विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

     (श्वेता.४।१७)


कि वह परमदेव विश्व का रचनेवाला सदा प्राणियों के हृदय में स्थित है। अपने-अपने हृद्रय में  स्थित इस महात्मा को जो शुद्ध हृदय से,  विमल मन से अपने में विराजमान देखते हैं,  वे अमर होते हैं।


           न तस्य कश्चित्पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिन्गम्।

                            स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिप:।। (श्वेता.६।९)


 

      लोक में न उसका कोई स्वामी है,  न उसके ऊपर आज्ञा चलाने वाला है,  न उसका कोई चिह्न है। वही सबका कारण है,  उसका कोई कारणा नहीं,  उसका कोई उत्पन्न करने वाला नहीं,  न उसका कोई रक्षक है।


तमीश्वराणां परमं महेश्वरं तं देवतानां परमं च दैवतम्।

पतिं पतीनां परमं परस्ताद् विदाम देवं भुवनेशमीड्यम् ||

             (श्वेता.६।७) द


       उस सब सामर्थ्य और अधिकार रखने वालों के सबसे बड़े परम ईश्वर,  देवताओं के सबसे बड़े देवता, स्वामियों के सबसे बड़े स्वामी,  सारे त्रिभुवन के स्वामी परम पूजनीय देव को हम लोगों ने जाना है।


गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं-


सोइ सच्चिदानन्द घन रामा। अज विज्ञान रूप बल धामा।।

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनन्ता। अखिल अमोघ सक्ति भगवन्ता।।

अगुण अदभ्र गिरा गोतीता। सबदरसी अनवद्य अजीता।।

निर्मल निराकार निरमोहा। नित्य निरंजन सुख स्न्दोहा।।

प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी। ब्रह्म निरीह बिरज अबिनासी।।

इहाँ मोह कर कारण नाहीं। रवि-सन्मुख तम कबहुँ कि जाहीं।।


सूरदासजी ने कहा है-


 

 

    जगतपिता जग के आधार।

तुम सबके गुरु सबके स्वामी,  तुम सबहिन के अन्तर्यामी।।

हम सेवक तुम जगत अधार,  नमो नमो तोहिं बारंबार।

सर्व शक्ति तुम सर्व अधार,  तोहिं भजै सो उतरै पार।।

घट-घट माँहिं तिहारो बास,  सर्व ठौर जिमि दीप-प्रकास।

एहि बिधि तुमकौं जानैं जोई,  भक्त अरु ज्ञानी कहिए सोई।।

जगतपिता तुम ही हौ ईश,  याते हम बिनवत जगदीश।

तुम सम द्वितीय और नहिं आहि,  पटतर देहि नाथ हम काहि।।

नाथ कृपा अब हम पर कीजै,  भक्ति आपनी हमकौं दीजै।

प्रेम भक्ति बिन कृपा न होइ,  सर्व शास्त्र में देखै जोइ।।

तपसी तुमको तपकरि पावैं,  सुनि भागवत गृही गुण गावैं।

कर्मयोग करि सेवत कोई,  ज्यों सेवै त्यों ही गति होई।।

तीन लोक हरि करि विस्तार,  ज्योति आपनी करि उँजियार।

जैसा कोऊ गेह सँवार,  दीपक वारि करै उँजियार।।

त्यों हरि-ज्योति आप प्रकटाई,  घट-घट में सोई दरसाई।

नाथ तिहारी ज्योति-अभास,  करत सकल जगको परकास।।

थावर-जंगम जहँलौं भये,  ज्योति तुम्हारी चेतन किये।

तुम सब ठौर सबनतें न्यारे,  को लखि सके चरित्र तिहारे।।

     ये बान्धवाऽबान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।

     ते सर्वे तृप्तिमायान्तु यश्चास्मत्तोयमिच्छति।।

 



                       (विष्णु.३।११।३३-३६)




     देवता,  दैत्य,  यक्ष,  नाग, गन्धर्व,  राक्षस,  पिशाच,  गुह्यक,  सिद्ध,  कूष्माण्ड, वृक्ष-वर्ग,  पक्षीगण, जल में रहने वाले जीव,  बिल में रहने वाले जीव,  वायु के आधार पर रहने वाले जन्तु,  ये सब मेरे दिए हुए जलसे तृप्त हों। समस्त नरकों की यातना में जो प्राणी दु:ख भोग रहे हैं,  उनके दु:ख शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ। जो मेरे बन्धु-बान्धव रहे हों,  और जो बान्धव न रहे हों,  और जो किसी और जन्म में मेरे बान्धव रहे हों,  उनको तृप्ति के लिये और उनकी भी तृप्ति के लिये,  जो मुझसे जल पाने की इच्छा रखते हों,  मैं यह जल अर्पण करता हूँ।


वैश्वदेव में जो अन्न कुत्ते और कौवों के लिये निकाला जाता हैं,  उसको छोड़कर शेष बलि की मात्रा बहुत कम होती है,  इसलिये वह  'सर्वभूतेभ्य: सब प्राणियों को पहुँच नहीं सकता। तथापि यह जानते हुए भी-बलिवैश्व्देव का करना प्रत्येक गृहस्थ का कर्त्तव्य इसलिये माना गया है कि वह उस पवित्र,  उदार भाव को प्रकट करता है कि मनुष्य मानता है कि उसका सब जीवधारियों से भाईपन का सम्बन्ध है और इस भाव को आँसुओं के समान प्रेम के जल से नित्य सींचकर जगत् के आकाश में जीवधारीमात्र में परस्पर भाईपन का भाव स्थापित करने का उत्कृष्ट और प्रशंसनीय मार्ग है।


इस धर्म की उदारता की प्रशंसा कौन कर सकता है?  इसकी उदारता इस धर्म के बड़े-से-बड़े परम पूजित आचार्य महर्षि वेदव्यास की,  जो 'सर्वभूतहिते रत:’  सब प्राणियों के हित में निरत रहते थे,  इस प्रार्थना से भी प्रगट है कि-


सर्वे च सुखिन: सन्तु सर्वे सन्तु निरामया:।

सर्वे  भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिदु:खभाग् भवेत्।।


       सब प्राणी सुखी हों,  सब नीरोग रहें,  सब सुख-सौभाग्य देखें,  कोई दु:खी न हो। उसी धर्म के प्राणाधार भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने सारे जगत् के प्राणियों को यह निमंत्रण दे दिया है कि- ‘सब और धर्मो को छोड़कर तुम मुझ एक को शरण में आओ। मैं तुम को सब पापों से छुड़ा लूँगा। सोच मत करो,  उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा की है-


समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:।।

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छातिं निगच्छति।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति।।

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।

(गीता १|२९-३२)


    कि ‘मैं सब प्राणियों के लिये समान हूँ। न मैं किसी से द्वेष करता हूँ, न कोई मेरा प्यार है। जो मुझको भक्ति से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ;  पापी-से-पापी भी क्यों न हो, यदि वह और सबको छोड़ कर मेरा ही भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिए। थोड़े ही समय में वह धर्मात्मा हो जायगा और उसको शाश्वती शान्ति मिल जायगी। हे अर्जुन! मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, जो कोई मेरा भक्त है, उसका बुरा नहीं होगा। हे कुन्ती के पुत्र! मेरी शरण में आकर पापयोनि से उत्पन्न प्राणी भी तथा स्त्री, वैश्य, और शुद्र भी निश्चय सबसे ऊँची गति को पावेंगे।


धन्य है वे लोग जिनको इस पवित्र और लोक-प्रेम से पूर्ण धर्म का उपदेश प्राप्त हुआ है। मेरी यह प्रार्थना है कि इस ब्रह्यज्योति की सहायता है सब धर्मशील जन अपने ज्ञान को विशुद्ध और अविचल कर और अपने उत्साह को नूतन और प्रबल कर सारे संसार में इस धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करें और समस्त जगत् को यह विश्वास करा दें कि सबका ईश्वर एक ही है,  और वह अंश रुप से न केवल सब मनुष्यों में, किन्तु समस्त जरायुज,  अण्डज,  स्वेदज,  उद्भिज अर्थात् मनुष्य,  पशु, पक्षी,  कीट,  पतंग,  वृक्ष और विटप सबमें समान रुप से अवस्थित है और उसकी सबसे उत्तम पूजा यही है कि हम प्राणीमात्र में ईश्वर का भाव देखें,  सबसे मित्रता का भाव रक्खें और सबका हित चाहें। सार्वजनीन प्रेम से इस सत्य ज्ञान के प्रचार से ईश्वरीय शक्ति का संगठन और विस्तार करें। जगत् से  अज्ञान को दूर करें,  अन्याय और अत्याचार को रोकें और सत्य,  न्याय और दया का प्रचार कर मनुष्यों में परस्पर प्रीति,  सुख और शान्ति बढ़ावें।। इति शम्।।

(काशी, वैशाख शु.९, सं.१९८९)


 

Mahamana Madan Mohan Malaviya