Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya

स्वतंत्रता संग्राम में महामना का

अभूतपूर्व योगदान

 

प्रो. चन्द्रकला पाण्डिया

कुलपति

महाराजा गंगा सिंह विश्वविद्यालय,

बीकानेर

 

पण्डित मदन मोहन मालवीय भारतवर्ष के उन सपूतों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भूमिका निभायी वरन् प्रत्येक भारतवासी के आत्म-सम्मान से जीने के सपने को साकार किया। आज तक महामना के योगदान को सही ढंग से आँका नहीं गया है। उन्हें अधिकांश लोग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक एवं एक महान शिक्षाविद् के रूप में ही जानते हैं परन्तु बहुत कम लोग पत्रकारिता, समाज सुधार, अछूतोद्धार एवं स्वतंत्रता संग्राम में उनके महत्ती योगदान को समझ पाते हैं। यदि महामना के सम्पूर्ण जीवन एवं क्रियाकलापों का अध्ययन किया जाए, तो यह बात कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि महामना का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान किसी भी बड़े से बड़े नेता से कम नहीं था। यहीं कारण है कि स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था ‘‘मैं मालवीय जी से बड़ा देशभक्त किसी को नहीं मानता। मैं सदैव उनकी पूजा करता हूँ।’’ उस समय के महान साहित्यकार और कवि पण्डित रामनरेश त्रिपाठी ने तो यहाँ तक कह दिया कि ‘‘वे गत साठ वर्षों के भारतवर्ष के जीवित इतिहास हैं, सरकार और जनता की नस-नस से सुपरिचित कोई ऐसा नेता अंग्रेजी शासन में दिखाई नहीं पड़ता, जिसकी तुलना मालवीय जी से की जा सके।’’



यह सर्वविदित है कि भारतवर्ष में 1857 के विप्लव के बाद अंग्रेजी साम्राज्य हिल गया था। इस आक्रोश को दूर करने के लिए महारानी विक्टोरिया ने 1 नवम्बर सन् 1858 को गवर्नर जनरल लाॅर्ड केनिन के द्वारा शाही घोषणा की और इस बात का आश्वासन दिया कि ब्रिटिश सरकार भारत की प्रजा के हित में निरन्तर कार्य करेगी परन्तु व्यवहार में इसकी पूरी तरह उपेक्षा की गई। पील कमीशन की संस्तुतियों के आधार पर भारतीय सैनिकों को उच्च सैनिक शिक्षा से वंचित कर दिया गया। सरकार की शोषक नीतियों के कारण भारत की आर्थिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी थी। 1858 से 1885 के बीच डेढ़ करोड़ से अधिक व्यक्तियों की अकाल में मृत्यु हो गयी। अंग्रेजों ने सन् 1879 में ‘आम्र्स एक्ट’ लागू कर भारतीयों को बिल्कुल निहत्था कर दिया। सन् 1878 में ‘वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट’ लागू कर दिया गया। इस एक्ट द्वारा देशी भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता नष्ट कर दी गयी। इस प्रकार भारत की शासन व्यवस्था महारानी विक्टोरिया की शाही घोषणा के विपरीत बनी रही।



इन कठिन परिस्थितियों में 1857 की क्रांति के ठीक साढ़े चार वर्ष बाद 25 दिसम्बर 1861 को प्रयाग में महान स्वतंत्रता संग्रामी पण्डित मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ। वे अपने अध्ययनकाल में महान संस्कृतविद् पण्डित आदित्य राम भट्टाचार्य के सम्पर्क में आएं। उनके सानिध्य में वे 16 वर्ष की अवस्था से ही सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने लगे। मालवीय जी ने 1891 में वकालत की परीक्षा पास करने के बाद अपने गुरू के आदेश पर उन्होंने ‘प्रयास हिन्दू समाज’ नामक संस्था के संचालन में सक्रिय सहभागिता की। इस अल्पायु में ही मालवीय जी को भारत माँ की पराधीनता की पीड़ा का अनुभव हो चुका था और वे अपनी माँ को बंधनों से मुक्त करने के लिए तड़फड़ाने लगे थे। स्वदेशी, स्वराज्य, स्वधर्म एवं स्वभाषा का अर्थ एवं महत्त्व उन्हें समझ में आ चुका था।



ऐसे ही समय में उनके जीवन में वह नया मोड़ आया जब सन् 1886 में दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में पण्डित आदित्यराम भट्टाचार्य उन्हें अपने साथ इण्डियन नेशनल कांग्रेस के द्वितीय सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए कलकता ले गए। उस सम्मेलन में पण्डित मदन मोहन मालवीय ने अपने जो विचार अभिव्यक्त किए, उससे सबको यह समझ में आ गया कि यह युवक भविष्य में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाने वालों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा। इस सम्मेलन में प्रतिनिधि सभा की स्थापना के विषय पर अपने सशक्त विचार प्रकट करते हुए उन्होंने कहा, अंग्रेजो की राजनीतिक बाइबिल का पहल निर्देष है प्रतिनिधित्व  नहीं तो टैक्स नही। अत हमें प्रतिनिधित्व का अधिकार मिलना ही चाहिए। पुनः सन् 1887 में उन्होंने अपने प्रांत से 40 से अधिक प्रतिनिधियों के साथ कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में भाग लिया और पुनः अपने भाषण में प्रतिनिधि सभा की स्थापना पर बल दिया। उन्हांेने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘कांग्रेस का अस्तित्व ही इस बात का परिचायक है कि भारतवासी प्रतिनिधि सभा के सर्वथा योग्य हैं।’’ इस अधिवेशन में मालवीय जी को कांग्रेस द्वारा अपने प्रांत के ‘पाॅलिटिकल एसोसिएशन’ तथा ‘स्थायी कार्य समिति’ का मंत्री नियुक्त किया गया। सन् 1888 के कांग्रेस अधिवेशन में मालवीय जी ने पुनः प्रतिनिधि संस्थाओं के विस्तार की आवश्यकता पर बल दिया। वकालत सम्बन्धित अपनी  व्यस्तताओं के बावजूद मालवीयजी ने सन 1892 में प्रयाग में आयोजित कांग्रेस अधिवेषन में सक्रिय सहभागिता की।


सन्र 1902 ईस्वीं में मालवीय जी उत्तर प्रदेश ‘इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ के सदस्य एवं बाद में ‘सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली’ के सदस्य चुने गए। वे इस काउंसिल और असेंबली में ब्रिटिश सरकार की निर्भीक रूप् से आलोचना करते रहे। सन् 1907 में उनके प्रयास से ‘अप इण्डस्ट्रीयल एसोसिएशन’ की स्थापना हुई। इसी वर्ष उन्होंने अपने राजनीतिक एवं सांस्कृतिक विचारों के प्रसार के लिए हिन्दी साप्ताहिक ‘अभ्युदय’ की शुरूआत की। इसी क्रम में सन् 1909 में मालवीय जी एवं उनके सहयोगियों के संयुक्त प्रयास से अंग्रेजी दैनिक ‘लीडर’ का भी प्रकाशन शुरू हुआ। सन् 1908 में लखनऊ में आयोजित ‘प्रांतीय राजनीतिक कांफ्रेंस’ के द्वितीय अधिवेशन की अध्यक्षता मालवीय जी ने की। उनका अध्यक्षीय सम्बोधन स्वराज की अलख जगाने वाला वह उद्बोधन था, जिसने हजारों युवकों को मातृभूमि के लिए बलिदान देने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने निर्भीक होकर कहा कि जब तक भारतीयों को शासन के प्रबन्धन में समुचित भार नहीं दिया जाता और स्वशासन समुचित अवसर नहीं दिया जाता, तब तक सुशासन की स्थापना नहीं हो सकती। उन्होंने ब्रिटिश शासन पर कठोर प्रहार करते हुए कहा कि देश के प्रबन्ध में जनता के प्रतिनिधियों की कोई सुनवाई नहीं है। विधान कौंसिलों के अधिकार बहुत ही सीमित हैं एवं जनता के कल्याण में राजस्व का एक चैथाई से भी कम खर्च किया जा रहा है। इस व्यवस्था में जनता की नैतिक और भौतिक उन्नति सम्भव नहीं है।


 उन्होंने आर्थिक विकेन्द्रीकरण की आवश्कता पर बल देते हुए यह मांग रखी कि प्रांतीय सरकारों को राजस्व जमा करने व व्यय करने की स्वतंत्रता हो, प्रांतीय सरकारों के कार्यों पर जनप्रतिनिधियों का नियंत्रण हो, उनके अधिकारों का विस्तार हो तथा प्रांतों की शासन परिषदों में भारतीय सदस्यों की नियुक्ति हो।


पण्डित मदन मोहन मालवीय न केवल भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए कटिबद्ध थे वरन् वे राजनीतिक स्वतंत्रता को उचित शर्तों पर प्राप्त करने के लिए एवं उसे सही दिशा में ले जाने के लिए भी उतने ही कटिबद्ध थे। यही कारण है कि सन् 1908 में जब लाॅर्ड मार्ले ने राजनीतिक सुधार के सम्बन्ध में अपनी मार्ले-मिण्टो सुधार योजना प्रस्तुत की, तो मालवीय जी ने इस योजना के सकारात्मक पक्षों की तो सराहना की किन्तु इस योजना में उल्लेखित साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के प्रावधान का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने ‘अभ्युदय’ में लिखा कि धर्म के आधार पर ‘‘प्रतिनिधियों का चुनाव अनावश्यक... है’’। मालवीय जी ने पुनः दिसम्बर 1909 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में इस ‘मार्ले-मिण्टो सुधार योजना’ के साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के प्रस्ताव की कटु आलोचना करते हुए कहा:


सम्प्रदाय और सम्पत्ति पर आधारित निर्वाचन पद्धति का विरोध कांग्रेस इसलिए नहीं करती क्योंकि वह चाहती है कि मुसलमान और भूमिपति प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं कर सकें, बल्कि उसका विचार है कि चूंकि विधान कौंसिलों को ऐसे प्रश्नों पर विचार करना होगा, जो सभी वर्गों और मतों के लिए समान हित के हैं; इसलिए उनके प्रतिनिधियों को सभी वर्गों एवं जातियों की सम्मिलित राय से निर्वाचित होना चाहिए। उनके प्रति देशवासियों के विश्वास का आधार उनमें लगन के साथ जनता के हितों की रक्षा और उन्नति करने की योग्यता, बुद्धिमता और आचरण होगा, न कि उनका किसी विशेष धर्म से सम्बन्ध या कई एकड़ भूमि का उत्तराधिकारी होना।
मालवीय जी के ओजस्वी भाषण और प्रखर व्यक्तित्व से प्रभावित होकर इंग्लैण्ड के प्रमुख दैनिक ‘द मेनचेस्टर गार्जियन’ ने लिखा:

 

"The President of the Indian National Congress, which meets at Lahore, is not so prominent a man as either Dr. Rash Behari Ghose, the President of last year, or Sir Pherozeshah Mehta, who has just withdrawn. Nevertheless, Mr. Madan Mohan Malaviya is a politician of high standing and of notable ability. He is a self-made man, having made his way at the Bar after an apprenticeship as school teacher and journalist. For some years past he sat in the Council of the United Provinces as an elected member and has been active in educational and social reform. Long before Mrs. Besant's days, he worked for the establishment of a National University at Banaras. In politics, he belongs decidedly to the moderate school and despite his enthusiasm in the Swadeshi cause, has always kept at a long distance form the extreme nationalists. With the exception of Mr. Surendranath Banerjee himself, there is no Congress orator more generally admired than Mr. Malaviaya. His age is 47."

 

 


वास्तव में प्रांत की प्रांतीय परिषद् के निर्वाचित सदस्य के रूप में सन् 1903 से सन् 1912 तक लगातार मालवीय जी ने जनता की आवश्यकताओं, आकांक्षाओं व मांगों को सरकार के सामने रखा। समय-समय पर वे सरकार के विरूद्ध बोलते रहे ‘बुन्देल खण्ड भूमि हस्तांतरण विधेयक’ पर बोलते हुए मालवीय जी ने सख्त स्वरों में कहा कि ‘लगान में कमी करने की आवश्यकता है, न कि हस्तांतरण पर प्रतिबन्ध लगाने की’। उन्होंने किसानों पर से लगान के बोझ को कम करने की पुरजोर वकालत प्रांतीय कौंसिल में की।  उन्होंने प्रांतीय कौंसिल में सिंचाई की सुविधाओं के विस्तार, कृषि शिक्षा के समुचित प्रबन्ध, औद्योगिक शिक्षा के विस्तार व संयुक्त प्रांत में कम से कम एक उच्च स्तरीय औद्योगिक शिक्षा महाविद्यालय की स्थापना, जनकल्याण नीति, स्वास्थ्य शिक्षा की समुचित व्यवस्था से सम्बन्धित प्रस्ताव रखे। प्रांतीय कौंसिल के सदस्य के रूप में उनकी इस सक्रिय सहभागिता एवं ओजपूर्ण उद्बोधनों से एक ओर भारतीयों की आवाज को अभिव्यक्ति मिली, तो दूसरी ओर सरकार की दमनकारी नीतियों के विरूद्ध जनता में और अधिक आक्रोश जागा। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में मालवीय जी के ये उद्बोधन मील के पत्थर साबित हुए। लाहौर अधिवेशन में मालवीय जी के भाषण का भारतीय जनमानस और ब्रिटिश सरकार पर क्रांतिकारी प्रभाव पड़ा। जहाँ लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भगवद्गीता, महाभारत आदि के श्लोकों को उद्धरित कर ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध कठोर मार्ग अपनाने का आह्वान किया और कांग्रेस में ‘गर्म दल’ के नेता बने, वहीं पण्डित मदन मोहन मालवीय ने उसी गीता, भागवतए महाभारत और मनुस्मृति की विभिन्न पंक्तियों को उद्धरित करते हुए लोकमान्य तिलक के विचारों से असहमति प्रकट की। उनके भाषण का ब्रिटिश सरकार पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि ब्रिटिश सरकार ने लाॅर्ड मिण्टो के स्थान पर भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल के रूप में लाॅर्ड हार्डिंग की नियुक्ति कर दी।


जब लाॅर्ड हार्डिंग पर दिल्ली की सड़कों से गुजरते हुए किसी अनजान व्यक्ति ने हैंड ग्रेनेड फेंक दिया, जिसमें वे बाल-बाल बच गए, तब ब्रिटिश सरकार ने अपने विरोधियों के विरूद्ध कड़ा रूख अपनाने का निर्णय लिया। उन्होंने एक बहुत ही जनविरोधी ‘प्रेस एक्ट’ को लागू कर दिया। मालवीय जी ने ब्रिटिश सरकार की परवाह न करते हुए 8 फरवरी 1910 को गवर्नर जनरल और उनकी कार्यकारिणी द्वारा प्रस्तुत ‘प्रेस विधेयक’ की कटु आलोचना करते हुए कहा कि ‘यह प्रेस एक्ट तो लाॅर्ड लिटन के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट से भी कठोर व अलोकतांत्रिक है।’ उन्होंने कहा कि न्यायालय के अधिकारों को प्रशासनिक अधिकारियों को हस्तांतरित करना सर्वथा अनुचित है। सरकार द्वारा ‘विद्रोह सभा विधेयक’ प्रस्तावित करने का भी मालवीय जी ने तीव्र विरोध किया। पुनः जब सन् 1911 में दूसरा ‘विद्रोह सभा विधेयक’ कौंसिल में प्रस्तुत किया गया तो मालवीय जी ने इसे ‘अनावश्यक’ और ‘दमनकारी’ बताया। परन्तु दुर्भाग्यतः यह विधेयक कौंसिल में पारित हो गया।


धीरे-धीरे मालवीय जी को यह समझ में आने लगा कि भारत माँ को अब उनकी अंशकालिक सेवा का नहीं वरन् पूर्णकालिक सेवा की आवश्यकता है। इसीलिए सन् 1913 में उन्होंने अपनी वकालत पूरी तरह से छोड़ दी तथा अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्रीय सेवा में अर्पित कर दिया। अपनी वकालत छोड़ने के बाद से मालवीय जी उन विभिन्न तरीकों एवं सिद्धान्तों को इजाद करने में लग गए, जिनसे भारत माँ को स्वतंत्र किया जा सके। उनका स्वर तीव्र से तीव्रतर होता गया। उन्होंने सन् 1915 में सरकार द्वारा कौंसिल में प्रस्तुत ‘भारत रक्षा बिल’ का इस आधार पर विरोध किया कि वह व्यक्तिगत स्वतंत्रता के विरूद्ध है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि यद्यपि युद्ध की विषम परिस्थितियों में देश की रक्षा हेतु कतिपय विशेषाधिकारों का प्रावधान आवश्यक है किन्तु इस आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करने वाले कानून को स्वीकार नहीं किया जा सकता।


1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। ब्रिटिश शत्रुओं के विरूद्ध भारतीय सेना ने अद्भुत वीरता का परिचय दिया। ब्रिटेन की जीत में भारतीय सेना का बहुत बड़ा योगदान था। इसी समय 1914 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मद्रास अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि जिन भी देशों ने भारतीयों को अपने भूमि क्षेत्र से निकाल दिया है, उन सबका आर्थिक रूप से बहिष्कार किया जाना चाहिए। परिणामस्वरूद्ध श्रीमती एनीबेसेन्ट ने लाॅर्ड पिंटलैण्ड के साथ अपना ‘होम रूल मूवमेंट’ शुरू किया। वी.पी. वाडिया एवं सी.पी. रामास्वामी अय्यर होम रूल लीग के उच्च श्रेणी के नेता बने। ब्रिटिश सरकार ने पुनः अपनी दमनकारी नीतियों को उन पर लागू किया। तीन नेता श्रीमती एनीबेसेन्ट, अरूण दले एवं वाडिया को बंदी बना लिया गया। ऐसे कठिन समय में पण्डित मदन मोहन मालवीय ने निर्भीक होकर होम रूल आंदोलन का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। वे कभी भी यह बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि स्वतंत्रता का यह आंदोलन इतनी निर्दयता से ब्रिटिश सरकार द्वारा कुचल दिया जाए। माँ भारती के प्रति उनकी निष्ठा इस बात से सिद्ध होती है कि एनीबेसेन्ट के साथ बहुत से विषयों में वैचारिक सहमति न होते हुए भी उन्होंने उनके द्वारा शुरू किए गए इस आंदोलन में उनका पूरी तरह से साथ दिया। मालवीय जी के इस आंदोलन का नेतृत्व करने के कारण इस आंदोलन में नई जान आ गई। मोहम्मद अली जिन्ना भी इस टीम में शामिल हो गए। पूरे देश में स्वशासन की मांग ने जोर पकड़ लिया।


इंजीनियरों की पूर्ति के लिए  विष्वविद्रयालय की स्थापना


कतने आश्चर्य की बात है कि एक ओर मालवीय जी स्वतंत्रता की लड़ाई में पूरी तरह से कूद पड़े थे, तो दूसरी ओर स्वतंत्रता के बाद भारत का स्वरूप कैसा हो, उसे अपनी प्रगति के लिए किस प्रकार के संसाधनों की आवश्यकता होगी, इस पर भी तीव्र गति से उनका विचार मंथन चल रहा था। वे भलीभांति जानते थे कि ब्रिटिश शिक्षा पद्धति भारतीयों के स्वाभिमान को धीरे-धीरे नष्ट कर देगी। भारत की अद्वितीय प्रज्ञावान एवं जीवनदायिनी परम्पराओं को पोषित करना कठिन हो जाएगा। साथ ही वे यह भी अच्छी तरह समझते थे कि आने वाले समय में भारतवर्ष को ऐसे उच्च कोटि के इंजीनियरों, डाॅक्टरों, कृषकों व शिक्षित स्त्रियों की आवश्यकता होगी, जो राष्ट्र को प्रगति की ओर ले जा सके। यही कारण है कि स्वतंत्रता संग्राम में अपनी उदीप्त सहभागिता के साथ-साथ उन्होंने वर्ष 1910 में प्रयाग के माघ मेले के अवसर पर काशी में हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के संकल्प की घोषणा की। इस हेतु उन्होंने ‘हिन्दू विश्वविद्यालय सोसायटी’ की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए वे चंदा जुटाने के लिए निकल पड़े, जिसमें एनीबेसेन्ट, लाला लाजपत राय आदि सभी बड़े नेताओं ने सहयोग किया। उनके अथक प्रयास से भारतीय ज्ञान और मनीषा के प्रतीक स्तम्भ ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बिल’ 1915 में पास हो गया। 1916 की बसन्त पंचमी को विश्वविद्यालय का शिलान्यास हो गया और इस संस्था के माध्यम से वे विद्यार्थियों में स्वाभिमान, देशभक्ति और स्वतंत्रता की अलख जगाते रहे। इससे समस्त देशवासियों के सामने यह सिद्ध हो गया कि मालवीय जी केवल राजनीतिक आजादी के लिए ही नहीं वरन् पूरी भारतीय अस्मिता की रक्षा एवं पहचान के लिए संघर्षरत थे। उन्होंने प्राच्य और आधुनिकता का अद्भुत समन्वय इस शिक्षा मन्दिर के द्वारा किया। शिलान्यास के मौके पर मालवीय जी ने इस कार्य हेतु महात्मा गाँधी को बुलाया। गाँधीजी ने उस अवसर पर मालवीय जी के सम्मान में जो कहा, वह आज भी पठनीय है और मालवीय जी के महान व्यक्तित्व को रेखांकित करता है। गाँधी ने छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा:


‘‘मालवीय महाराज के इतने निकट रहकर भी अगर आप उनके जीवन से सादगी, त्याग, देशभक्ति, उदारता और विश्वव्यापी प्रेम आदि सद्गुणों का अपने जीवन में अनुकरण न कर सकें तो कहिए, आपसे बढ़कर अभागा और कौन होगा’’


गाँधीजी ने मालवीय जी के उदात्त विचारों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मालवीय जी के लिए, ‘‘घर में ब्राह्मण धर्म है, परिवार में सनातन धर्म है, समाज में हिन्दू धर्म है, देश में स्वराज्य धर्म है और विश्व में मानव धर्म है।’’
महामना का व्यक्तित्व इतना ऊँचा था कि उनके निमंत्रण को कोई भी अस्वीकार नहीं कर पाता था। उन्होंने देश भर से सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों जैसे डाॅ. गणेश प्रसाद, डाॅ. बीरबल साहनी, प्रो. ईनामदार, डाॅ. शांतिस्वरूप भटनागर एवं प्रो. कृष्ण कुमार माथुर को नियुक्त किया। जो वैज्ञानिक स्थायी रूप से नहीं आ सकते थे, उनसे भी सहयोग प्राप्त किया और वर्ष में प्रायः एक सप्ताह विश्वविद्यालय में रहकर ऐसे विद्वानों से विद्यार्थियों को विशेष व्याख्यान दिलवाया।ऐसे व्यक्तियों में सर जे.सी. बोस, सर पी.सी. राय, सर सी.वी. रमन, प्रो. कश्यप आदि अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध वैज्ञानिक थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भारतवर्ष का वह पहला विश्वविद्यालय बना, जिसमें प्राचीन आयुर्वेद के साथ अर्वाचीन शल्य विज्ञान की शिक्षा का समन्वय, आयुर्वेदिक औषधियों पर अनुसंधान, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन, साहित्य तथा इतिहास के साथ-साथ आधुनिक मनोविज्ञान, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र, और राजनीति शास्त्र के अध्ययन की व्यवस्था की गई। यहाँ एक ओर वेदों और उपनिषदों, संस्कृत साहित्य और वाड्मय की शिक्षा दी गई तो दूसरी ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, खनन विज्ञान, धातु विज्ञान, विद्युत और यांत्रिक इंजीनियरिंग एवं कृषि विज्ञान के अध्ययन की भी व्यवस्था की गई।


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद मालवीय जी पूर्व की भांति ही स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में पूरी तरह से जुट गए। इसी 1916 में ही मालवीय जी ने ‘इम्पिरियल कौंसिल’ के कुछ गैर शासकीय सदस्यों के साथ एक प्रस्ताव,जिसे ‘मेमोरेण्डम आॅफ द नाइनटीन’ के नाम से जाना जाता है, पर हस्ताक्षर किए। यह प्रस्ताव स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है क्योंकि इसमें ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों पर रोक लगाने के लिए एवं भारतवर्ष को तुरन्त स्वतंत्र करने की मांग की गई। अप्रैल 1917 में कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने यह निर्णय लिया कि मालवीय जी के साथ एक प्रतिनिधि मण्डल अपनी मांगों को लेकर इंग्लैण्ड जाए। सन् 1917 में ही ईस्लीमिंगटन कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें कहा गया था कि भारतीय सिविल सर्विस में भर्ती के लिए भारत में प्रतियोगी परीक्षा शुरू की जाए और भारतीय सिविल सेवा के 75 प्रतिशत और पुलिस सेवा के 90 प्रतिशत पदों के लिए परीक्षाएँ यूरोप में हो और परीक्षार्थियों की अधिकतम आयु 24 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी जाए। मालवीय जी ने कमीशन की कई संस्तुतियों को आपत्तिजनक पाया और इसके विरूद्ध सितम्बर 1917 में कौंसिल में तीन महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव रखे, जिसमें उन्होंने मांग रखी कि इंग्लैण्ड के साथ-साथ भारत में भी सिविल सेवा की प्रतियोगी परीक्षा आयोजित की जाए। यदि भारतीय सिविल सेवा में भारतीयों के प्रवेश के लिए भारत में अलग से परीक्षा आयोजित की जाए तो पचास प्रतिशत पद इस परीक्षा के माध्यम से ही भरे जाएँ तथा भारतीय पुलिस सेवा के लिए भी लंदन के अतिरिक्त भारत में भी परीक्षाएँ हों और उसमें प्रवेश का अधिकार भारतीयों को भी दिया जाए। किन्तु सरकार ने इन तीनेां प्रस्तावों को भी नामंजूर कर दिया। परन्तु इस समय तक यह बात स्पष्ट हो गई थी कि मालवीय जी कांग्रेस के उन चुनिंदा नेताओं में से थे जिनमें ब्रिटिश हुकुमत के विरूद्ध बोलने का साहस था और जो भारत की जनभावना से गहराई से जुड़े थे।


मालवीय जी के राजनैतिक जीवन में जहाँ एक ओर सरकार की गलत नीतियों के लिए सशक्त विरोध का स्वर सुनाई पड़ता है, वहीं दूसरी और राष्ट्रहित में उनका समन्वयकारी रूप भी दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए मालवीय जी ने सरकार की गलत नीतियों की आलोचना तो की परन्तु जब भी सरकार व कांग्रेस के बीच तनाव की स्थिति हुई तो मालवीय जी दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने के लिए भी प्रयासरत रहे। सन् 1918 में प्रस्तुत माण्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में प्रस्तावित सुधारों पर कांग्रेस में आंतरिक मतभेद था किन्तु मालवीय जी ने एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा कि इन सुझावों में अनेक प्रस्ताव निःसन्देह ‘उदार’ हैं किन्तु इस रिपोर्ट में ‘‘भारी कमियाँ’ हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।16 उन्होंने निम्नलिखित महत्वपूर्ण सुझाव दिये: 1- इस बात का आश्वासन दिया जाना चाहिए कि बीस वर्षों के अन्दर पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना की जायेगी, 2- भारत को वित्तीय स्वायत्तता दी जानी चाहिए, 3- गवर्नर तथा गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् के आधे सदस्य भारतीय होने चाहिए, 4- प्रांतीय विधान सभाओं की सदस्य संख्या बढ़ा दी जाये एवं मतदान के अधिकार को यथासम्भव व्यापक किया जाये। मान्टेग्यु-चेम्सफोर्ड योजना पर विचार करने के लिए बम्बई में अगस्त सन् 1918 में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन किया गया। किन्तु मालवीय जी के प्रयास के बावजूद इस अधिवेशन में अधिकांश नरमपंथियों ने भाग नहीं लिया। इस अधिवेशन में मालवीय जी द्वारा सरकार की ओर से उत्तरदायी सरकार की स्थापना की दिशा में आवश्यक कदम उठाये जाने के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण संशोधन प्रस्तुत किये गये।


दिसम्बर सन् 1918 में मालवीय जी ने दिल्ली में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता की। अपने अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने कहा आत्मनिर्णय का सिद्धांत भारत में भी लागू किया जाना चाहिए। उनके शब्दों मेंः ‘‘स्वशासन ही हमारी शिकायत का इलाज है’’  और ‘‘हम आत्मविकास का सुअवसर चाहते हैं’’।


इसी अधिवेशन में मालवीय जी के प्रयासों के फलस्वरूप पहली बार किसानों और खेतिहरों को भी सम्मिलित होने की खुली छूट मिली। इसी सम्मेलन में पहली बार किसानों एवं भूमिपतियों को यह महसूस हुआ कि देश की स्वतंत्रता में उनकी भी कोई भूमिका हो सकती है। 6 फरवरी 1919 को विलियम्स विनसेन्ट ने एकबहुत ही दमनकारी शरारतपूर्ण रावलट विधेयक ;त्वूसंजज ठपससद्ध पेश किया। मालवीय जी ने इस विधेयक का तीव्र विरोध किया। वे विधायिका सभा में इस विषय साढ़े चार घण्टे तक लगातार बोलते रहे। भारतीय व्यवस्थापिका के इतिहास में यह सबसे लम्बा भाषण था। उनके विरोध के बावजूद विधेयक का पहला भाग पारित कर दिया गया और दूसरे भाग को वापस ले लिया गया। इस पर महात्मा गाँधी ने घोषण की कि यदि रावलट आयोग के सुझावों को स्वीकार कर लिया गया तो वे सत्याग्रह आंदोलन करने से नहीं हिचकेंगे। उन्हांेने पूरे देश का भ्रमण किया और 6 अप्रैल 1919 को अखिल भारतीय हड़ताल करवाई परन्तु ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियाँ उसी प्रकार से लागू रहीं। 11 नवम्बर 1918 को ‘वरसाय की संधि’ पर हस्ताक्षर होने के साथ प्रथम विश्व युद्ध का अंत हुआ। इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री लाॅर्ड जाॅर्ज ने भारतीयों की वीरता की प्रशंसा की परन्तु अचानक रावलट विधेयक को भारतीयों पर थोप दिया गया। इस बिल के पहले भाग के अनुसार क्रांतिकारियों को कोई भी सजा देने का अधिकार ब्रिटिश सरकार को होगा और इसके विरूद्ध कोई अपील नहीं की जा सकेगी। इसके दूसरे भाग के अनुसार ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध किसी भी प्रकार का प्रकाशन संगीनअपराध माना जाएगा। जैसे ही यह बिल पारित हुआ, गाँधीजी ने सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया। जब अमृतसर के जिला न्यायाधीश ने डाॅ. किचलू और डाॅ. सत्यपाल को बंदी बना लिया तब इस आंदोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया। गाँधीजी को बंदी बना लिया गया। ब्रिटिश अफसरों ने पंजाब में मार्शल लाॅ 10 अप्रैल 1919 से लागू कर दिया। इसके विरोध में दस हजार से भी अधिक लोग जलियाँवाला बाग में इकट्ठा हुए। यहाँ जनरल डायर ने निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलाईं, जिसमें हजारों लोगों की मौत हो गई। वायसराय ने इस कत्लेआम की न्यायिक जाँच के लिए सितम्बर 1919 में ‘हण्टर कमेटी’ गठित की। इसके ठीक बाद विधायिका सभा में अपने अधिकारियों के बचाव के लिए एक ‘इन्डेमनिटी बिल’ का प्रस्ताव रक्खा। मालवीय जी ने इस विधेयक का तीव्र  विरोध किया और पाँच घण्टों तक लगातार इस बिल के विरूद्ध बोलते रहे। मालवीय जी का यह भाषण भारतीय व्यवस्थापिका के इतिहास में सबसे अच्छा और शक्तिशाली भाषण माना जाता है। मालवीय जी के लगाए गए आरोपों का ब्रिटिश सरकार के पास कोई जवाब नहीं था परन्तु इन सबके बावजूद यह विधेयक पारित हो गया। ट्रेजरी बेंच के एक सदस्य ने मालवीय जी के भाषण पर टिप्पणी करते हुए लिखा

"Hon'ble Pandit Malaviya has chastised the British Government so severely but in such a placid manner as even Edumund Burke had not done while impeaching Warren Hastings."



मालवीय जी ने महात्मा गांधी और पण्डित मोतीलाल नेहरू एवं स्वामी श्रद्धानन्द के साथ पंजाब की ओर कूच किया एवं एक सेवा समिति के माध्यम से गोली से घायल लोगों को राहत पहुँचाई। यहाँ तक कि इस काण्ड से प्रभावित लोगों के सम्बन्धियों को भी राहत पहुँचाई। मालवीय जी ने इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री, भारत में नियुक्त विदेश मंत्री एवं लाॅर्ड सिन्हा को तार भेजकर अनुरोध किया कि जिन लोगों के विरूद्ध मार्शल लाॅ के अंतर्गत कार्यवाही हो रही है, उसे समिति की रिपोर्ट आने तक स्थगित किया जाए। वे निरन्तर ‘जाँच समिति’ की निष्पक्षता पर अपना ध्यान केन्द्रित किए हुए थे। इसी दौरान पण्डित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का अमृतसर अधिवेशन हुआ। मालवीय जी एवं कांग्रेस के प्रयासों के फलस्वरूप 24 दिसम्बर 1919 को पंजाब में सभी बंदी बनाए गए लोगों को छोड़ दिया गया। यद्यपि लोग हण्टर कमेटी के सामने जनरल डायर द्वारा दिये गए साक्ष्यों से बहुत अधिक नाराज थे परन्तु मालवीय जी और गाँधीजी की सलाह पर उन्होंने थोड़े समय के लिए अपने विरोध को स्थगित कर दिया।

इसी बीच इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री ने टर्की की रक्षा एवं मुसलमानों के पवित्र स्थलों की रक्षा के वायदे को पूरा नहीं किया। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध खिलाफत आंदोलन शुरू हो गया। गाँधीजी ने इस आंदोलन का पूरी तरह समर्थन किया और इसकी अगुवाई की। 1 अगस्त 1920 को बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु हो गई जिससे पूरा देश शोकाकुल हो गया।

पण्डित मदन मोहन मालवीय एक बहुत ही मौलिक विचारक थे। उनके विचार ‘दूसरों के प्रति सम्मान’ से निर्धारित एवं प्रभावित नहीं होते थे। गाँधीजी के प्रति उनका अगाध सम्मान था, परन्तु बहुत सी बातों में वे गाँधीजी के विचारों से सहमत नहीं होते थे। ऐसा ही एक विषय थाअसहयोग की नीति। सितम्बर सन् 1920 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में असहयोग आंदोलन प्रारम्भ करने से संबंधित गांधीजी के प्रस्ताव का मालवीय जी ने सशक्त विरोध किया। उन्होंने स्वीकार किया कि तत्कालीन परिस्थितियों में असहयोग न्यायसंगत और संवैधानिक’’ है किन्तु असहयोग का प्रस्ताव समस्या का समाधान नहीं है। उनका मानना था कि कौंसिल का बहिष्कार अनुचित होगा क्योंकि यदि कांग्रेस ने कौंसिल का बहिष्कार किया तो सरकार के समर्थक कौंसिल पर अधिकार जमा लेंगे जो देश के हित में नहीं होगा। उन्होंने न्यायालयों और विद्यालयों के बहिष्कार को भी राष्ट्रीय प्रगति में बाधक माना।  उनका मानना था कि बहिष्कार से निरर्थक कटुता का वातावरण तैयार होगा और सरकार को निरंकुश दमन का मौका मिलेगा। असहयोग आंदोलन के प्रति मालवीय जी के विरोध का लाभ सरकार ने उठाना चाहा और उन्हें अपनी ओर मिलाने की कोशिश भी की किन्तु मालवीय जी का असहयोग आंदोलन से विरोध मात्र वैचारिक आधार पर था। उन्हें सरकार के निकट आने का लोभ कदाचित नहीं था और यही कारण है कि जब वाइसराय ने उन्हें ‘नाइटहुड’ की उपाधि से विभूषित करना चाहा तो उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। किन्तु राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए वे कांग्रेस व सरकार के बीच समझौता कराने के लिए प्रयासरत रहे। जब वे वाइसराय से मिले तो वाइसराय ने इस बात की स्वीकृति दे दी कि मार्च सन् 1922 में शासन-सुधार के संबंध में गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया जाएगा। मालवीय जी ने इसे सरकार के समक्ष अपनी बात रखने के सुअवसर के रूप में देखा। वाइसराय ने आश्वासन दिया कि अली बन्धु व दूसरे सभी राजनीतिक बंदी जो विचार-विमर्श में भाग लेंगे मुक्त कर दिये जायेंगे। किन्तु गाँधी जी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। उनका प्रस्ताव था कि सभी राजनीतिक नेता व अली बन्धु बिना किसी शर्त जेल से मुक्त कर दिये जायें और फिर गोलमेज सम्मेलन के प्रस्ताव पर विचार किया जाए। मालवीय जी शिष्टमंडल के साथ इस प्रस्ताव पर बात करने के लिए वाइसराय से मिले किन्तु वाइसराय ने अपनी असमर्थता व्यक्त की। दुर्भाग्यतः इस दिशा में मालवीय जी का प्रयास विफल रहा।

मालवीय जी का मूल लक्ष्य ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता व प्रगति’ था और विभिन्न सार्वजनिक मंचों से वह इस दिशा में प्रयास करते रहे। इस क्रम में अगस्त सन् 1923 में मालवीय जी ने हिन्दू महासभा के सातवें साधारण अधिवेशन की अध्यक्षता की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में हिन्दू जाति की प्राचीनता और गौरव की बात की और साथ ही हिन्दू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि स्वराज्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हिन्दू-मुसलमान अपने भेदभाव मिटाकर देश के लिए साथ मिलकर आगे आयें।  सन् 1927 तक उन्होंने हिन्दू महासभा का नेतृत्व कियाप्उन्होंने दिसम्बर सन् 1972 में आयोजित वार्षिक अधिवेश को संबोधित करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि ‘राष्ट्रीयता हिन्दू महासभा का उतना ही लक्ष्य है, जितना हिन्दुत्व’। किन्तु कुछ वैचारिक मतभेदों के कारण 1928 के बाद मालवीय जी ने हिन्दू महासभा में अपना सक्रिय योगदान बन्द कर दिया।

सन् 1927 से 1930 के बीच लेजिस्लेटिव असेम्बली में मालवीय जी ने मुद्रा विधेयक, रिजर्व बैंक विधेयक, पब्लिसिटी बिल की सशक्त समीक्षा की। सन् 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति के पहले ही मालवीय जी ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष यह मांग रखी थी कि कमीशन में भारतीय सदस्यों की संख्या यूरोपीय सदस्यों के बराबर होनी चाहिए अन्यथा कमीशन का बहिष्कार किया जाएगा। कमीशन की नियुक्ति के बाद मालवीय जी ने जनता से कमीशन के बहिष्कार का आह्वान किया। 16 फरवरी सन् 1928 को लाला जलाजपत राय ने केन्द्रीय असेम्बली में साइमन कमीशन के गठन और योजना की नामंजूरी के विषय में प्र्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस अवसर पर मालवीय जी ने कहा ‘‘हम स्वतंत्रता चाहते हैं और हमारा दावा है कि हम अपना शासन चलाने के योग्य हैं और अंग्रेज जबरदस्ती हमें अपने अधिकार के अधीन बनाये रखना चाहते हैं।’’

12 फरवरी सन् 1928 को दिल्ली में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में संविधान की रूपरेखा तैयार करने के लिए एक समिति गठित की गयी। लखनऊ अधिवेशन में कमेटी की रिपोर्ट पर विचार हुआ। मालवीय जी ने प्रस्ताव में रखा कि कमेटी की संस्तुतियों में सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को नागरिकों के मौलिक अधिकार में सम्मिलित किया जाए। मालवीय जी ने 1930 के नमक सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय सहभागिता की। सन् 1931 में वे द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लन्दन गये। इस सम्मेलन में उन्होंने पूर्ण स्वतन्त्रता, पूर्ण उत्तरदायी शासन, अखिल भारतीय संघीय व्यवस्था, वयस्क मताधिकार, प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली, लोक सेवाओं के भारतीयकरण तथा प्रान्तीय स्वशासन के साथ-साथ केन्द्रीय स्वशासन के विषय पर अपने सशक्त विचार व्यक्त किये। तेज बहादुर सप्रू ने अपने एक संस्मरण में कान्फ्रेन्स में मालवीय जी की सहभागिता के विषय में लिखा है: ‘‘इस कान्फ्रेन्स में कोई भी ऐसा हिन्दुस्तानी नहीं था जिसे मालवीय जी से अधिक मात्रा में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों का सम्मान प्राप्त था।’’

2 जनवरी सन् 1932 को कांग्रेस कार्यसमिति ने दूसरा सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का निर्णय लिया किन्तु दो दिन बाद ही गांधी जी सहित कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मालवीय जी ने अनुरोध किया कि ऐसा क्षोभ व्यक्त करते हुए वाइसराय को लिखे गए पत्र में दमनकारी नीतियों पर रोक लगायी जाये और देश में कानून के शासन की स्थापना हो।  इसी बीच मालवीय जी ने काशी में ‘अखिल भारतीय स्वदेशी संघ’ स्थापित किया, जिसके तत्वावधान में मई सन् 1932 को ‘अखिल भारतीय स्वदेशी दिवस’ मनाया गया। अपने सम्बोधन में मालवीय जी ने आह्वान किया कि: ‘स्वदेशी ही खरीदो, स्वदेशी ही बेचो- इसका खूब प्रचार होना चाहिए।’  इसी वर्ष 17 अगस्त को प्रधानमंत्री मैकडोनल्ड ने सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा की जिसके विरूद्ध 20 सितम्बर को गांधी जी का अनशन आरम्भ हुआ। इस समस्या के समाधान हेतु मालवीय जी ने हिन्दू नेताओं की सभा आयोजित की और अंततः 25 दिसम्बर को दलित और सवर्ण हिन्दू नेताओं की सहमति से पुनः समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस प्रकार मालवीय जी के सशक्त प्रयास से भारतीय समाज को बांटने वाले साम्प्रदायिक निर्णय का निदान हो सका। इसी क्रम में 25 सितम्बर 1932 को मालवीय जी की अध्यक्षता में बम्बई में विराट सभा आयोजित हुई जिसमें निर्णय लिया गया कि अस्पृश्यता का अंत हो और तथाकथित अछूतों को भी सार्वजनिक कँुओ, स्थलों व संस्थाओं के प्रयोग का समान अधिकार हो और इस अधिकार को कानूनी मान्यता भी प्राप्त हो। इस सभा में अस्पृश्यता-निवारण संस्थान स्थापित करने का भी निर्णय लिया गया। इस प्रकार मालवीय जी ने अछतोद्धार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। साम्प्रदायिक सौहार्द्र व समरसता को राष्ट्रीय उत्थान का आधार मानते हुए मालवीय जी ने दिसम्बर सन् 1932 को इलाहाबाद में एकता कान्फ्रेन्स आयोजित की। इस कान्फ्रेन्स के अन्त में 24 दिसम्बर सन् 1932 को एकता सम्मेलन कमेटी ने सर्वसम्मति से एक समझौता किया। कान्फ्रेन्स के बाद मालवीय जी ने अपने वक्तव्य में कहा ‘‘राष्ट्रीय एकता के बड़े लक्ष्य को ध्यान में रखकर यह कहा जा सकता है कि यह एक श्रेष्ठ प्रयास है जो जनता की राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और आत्म निर्णय की आशाओं और आकांक्षाओं को एवं उनके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक उत्थान को प्रतिस्थापित करता है’’ मालवीय जी ने हरिजन उद्धार के लिए गाँधी जी द्वारा चलाये गये आंदोलन में सक्रिय सहयोग किया। वे सनातन धर्म महासभा के माध्यम व सहयोग से अन्त्यजोद्धार के लिए प्रयास करते रहे। उनके नेतृत्व में सनातन धर्म सभा ने निर्णय लिया कि अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों को सार्वजनिक स्थल में प्रवेश व सार्वजनिक सुविधाओं के उपयोग से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। मालवीय जी ने अन्त्यजोद्धार के लिए ‘अन्त्यजोद्धार विधि’ नामक पुस्तक भी प्रकाशित की।

इस प्रकार मालवीय जी ने अपने राजनीतिक जीवन में राष्ट्रीय उत्थान के लिए सशक्त प्रयास किये। किन्तु जीवन के अंतिम वर्षों में जीर्ण होते स्वास्थ्य के कारण सक्रिय सार्वजनिक जीवन से मालवीय जी को अपने को दूर करना पड़ा। सन् 1939 में उन्होंने विश्वविद्यालय से त्यागपत्र दे दिया किन्तु इसके बाद भी जनसेवा में लगे रहे। दवतीय विश्वयुद्ध के समय 8 अगस्त सन् 1940 को मालवीय जी ने महारूद्र योग का अनुष्ठान किया। इस प्रकार जीवन के अंतिम क्षण तक मालवीय जी का जीवन विश्वशान्ति, राष्ट्रीय उत्थान, अन्त्यजोद्धार और साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लक्ष्य के प्रति समर्पित रहा।

मालवीय जी का पूरा राजनीतिक जीवन इस तथ्य का प्रमाण है कि राष्ट्रीय हित उनके लिए सर्वोपरि था। हिन्दू धर्म की सनातन परम्परा के प्रति श्रद्धा, शिक्षा के प्रति समर्पण, व्यक्तिगत स्वतंत्रता में विश्वास, लोकतंत्र में आस्था, साम्प्रदायिक सौहार्द्र व समरसता की दिशा में प्रयास उनके सशक्त राष्ट्र प्रेम की ओर ही संकेत करते हैं। मालवीय जी की राष्ट्रवाद की धारणा अत्यन्त व्यापक है जिसे प्रचलितराष्ट्रवाद के सिद्धान्तों के माध्यम से कदापि नहीं समझा जा सकता है। हिन्दू धर्म के प्रति उनकी गहन आस्था के कारण बहुधा उन्हें हिन्दू राष्ट्रवादियों की श्रेणी में रखा जाता है। किन्तु वास्तव में मालवीय जी का राष्ट्रवाद हिन्दू राष्ट्रवाद की संकीर्ण मान्यताओं से बिल्कुल भिन्न व अत्यधिक ऊदार है। उनकी आस्था संकीर्ण हिन्दुवाद में नहीं बल्कि सनातन हिन्दुत्व की परम्परा में थी। हिन्दू महासभा से मालवीय जी की दूरी का कारण भी उनकी हिन्दुत्व की वृहद परम्परा में आस्था ही थी जो संकीर्ण हिन्दुवाद से कहीं भी मेल न खाती थी। उनका हिन्दू राष्ट्रवादियों के इस मत से कि भावी भारत हिन्दुओं का होगा, गहरा विरोध था। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि-‘हम एक राष्ट्र हैं। भारत हिन्दूओं, मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसी तथा सिक्खों की मातृभूमि है।’ परम्परा के प्रति मालवीय जी की आस्था कभी भी सकारात्मक परिवर्तन के मार्ग में बाधक नहीं बनी। वे आधुनिकता विरोधी कदापि नहीं थे किन्तु परिवर्तन के नाम पर वे भारतीय परम्परा के सकारात्मक पक्षों को छोड़ने को तैयार नहीं थे। इस प्रकार मालवीय जी का राजनीतिक जीवन व चिन्तन, समन्वयवादी दृष्टिकोण पर आधारित था।

Mahamana Madan Mohan Malaviya