महामना के ब्रह्मतेज से युक्त व्यक्तित्व, चन्दनचर्चित ललाट, गौर प्रदीप्तवर्ण, गले में फेरा देकर लिपटा हुआ और घुटनों तक दोनों ओर लटकता हुआउत्तरीय आदि लक्षण उनके व्यक्तित्व को इतना आकर्षक बना देते थे किदेखनेवालों में उनके प्रति अथाह आकर्षण और सम्मान का भाव जागृत होता था ।साथ ही उनके गौरवमय दिव्य रूप के साथ उनकी मोहक, पवित्र और प्रभावशाली मधुरवाणी श्रोताओं को चुम्बकीय शक्ति की भाँति आकर्षित करती थी वे साक्षातकरुणामूर्ति थे ।विशेषतः दीन छात्रों के प्रति उनमें अगाध करुणा, उदारताऔर स्नेह की छाया वर्तमान थी ।उनके इन्हीं भावों के फलस्वरूप न जाने कितनेअकिंचन छात्र उनके विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके भारत में तथाभारत के बाहर के देशों में अनेक गौरवमय पदों पर अत्यंत निष्ठा के साथ कार्यकरके भारत और स्वंय अपना मस्तक ऊंचा कर सके ।उनका धैर्य पृथ्वी के समानअचल था ।यदि कोई अपनी करुण गाथा उनके आगे सुनाने लगता तो वे नेत्रों मेंजल भरकर चुपचाप उसे सुनते रहते और कोमल शब्दों में सांत्वना देकर उसकेविपत्ति-हरण के लिए अपना उदार हाथ बढ़ा देते ।
अपनेआचार-विचार में सात्विक एंव सनातनधर्मी होने के नाते वे स्नान, संध्या, पूजा-पाठ तथा नित्यकर्म में बड़े नियमित थे ।प्रतिदिन संध्यावंदन के बाद वे 'भागवत' और 'बाल्मीकि रामायण' का पाठ करते थे ।वे मन, वचन और कर्म सेकिसी को हानि पहुँचाने की कल्पना भी नहीं करते थे ।धार्मिक ग्रंथों औरदार्शनिक सिद्धांतों में उनकी गहरी पैठ थी ।सत्य के प्रति उनका आग्रह सदैवबना रहा ।सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने न कभी संकोच किया और न किसी काभय माना ।वे कोई ऐसी बात मानने के लिए प्रस्तुत नहीं होते थे, जोपरम्परागत शास्त्रीय मर्यादा के प्रतिकूल होती थी।अपने रहन-सहन में वे बड़ेसादे थे, किन्तु साथ ही पूर्ण कलात्मक भी थे ।अपने चंदन के टीके को गोलकरने तथा अपने उत्तरीय को चढ़ाकर बाँधने में चाहे जितना समय लगता, वे चिन्तान करते ।उनकी गति, हँसी, बोल-चाल, भाव-भंगिमा, सबमें विभिन्न प्रक़र कीशोभा, सुन्दरता और कलात्मकता रहती थी ।हड़बड़ी का भाव तो उनमें नाम मात्र भीनहीं था ।बिना पूरी तरह सजे-धजे वे बाहरी बैठक में भी नहीं आते थे ।प्रातः काल से लेकर रात्रि तक उनके यहाँ आने-जाने वालों की भीड़ लगी रहतीथी, पर वे कभी थकते नहीं थे ।सबकी बात सुनते थे और यथायोग्य सहायता करतेथे ।उनके द्वार पर सबकी पैठ थी ।उनके यहाँ गोपनीयता का कोई स्थान नहीं था।यहाँ तक किअस्वस्थता की दशा में भी वे लोगों को आने-जाने और मिलने सेमना नहीं करते थे ।एक बार जब उनके कनिष्ठ पुत्र स्वर्गीय गोविन्द मालवीयने उनसे ऐसा न करने का आग्रह किया तो उन्होंने उनसे कहा- "मैं जनता का सेवकहूँ और जनता को यह अधिकार है कि वे जब चाहे अपने सेवक से सेवा ले ।"
वे आचार में सात्विक और रूढ़िवादीहोते हुए भी विचार में बड़े उदार थे ।इसीलिए उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भारतीय विद्याओं के साथ-साथविदेशी विद्याओं के अध्ययन की भी योजना बनायीं और उसे कार्यान्वित भी किया।उनका देश-प्रेम अखण्ड और रचनात्मक था ।उन्होंने राष्ट्रीयता की शिक्षाके लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की और स्वदेशी के प्रचार केलिए प्रयाग में कुटीर उद्योगों की स्थापना करने का मार्ग भी प्रशस्त किया ।गांधी जी के हरिजन आन्दोलन के क्रम में उनका यह प्रस्ताव था 'कि हरिजनोंके लिए नये मंदिरों और कुओं का निर्माण कराया जाय और उनके लिए शिक्षा कीविशेष व्यवस्था हो ।" उन्होंने स्वंय हरिजनों को मंत्र-दीक्षा देने कीपरिपाटी चलाई ।पिछले कई शताब्दियों में इनकी व्यापक लोक-परिधियों मेंकार्य करनेवाला, उज्जवल चरित्रवाला, प्रतिभाशाली और सर्वमान्य लोकनायक कोईदूसरा नहीं हुआ ।उन्होंने छात्रों का पुत्रवत पालन किया ।खोज-खोज करविद्वानों को लाकर विश्वविद्यालय में उन्होंने उनको नियुक्त किया ।इसप्रकार सभी कसौटियों पर कसे जाने पर केवल एक मालवीय जी ही ऐसे महापुरुषदिखाई पड़ते हैं, जिन पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता ।
श्रीमदभागवत प्रेम
मालवीयजी स्वधर्म (हिन्दू धर्म) को स्वमाता के समान मानते थे ।उनके जीवन औरकार्यों का कोई भी वर्णन अधूरा ही होगा, जब तक हिन्दू धर्म में उनकी आस्थाका पूरा विवरण समाविष्ट न किया जाये ।उनके समस्त कार्य-कलाप, चाहे वेराजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक या कुछ भी रहे हों, सब धर्म पर ही आधारित थे ।वे धर्म को मानव जीवन की एक ऐसी आवश्यकता मानते थे, जिसके बिना उसकेमनुष्यत्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लग जाता है ।वे मानते थे कि हिन्दू धर्मसार्वभौम धर्म है ।किसी पंथ या सम्प्रदाय की सीमा में वे सीमित नहीं है, इसलिए उनके धार्मिक भाव को "भागवत भाव" कहना अधिक उपयुक्त है ।
मालवीयजी का यह "भागवत भाव" उनके स्वभागवत "श्रीमद्भागवत" प्रेम पर आधारित था ।उन्होंने भागवत को सच्चे अर्थों में लोकप्रिय बनाया और उसके धार्मिकनिष्कर्षों के अनुसार अपने आदर्शों का निर्माण किया ।वे यथार्थतः एकसदाचरनिष्ठ महनीय व्यक्ति थे और भागवत की काव्य-सुषमा के प्रशंसक थे ।भागवत के सैंकड़ों श्लोक उनकी जिह्वा पर थे ।भागवत की कथा कहते हुए वे कथाके मार्मिक प्रसगों में खो जाते थे और कई बार उनकी आँखों से अश्रुधारा बहनिकलती थी ।विशेषतः 'गजेन्द्र-मोक्ष', द्रौपदी की कथा, कुन्ती की कथा, विदुला की कथा और इसी प्रकार की अनु करुण कथाओं में उनकी आँखों से झर-झरआँसू बह जाया करते थे ।उनका उच्चारण इतना शुद्ध था कि जैसे वैदिकब्राह्मणों द्वारा वैदिक सूक्तों का सस्वर पाठ हो रहा हो ।कथा कहते हुए वोइतने तल्लीन हो जाते थे कि कई बार उनके गदगद कंठ से स्वर ही नहीं उभरते थे।वे भाव की अतल गहराइयों में खो जाते थे और श्रोता भी भाव विभोर हो जातेथे ।वे प्रायः कहा करते थे, "भागवत का एक-एक श्लोक वेद का सार है और भक्तिका अनन्त स्रोत है ।अतः सभी को इसका पाठ करना चाहिए ।क्योंकि इससे जीवनमें कुछ भी अलभ्य नहीं रहता ।" मालवीय जी भागवत की धार्मिक कथाओं को सुननेऔर सुनाने के लिए सदैव उत्सुक रहते थे ।जब कभी काशी के दशाश्वमेध घाट परया किसी अन्य स्थान पर किसी विद्वान का कथा-प्रवचन आयोजित होता था तोमहामना जी उसमें सम्मिलित होने के लिए विश्वविद्यालय से चले आते थे ।
मालवीयजी की एकादशी तिथि को होने वाले नियमित कथा-प्रवचनों में विश्वविद्यालय केऔर नगर के बहुत से मौलाना भी आते थे ।उनकी कथा अत्यन्त रोचक हुआ करती थी ।उसमें आने वाले श्रोताओं में से किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं होता था औरसाथ ही महामनाजी कथा-विषयक प्रवचन के लिए किसी स्थान विशेष के भी आग्रहीनहीं थे ।कहीं भी वे कथा सुना सकते थे।यहाँ तक कि सन १९२९ दिल्ली मेंमालवीय जी ने एक मौलाना को भागवत कीकथा को सुनाकर सबको चकित कर दिया था ।यह हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए एक आश्चर्यजनक कार्य था ।भारतीयवाङ्मय में 'भागवत' सबसे आसान और सबसे कठिन ग्रन्थ माना जाता है ।उसकेविषय में यह कथन सर्वविदित है, "विद्यावतां भागवते परीक्षा" ।इसमें अनेकऐसे प्रकरण हैं जो कि संस्कृत का साधारण ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की समझसे परे हैं ।प्रत्येक विषम या अवरोधक परिस्थितियों में भी महामना जी काउनको परास्त करने का ये अमोघ अस्त्र था ।एक बार जब हरिद्वार के ब्रह्मकुंडपर कथा, भजन-कीर्तन आदि सुनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तो वहाँ केपण्डों ने इस आदेश का जमकर विरोध किया ।सैंकड़ों पण्डे जेल गये ।अन्त मेंपण्डों के निमंत्रण पर महामना जी हरिद्वार गये ।सांयकाल की उनकी कथा मेंपचास हजार से अधिक भीड़ थी ।ऐसा लगता था कि जैसे व्यासपुत्र शुकदेव स्वंयअवतरित होकर कथा कह रहे हों ।इसका प्रभाव यह हुआ कि वह प्रतिबन्ध उठा लियागया ।तब मालवीय जी ने सरकार को धन्यवाद देते हुए जनता को सन्देश दिया कि "धर्मों रक्षति रक्षितः" अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है धर्म भी उसकीरक्षा करता है ।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित मालवीय भवन के भीतरीबरामदे में, जहाँ आज महामना जी की मूर्ति स्थापित है, वहाँ बैठकर महामना जीभागवत का पारायण किया करते थे ।इसलिए उस भवन का वह कक्ष आज भी भागवतमयप्रतीत होता है ।
सनातन धर्म का परिपालन
कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, अतः इस विषय में उनकी यह धारणा थी कि जिसयह भावना उनके इस सोच को चरितार्थ करती है कि "सिर जाए तो जाए मेरा धर्म नबल्कि उसके प्रतिकुछ लोग उन परअपने जीवन-काल में उन्होंने कई मस्जिदों का भी पुनरुद्धार कराया था ।बार जब वे काशी के बाहर थे तो यहाँ साम्प्रदायिक दंगा प्रारम्भ हो गया ।सामने शांति का प्रस्ताव रखा ।व्यक्तियों को दण्ड दिलाने का आश्वासन दिया ।कुछ लोग उन्हें एक रूढ़िवादीपरन्तु मालवीय जी ने कई अन्तर्जातीयविश्वविद्यालय का भी उन्होंने धर्मनिरपेक्ष स्वरुप सुनिश्चित किया था, जबकिहिन्दूसंवर्धन एव विस्तार करना था तथा इस विश्वविद्यालय का शैक्षणिकरूप से ली जाती थी ।प्रवचन' जिसमें छात्रों-अध्यापकों तथा अन्यये सब होते हुए भी इसमें साम्प्रदायिकता नहींथी ।
मालवीय जी ने आजीवन वैदिक सनातन धर्म का परिपालन किया ।देश के सम्पूर्णधर्म सम्बंधी कार्यों में वे अग्रसर रहे ।प्राप्त होने वाले लाभों की चर्चा किया करते थे और कहते थे कि विद्या, रूप, शौर्य, कुलीनता, राज्य, ये सभी धर्म से हीइस मान्यता कि पुष्टि में निम्न श्लोक सुनाया करते थे-
"कुलीनत्वमरोगिता ।
इसी प्रकार जीवन यापन को भी वे धर्मानुसार ही करने का उपदेश देते थे ।क्रिया,गाय के दुग्धपान से होने वालेउनकी मान्यता थी कि गाय का दूध पीने सेविद्वान में नम्रता, सम्पत्तिवान में अहंकारशून्यता तथा बलवान मेंसेवा-भावना का उदय होता है ।बच्चे के लिए ही लाभकारी होता है, गेहूँ की रोटी, गाय का घी, सब्जियाँ, के लिए भी ऐसा ही करने का परामर्श देते थे ।आहार-व्यवहार में वे पूर्णतया संतुलित मात्रा के समर्थक थे ।
पारम्परिक धर्म में सुधार का अभियान
सन १८८७ ई० में हिन्दुओं की प्रसिद्ध संस्था 'भारत धर्म महामण्डल' कीस्थापना हुई और धर्मप्रचार का रथ धूम-धाम से चल पड़ा ।इसकी सभाओं मेंमालवीय जी भी उपदेशकों के रूप में जाने लगे ।प्रयाग की 'हिन्दुधर्मप्रवर्धिनी सभा' से लेकर सनातन धर्म के बड़े सम्मेलनों में कोई धर्मायोजनऐसा नहीं हुआ, जिसमें महामना ने उसकी महिमा का गान न किया हो और कथाएँ नसुनाई हों ।तब तक पंडित दीनदयाल शर्मा और मालवीय जी, सनातन धर्म के आधारसमझे जाने लगे ।
सन१८८७ ई० के २४-२७ मार्च तक राजा लक्ष्मणदास सेठ के सभापतित्व में 'भारतधर्म महामण्डल' का दूसरा अधिवेशन वृन्दावन में हुआ ।उस समय मालवीय जीअध्यापक के रूप में कार्यरत थे ।सनातन धर्म की इस अखिल भारतीय संस्था केराष्ट्रीय महासभा में मालवीय जी ने प्रथम बार सनातन धर्म पर मार्मिकव्याख्यान दिया ।उनके व्याख्यान ने सनातनधर्मी जनता को यह बता दिया किउनके रूप में धर्म का कोई रक्षक आ पहुँचा है ।
सन१९०० के ९ से १३ अगस्त के बीच दिल्ली में 'भारत धर्म महामण्डल' का बहुत हीशानदार अधिवेशन हुआ और उसके सभापति हुए श्रीमान महाराजा बहादुर दरभंगानरेश सर कामेश्वर नारायण सिंह ।मण्डप का पण्डाल ऐसा भव्य बना था कि देखतेही बनता था और अधिवेशन भी इतना प्रभावशाली हुआ कि लोगों के मुँह से निकलपड़ा- "न भूतो न भविष्यति" अर्थात ऐसा पहले न तो हुआ और आगे हो भी नहीं सकता।
सनातन धर्म महासभा
'सनातन धर्म महासभा' के अनेक बड़ेअधिवेशन मालवीय जी द्वारा आयोजित होते रहे और उसमें देश के बड़े सम्मानितविद्वान, पंडित, धनी-मानी और राजे-महाराजे उपस्थित होते रहे ।फिर अगलेकुम्भ में त्रिवेणी के संगम पर अपनी संस्था "सनातन धर्म महासम्मेलन" को भीव्याख्यान वाचस्पति पंडित दीनदयाल जी ने सनातनधर्म महासभा' में विलीन करदिया ।जिस समय महात्मा गांधी जी की अगुवाई में सारा देश आन्दोलित था, उससमय भी मालवीय जी बड़ी शान्ति से 'सनातन धर्म सभा' को और सनातन धर्म कोसुदृढ़ करने में लगे हुए थे ।उसी समय महामना द्वारा 'सनातन धर्मसभा' का नएरूप से गठन हुआ और इसके माध्यम से सनातन धर्म का काम तेजी से आगे बढ़ा ।साथही पंजाब में इसकी जो मुख्य शाखा अर्थात 'सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा' थी, उसने पंजाब में सनातन धर्म की जो आँधी चलाई, उसका प्रभाव प्रदेश के बाहर भीपड़ने लगा ।इसका श्रेय विशेषतः गोस्वामी गणेश दत्त जी को है ।सन १९२८ की१८ से २४ जनवरी तक प्रयाग में "अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म महासभा" काअधिवेशन मालवीय जी के सभापतित्व में हुआ ।इसमें अनेक प्रांतों के औरहिन्दू-रियासतों के प्रसिद्द शास्त्रज्ञ उपस्थित हुए और प्रत्येक प्रस्तावपर गहन विचार-विमर्श हुआ ।जनवरी सन १९२८ ई० की बसन्तपंचमी के दिन काशीहिन्दू विश्वविद्यालय में मालवीय जी ने "अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्ममहासभा" की नींव डाली ।मालवीय जी इसके अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित रहे । 'सनातन धर्म महासभा' के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए मालवीय जी ने 'सनातन धर्म' नामक साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित की ।इसी के कुछ समयपश्चात मालवीय जी की प्रेरणा से लाहौर से 'विश्वबंधु' नामक पत्र भी निकला ।हरिद्वार का "ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम" भी मालवीय जी के मार्गदर्शन मेंस्थापित हुआ ।इसमें सबसे पहले मालवीय जी ने ही अपने पास से पच्चीस रूपयेरायबहादुर दुर्गादत्त पंत जी को दिये थे ।इसकी स्थापना सन १९०६ में हुई थी।मालवीय जी तभी से उसके संरक्षकों में रहे और लगातार दस वर्षों तक उसकीशिक्षा समिति के अध्यक्ष भी रहे ।
पंजाब बंधु
सन१९१९ में 'जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड' के अवसर पर मालवीय जी ने जिस प्रकारपीड़ितों की सहायता और सेवा की, उससे प्रभावित होकर पंजाब वालों ने उन्हें 'पंजाब बंधु' मान लिया और देवता की भाँति उनकी पूजा करने लगे ।सन १९२४ ई०में रावलपिण्डी में "प्रान्तीय सनातन धर्म सम्मलेन" का आयोजन हुआ और मालवीयजी उसके उपसभापति बनाये गए ।उस वर्ष पंजाब सहित पूरे भारत में इसकी तीनसौ से अधिक शाखाएँ खुली और सौ से अधिक 'महावीर दल' स्थापित हुए ।उस सभामें उन्होंने अछूतों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने और सार्वजनिकविद्यालयों में पढ़ने की छूट देने का उपदेश दिया ।साथ ही सन १९२५ ई० मेंउन्होंने अमृतसर के प्रसिद्द दुर्गयाना मंदिर और सरोवर की स्थापना करवाई ।सन १९२८ मार्च के महीने में मालवीय जी ने पंजाब की धर्मसभाओं में बड़ेप्रभावशाली ढंग से भाग लिया । 'सनातन धर्म सभा', 'आर्य समाज', 'हिन्दूसभा', और 'कांग्रेस कमेटी' ने जी खोलकर उनका सम्मान किया ।जगह-जगह उनकास्वागत इस प्रकार हुआ, जैसे भगवान स्वंय भूमि पर पधारे हों ।
सन१९२९ में पंजाब में सनातन धर्म के प्रचार के क्रम में मालवीय जी सिंध औरबलूचिस्तान भी पहुँचे और वहाँ की सनातन धर्म सभाओं के सभापति भी हुए ।इसकेबाद २१ से २४ अप्रैल सन १९३४ ई० में रावलपिण्डी में 'सनातन धर्ममहासम्मेलन' मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ ।वहाँ जो स्वागत हुआ और जोशोभायात्रा निकाली गई, वह अपूर्व थी ।मालवीय जी के उस उद्योग का फल यह हुआकि पंजाब सहित पूरे भारत में प्रति पर्व पर धार्मिक महोत्सव, कथा औरप्रवचन होने लगे ।फलतः देश में धार्मिक वातावरण संपुष्ट होने लगा ।इसक्रम में वे कितनी 'सनातन धर्मसभाओं' के सभापति बने, कितनी धार्मिकसंस्थाओं की नींव राखी, कितने मठ-मंदिरों-धर्मशालाओं का उदघाटन किया, इनकीसूची बहुत विस्तृत है ।
मंत्र-दीक्षा
२३ जनवरी सन १९२७से २६जनवरी के बीच प्रयाग में त्रिवेणी तट पर अर्धकुम्भ के अवसर पर "अखिलभारतवर्षीय सनातन धर्म महासभा" का अधिवेशन हुआ ।चार दिन के इस कार्यक्रमके तीन दिनों की अध्यक्षता मालवीय जी की रही, परन्तु २५ जनवरी कोमहराजधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर, (महाराजा दरभंगा) के सभापतित्व मेंविद्वानमंडली और प्रतिनिधियों द्वारा बड़े महत्वपूर्ण प्रस्ताव सर्वसम्मतिसे पारित किये गये ।
'महासभा' के इसी अधिवेशन के माध्यम से अछूतों को 'मंत्र-दीक्षा' देने का प्रस्ताव भी उन्होंने स्वीकृत कराया ।तत्पश्चात सन१९२७ में महाशिवरात्रि के दिन काशी में दशाश्वमेध घाट पर उन्होंने सभीवर्णों के लोगों को मंत्र दीक्षा दी ।ये मंत्र इस प्रकार थे- "ॐ नमःशिवाय", "ॐ नमो नारायणाय", ॐ रामाय नमः, 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' आदि ।मंत्र दीक्षा के समय मालवीय जी रेशमी दुपट्टा ओढ़कर एक-एक को मंत्र और उपदेशदेते थे, फिर उनसे उस मंत्र को जपते रहने का वचन लेते थे और अंत में अपनाआशीर्वाद देते थे ।उस समय उनकी दिव्य ज्योति देखने योग्य होती थी ।
सनातन धर्म की महिमा
मालवीय जी की मान्यता है कि सनातन धर्म पृथ्वी पर सबसे पुराना और पवित्रधर्म है ।यह वेद, स्मृति और पुराणों से संपुष्ट है ।यह हमें सिखाता है किइस जगत का सर्जन, पालन और संहार करने वाला एक सनातन, अनादि, सत-चित-आनन्दस्वरूप, पूर्ण प्रकाशमय, परब्रह्म परमात्मा है ।यह परमात्माअभेद रूप से मनुष्य से लेकर सभी जीवों, पशु-पक्षियों-वृक्षों-वनस्पतियों औरकीट पतंगों में समान रूप से वर्तमान है ।साथ ही वे जनता को यह बताना नहींभूलते थे कि धर्म-ग्रंथों में चारो वर्णों के गुण अलग-अलग वर्णित हैं औरसबके अलग-अलग लक्षण भी बताये गये हैं ।इन वचनों के अध्ययन से स्पष्ट होताहै कि वर्ण और जाति दोनों भिन्न-भिन्न बातें हैं ।यदि जन्म से ब्राह्मणहोने वाला भी अपने लिए निर्धारित धर्म-कर्म से रहित है, कुकर्म में रत है, तो वह शूद्र से भी नीचे गिर जाता है और शूद्र भी यदि अच्छे आचारों को ग्रहणकरे और ऊंचा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करे तो वह ब्राह्मण के समान सम्मानपाने योग्य है ।
इसदृष्टि से मालवीय जी सनातनधर्मी तो थे ही, सिद्धान्तनिष्ठ भी थे ।उस समय (मालवीय जी के जीवन काल में) कुछ लोग राजनीति के मंच पर उन्हें 'नरम' और 'रूढ़िवादी' सिद्ध करते थे, परन्तु उनकी यह बात तर्कसंगत नहीं थी ।वस्तुतःजहाँ नरम नीति या कट्टरवादिता से उद्देश्य कि प्राप्ति नहीं हो सकती थी, वहाँ वे अपनी नीति बदल दिया करते थे ।हिन्दू विश्वविद्यालय में जब 'प्रिंसऑफ वेल्स' को मालवीय जी ने माला पहनायी तो लोगों ने उनकी आलोचना की और 'गोलमेज सम्मलेन' के समय उन्हें विलायत जाते समय गंगाजल लेकर जाते हुएदेखकर बड़े बड़े धर्मध्वजी भी हतप्रभ हो गये ।महामना एक ओर जहाँ पुरातनधर्म-नियमों एवं आचार-विचार के परिपालक थे वहीँ देश, जाति तथा मानवता केसमक्ष कड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी लक्ष्मण रेखा को लचीला भीबना लेते थे ।मालवीय जी की यह नीति जीवन और कार्य-क्षेत्र के बीच सर्वत्रचलती रही ।मालवीय जी ने जब अनुभव किया कि हिन्दू धर्मावलम्बियों में बल कमहो रहा है, अपने सत्पुरुषों, शास्त्रों, साहित्य और अपनी कुल-परम्परा कीरीति-नीति का लोगों को विस्मरण हो रहा है, आधुनिक शिक्षा-पद्धति और विधर्मीविचारों एंव आचारों के प्रचार से लोग प्रभावित हो रहे हैं, हिन्दू बालकोंऔर बड़ों में स्वाभिमान का अभाव हो रहा है तथा पश्चिमी ज्ञान और संस्कृति कालोग गुणगान कर रहे हैं, तब उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से यह बतानाआरम्भ किया कि "हमारी सब परम्पराएँ अच्छी हैं, अब भी साधू-संत हैं, हमारेशास्त्र अच्छे हैं, हमारी परम्परा और रूढ़ियाँ भी अच्छी हैं ।यदि हम सेवक, साधक, शिष्य या विद्यार्थी बनकर इनकी जानकारी प्राप्त करें तो पाएँगे किहमारे यहाँ सब कुछ है ।हमारे शास्त्रों की घोषणा है "यन्नेहास्ति न ततक्वचित" अर्थात जो यहाँ नहीं है, वह कहीं भी नहीं है ।"
मालवीयजी जिस धर्म में आस्था रखते थे, उसका अपने संदर्भ में स्पष्टीकरण इसप्रकार दिया करते थे- "घर में हमारा ब्राह्मण धर्म है, परिवार में सनातनधर्म है,समाज में हिन्दू धर्म है, देश में स्वराज्य धर्म है और विश्व मेंमानव धर्म हैं ।" इस सूत्र के माध्यम से मालवीय जी ने स्वधर्म का पूरा मर्मस्पष्ट कर दिया है ।
गोरक्षा अभियान
मालवीय जी का गोरक्षाआन्दोलन से बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है ।कांग्रेस की महासभा के अस्तित्वमें आने के बाद ही उसके सम्मलेन के साथ-साथ प्रतिवर्ष गोरक्षा सम्मलेन भीहोने लगा था और उसमें मालवीय जी बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे थे ।महामना का 'गोरक्षा आन्दोलन' धार्मिक, आर्थिक और स्वास्थय, तीनों कारणों से प्रेरितथा ।इसी प्रेरणा के फलस्वरूप हरिद्वार के "गो वर्णाश्रम धर्म सभा कनखल" नेऔर फिर 'भारत धर्म महामण्डल' और 'सनातन धर्म सभाओं' ने गोरक्षा के लिएआन्दोलन छेड़ दिया ।मालवीय जी इनमें से अधिकांश गोरक्षा सम्मेलनों केसभापति रहे ।उन्होंने स्थान-स्थान पर गोशालाओं और पिंजरापोलों के लिए भूमिऔर भवन की व्यवस्था में अपना अविस्मरणीय योगदान किया ।साथ ही राजाओं औरजमींदारों से मिलकर गोचर भूमि के लिए उनसे जगह छुड़वाई और आर्थिक सहायता भीली ।उन दिनों मथुरा के स्वामी हासानन्द की गोरक्षक के रूप में बड़ी ख्यातिथी ।वे सदैव मुँह पर कालिख पोते रहते थे ।उनका कहना था कि "जब तक पूरेदेश में गोवध पूरी तरह बन्द नहीं हो जाता तब तक वे इसी प्रकार रहेंगे ।" महामना जी ने इनकी मथुरा में 'हासानन्द गोचर भूमि ट्रस्ट' की स्थापना मेंभरपूर सहायता की ।कांग्रेस की 'अखिल भारतीय गोरक्षा समिति' तो महात्मागांधी की संरक्षता में ही स्थापित हुई थी ।मालवीय जी की अध्यक्षता मेंप्रयाग में जो 'सनातन धर्म महासम्मेलन' हुआ, उसमें गोरक्षा के सम्बन्ध मेंकई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये ।इस सम्मलेन के अंत में, समस्तहिन्दुओं से अनुरोध किया गया कि गोवंश के वध से प्राप्त चमड़ा और चर्बी काउपयोग वे त्याग दें और स्वाभाविक मृत्यु से मृत पशुओं के चमड़े से बने जूतेकाम में लावें ।इसी प्रकार कपडा-निर्माताओं को निर्देश दिया गया कि वेकपडे में माडी के प्रयोग में चर्बी के स्थान पर अन्य वस्तुओं का उपयोग करें।
गोधन की रक्षा
'सनातन धर्म महासभा' ने इस बात पर बड़ीचिन्ता व्यक्त की कि बड़े शहरों में दूध बेचने वाले व्यक्ति गायों के साथबड़ी क्रूरता का व्यवहार करते हैं ।गाय जब युवास्था में होती है तभी उसेबंध्या बनाकर कसाई के हाथों बेच दिया जाता है ।गाय का दूध बछड़े के पीने सेकम न हो, इसलिए उसके बच्चे को ही मार दिया जाता है ।अतः पिंजरापोल केव्यवस्थापकों को ऐसी गायों का पता लगाकर उनको अपने संस्थान में ले लेनाचाहिए और इसका प्रयास करना चाहिए कि आर्थिक दृष्टि से वे उपयोगी हो सकें ।इसके साथ ही गोदुग्ध को अधिकाधिक लोकप्रिय बनाने का प्रयास भी किया जानाचाहिए । 'सनातन धर्म महासभा' ने एक "अखिल भारतवर्षीय गोरक्षा कोष" की भीस्थापना की थी ।साथ ही उक्त प्रस्ताव के साथ गोपालकों को परामर्श दिया गयाथा कि गोपाष्टमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाय ।गोरक्षा सम्बन्धी उपायोंएंव गोपूजा और गोकथा के आयोजनों के साथ-साथ गो-परिपालन सम्बन्धी साहित्य काप्रचार भी कियाजाय ।जमींदारों से निवेदन किया गया कि जिनकी जमींदारी केभीतर गाय-बैल के बाजार लगते हों, उनमें कसाई क्रय-विक्रय न करने पायें ।इसप्रकार मालवीय जी ने 'सनातन धर्म गोरक्षा समिति' के माध्यम से गोधन कीरक्षा और समृद्धि के लिए अनेकानेक उपाय किये ।मालवीय जी स्वंय ही गायों कोपालने और उनका दूध पीने का आग्रह लोगों से करते थे ।इनका गाय और बैलों केप्रति इतना अधिक प्रेम था कि यदि हल जोतते या बैलगाड़ी खींचते हुए बैल थकतेजैसे मालूम हो रहे होते तो उन्हें बिना चोट पहुँचाए कुछ समय के लिएकार्यमुक्त करने का उनका आग्रह होता था ।यदि किसी गाय या बैल को घाव होगये हों, वे बीमार हो गये हों या घायल हो गये हों तो वे स्वंय मरहम-पट्टीके लिए आगे बढ़ते थे और दूसरों को भी प्रेरित करते थे ।
साथही यह प्रस्ताव भी पारित किया गया कि 'गो सप्ताह' मनाये जाने कीअवधि मेंगोरक्षा हेतु दान माँगा जाय और जितनी रकम मिले उसे 'अखिल भारतीय गोरक्षाकोष' में जमा कराया जाय ।मालवीय जी केवल अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा केउपायों में ही तल्लीन नहीं थे, बल्कि स्वंय भी गोपालन करते थे ।उनके आवासके भीतर कई गायें एंव बछड़े-बछड़ी होते थे ।मालवीय जी गौ के बारे में कहाकरते थे, "गौ मानव-जाति की माता के समान उपकारी, बल और निरोगता देने वालीतथा मनुष्य जाति की आर्थिक उन्नति बढ़ाने वाली देवी है ।"
गोशालाओं की स्थापना
एक बार नासिक (महाराष्ट्र) में १५ मार्च सन १९३६ को आयोजित गोरक्षावह अवसर था सेठउसजिनका मुख्य काम होगा जनसामान्य के पास तक शुद्धतो यथार्थतः दुग्ध क्रान्ति आयेगी ।में चारों ओर दूध की कमी है, तो आप जानते ही हो कि गाय के दुध में जो गुण हैं, वह किसी अन्य पशु के दूधमें नहीं ।इस बात का समर्थन सभी डॉक्टर, हकीम, और अनुभवी व्यक्तिएक समय था जब देश में घी और दूध की नदियाँ बहतीथीं, पराक्रम और पुरुषार्थ था, कथा आज आश्चर्य के साथ सुनी जाती है ।जिस प्रकार लन्दन आदि बड़े-बड़े नगरोंउसी प्रकार बम्बई और कलकत्ते आदि
जी केवल ऐसा उपदेश मात्र ही नहीं देते थे, और काशी के आस-पास अनेक गोशालाओं की स्थापना में योगदान दिया था ।जौनपुर राजमार्ग पर वाराणसी से १ किलोमीटर पश्चिम पंचकोशी के रामेश्वरव्यास-बाग' मालवीय जीइस गोशाला में लगभग सौ'गूँगी माता' भी कहते थे), कसाई के हाथ बेचना महापाप है ।" उनका ह्रदय इतना दयालु था कि वे किसी भीछोटे-बड़े जीव की हिंसा से द्रवित हो जाते थे ।एक बार की बात है, वे जबमोटर से आजमगढ़ होते हुए गोरखपुर जा रहे थे, तो रास्ते में मोटर के पहिए सेदबकर एक गिलहरी का देहान्त हो गया ।गोरखपुर पहुँचने पर उन्होंने बिनाअन्न-जल ग्रहण किये प्रायश्चित रूप में जब तक 'ॐ नमः शिवाय' मन्त्र का कईबार जप नहीं कर लिया और गिलहरी की सद्गति के लिए भगवान शिव से प्रार्थनानहीं कर ली, तब तक उन्हें शान्ति नहीं मिली ।उसके बाद ही अन्य कार्यक्रमआरम्भ हो सके ।यहाँ तक कि जब गांधी जी के बीमार बछड़े को उसके कष्ट-निवारणके लिए गांधी जी के संकेत पर विष देकर मृत्यु को प्राप्त कराने का समाचारमालवीय जी को मिला, तो उन्होंने इसे अच्छा कार्य नहीं माना ।
तीर्थों का जीर्णोंद्धार
यह प्रायः सर्वविदित है कि मथुरा की कृष्ण-जन्म भूमि पर मुसलमानों नेउसकी मुक्ति के लिए मालवीय जी ने सरकार के विरुद्धमुकदमा लड़ा और उन्हें सफलता भी मिली ।भी दिया गया ।श्रम से वहाँ एक भव्य कृष्ण-मन्दिर का निर्माण कराया गया, जी की कीर्ति-पताका फहरा रहा है ।
प्रकार विश्वविद्यालय की स्थापना से पूर्व मालवीय जी ने काशी केदुर्गाकुण्ड के पास स्थित 'बनकटी हनुमान जी' वहाँ आज भी मालवीय जी के द्वारा हस्ताक्षरित शिला-लेख लगा हुआ है ।जी ने ही उस मंदिर को 'नाम दिया था ।इस पुस्तक का नाम है- "The Ch।" इसी प्रकार विश्वविद्यालय के तथा आस-पास केरहा है ।जाएँ और वहाँ एक अलग से विभाग खोलकर २० लाख रुपये की व्यवस्था कर दी जाएगी।" यह बात सन १९२४ की है ।इस महनीय संरक्षण के लिए आचार्य विश्वबंधु नेधन्यवाद एंव साधुवाद दिया और यह कार्य पूर्ण हुआ ।मालवीय जी पुराणों केअस्त-व्यस्त संस्करणों को और उनके अस्पष्ट से अनुवादों को देखकर खिन्न थे ।अतः वे चाहते थे कि समूचे स्मृति वांग्मय, पुराणों और धर्मशास्त्रों कोसम्पादित करके नये संस्करण निकाले जायँ ।मंदिर और घाट आदि बनवाने केसाथ-साथ इस कार्य को भी उन्होंने आवश्यक माना ।इस योजना के लिए भी मालवीयजी ने यथासम्भव आर्थिक सहायता और मार्गदर्शन प्रदान किया ।एक बारकालाकाँकर रियासत के पूर्व राजकुमार कुँअर सुरेश सिंह स्वतन्त्रता आन्दोलनके क्रम रावलपिण्डी में जब मालवीय जी के साथ थे और उनके जेल जाने की बारीआई, तो मालवीय जी ने उन्हें अत्यन्त मधुर राग में गाकर 'सूरसागर' के कुछ पदसुनाये और आदेश दिया "अब तो तुम जेल जा रहे हो, सूरदास जी के सुन्दर पदोंका एक अच्छा संकलन कर डालो ।जेल में ऐसे कार्यों के लिए अच्छा अवसर मिलताहै ।" उन्होंने महामना की आज्ञा शिरोधार्य की और उस संकलन को पूरा किया ।
गंगा नहर और बाँध पर विवाद
सरकारी नहर विभाग ने हरिद्वार में गंगा के प्रवाह को कुछ रोककर नहरनिकालने का प्रयत्न किया, परन्तु गंगा का इतना जल नहर के लिए दे दिया गयाकि जिससे प्रयाग और काशी जैसे स्थानों में जल का अभाव सा हो गया ।अतः सन१९१६ ई० में पुनः अविच्छिन्न धारा के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, क्योंकिअंग्रेज सरकार ने अपना वादा पूरा नहीं किया था ।उधर अंग्रेजों का प्रयासथा कि लगभग १००० मील तक फैले नहरों के जल को पर्याप्त जल देना है और कुछपानी हिन्दुओं के धार्मिक आयोजन के निमित्त भी छोड़ना है, लेकिन इनका 'कुछपानी' प्रत्यक्षतः अत्यल्प रूप में ही था ।
"गंगानहर" के साथ दूसरी कठिनाई यह थी कि उस नहर को पार करने के लिएन कोई पुलथा न घाट ।अतः यह प्रश्न स्नानार्थियों और गंगा नहर के आर-पार जाने वालोंके लिए बड़ा ही कष्टकारक था ।लोगों की इच्छा थी कि गंगा में इतना पानीअवश्य होना चाहिए कि कुंभादि पर्वों पर हजारों-लाखों मनुष्य स्नान कर सकेंऔर लोगों को शुद्ध जल मिल सके ।इसलिए पहला प्रश्न तो यह था कि गंगा नदीमें आधन्त इतना शुद्ध जल होना चाहिए कि प्रयाग, काशी में गंगा में जल काअभाव न हो ।इस समस्या के समाधान के लिए ग्यारह अप्रैल सन १९३३ को "गंगासभा" और नहर विभाग के अधिकारियों की एक बैठक हुई ।इसमें मालवीय जी भीउपस्थित थे । "गंगा सभा" की शिकायत थी कि सरकार ने १९१६ समझौते का पालननहीं किया, जिससे हर की पौढ़ी पर पर्याप्त जल नहीं पहुँच रहा है और सर्दी केदिनों में तो जल की मात्रा और भी कम हो जाती है ।चूँकि मालवीय जी कीअध्यक्षता में गंगा सम्बंधी समझौते हुए थे जो मुख्यतः गंगा-जल के अविरलप्रवाह और उसकी मात्रा के सम्बन्ध में थे ।अतः उन्हें इस विषय में विशेषसक्रियता दिखानी पड़ी ।
हरकी पौढ़ी
अप्रैल सन १९२७ को हरिद्वारमें कुम्भ होने वाला था । "गंगा सभा" के बहुत अनुरोध पर भी मेले केअधिकारी नहीं माने और हरकी पौढ़ी पर उन्होंने एक पुलिया बना ली, जिस परअधिकारी लोग और अंग्रेज जूता पहन कर आते-जाते थे ।मालवीय जी ने अधिकारियोंसे बातचीत की, परन्तु वे पुल हटाने को तैयार नहीं थे ।मालवीय जी की इसधमकी का भी कुछ असर नहीं हुआ कि 'यदि पुल नहीं तोडा जाएगा तो सत्याग्रहहोगा ।' साथ ही मालवीय जी ने १३०० शब्दों का एक लम्बा-चौड़ा तार भी गवर्नरके यहाँ भेजा ।२६ नवंबर सन १९२६ ई० की सभा के सभापति और चार अन्य सदस्योंने गवर्नर साहब से भेंट की ।वे उनके निवेदन पर मात्र इतना ही राजी हुए कि "सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त पुल पर कोई नहीं जा सकेगा और न कोई यहाँ परसिगरेट पीयेगा और न थुकेगा ।" चमड़े के जूते पहनकर भी पुल के ऊपर जाने कीमनाही हो गयी ।अफसरों के प्रयोग के लिए कपडे से बना जूता देने का प्रस्तावभी गवर्नर श्री कृष्टि महोदय ने स्वीकार कर लिया ।परन्तु 'इंस्पेक्टरजनरल ऑफ़ पुलिस' ने इस आदेश को स्वीकार नहीं किया और कपडे के जूते पहननेवाली बात भी टाल दी गयी ।जनता के मत को जानबूझ कर अस्वीकार करने की हद होगयी और हिन्दुओं में गहरी उत्तेजना फ़ैल गयी ।मालवीय जी ने इसके विरुद्धअपनी आपत्ति लिखित रूप में दी और कहा कि "अहिन्दू और सरकारी कर्मचारी चमड़ेका जूता पहनकर पुल पर बैठते हैं और उसी पुल के नीचे महात्मा जन, यात्री,स्त्री और पुरुष स्नान करते हैं ।ऊपर बैठे हुए लोग स्नान करने वालीअर्द्धनग्न स्त्रियों को देखते और आपत्तिजनक शब्दों का उच्चारण करते हैं, इसलिए गवर्नर महोदय को चाहिए कि वे तत्काल कोई कारगर कदम उठाकर अपमानमूलकपरिस्थिति पैदा होने से बचाएँ ।" मालवीय जी अपने पत्र के माध्यम से कृष्टिसाहब को यह भी बताया कि अगर इस पुल को काम में लाया जाएगा तो यात्रियों औरअफसरों में मुठभेड़ भी हो जाएगी ।उनके इस पत्र का अन्ततः परिणाम यह हुआ किगवर्नर ने मेले के अधिकारियों को पुल का प्रयोग न करने का निर्देश दे दिया ।
हिन्दुत्व के युगपुरुष
मालवीयजी का सेवा-भाव तथा 'स्वराज' भी स्वधर्म से अलग नहीं था, बल्कि उसीका अंग था ।हिन्दू धर्म के संस्कार एंव पुनर्निर्माण के लिए उनके ह्रदयमें बड़ी आकुलता थी ।उन्होंने बचपन में ही प्रयाग में "हिन्दू समाज" नाम कीसंस्था खोली थी ।इसका उद्देश्य यह था कि सरकारी संरक्षण में ईसाईमिशनरियों द्वारा किये जा रहे हिन्दू धर्म-परिवर्तन एंव धर्म-संस्कृति केउपहास के विरुद्ध हिन्दुओं में सक्रियता लाई जाय ।इस उद्देश्य से उन्होंनेअपने गुरु पंडित आदित्यराम भटटाचार्य कि अध्यक्षता में सन 1880 में उक्तसंगठन का श्रीगणेश किया ।यह उनका सामाजिक और राजनीतिक संगठन का पहलाप्रयास था ।इसके माध्यम से चार-पाँच वर्षों तक उन्होंने हिन्दू समाज मेंव्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध हिन्दू समुदायमें जागरण और धर्म तथा संस्कृति के वास्तविक स्वरुप के ज्ञान केप्रचार-प्रसार का अभियान चलाया ।इलाहाबाद मण्डल में उनके द्वारा 'हिन्दूसमाज' की अनेक शाखाएँ खोली गईं और उसकी अनेक सभाओं का आयोजन भी किया गया ।इस सभी में मालवीय जी द्वारा मार्मिक भाषण दिए गये ।
हिन्दू महासभा
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, मालवीय जी का 'हिन्दू महासभा' से भीघनिष्ट सम्बन्ध था ।इस महासभा कि स्थापना यद्धपि १९०५ में पंजाब में हुईथी, परन्तु मालवीय जी सन १९२० में इससे जुड़े और उसके बाद ही यह महासभादेशव्यापी हो गयी ।सन १९२२ में मालवीय जी ने 'गया कांग्रेस अधिवेशन' केसमय ही 'हिन्दू महासभा' सम्मलेन की अध्यक्षता स्वीकार की ।परिणाम यह हुआकि 'हिन्दू महासभा' संकीर्ण विचारों से ऊपर उठकर एक उदार धार्मिक संगठन बनसकी ।इस सम्मलेन के माध्यम से मालवीय जी ने हिन्दुओं को सन्देश दिया कि "आप पहले भारतीय हैं फिर हिन्दू ।अतः आपका सर्वप्रथम कर्तव्य यह है किगाँव-गाँव में सभाएँ करके छुआछूत मिटाने और अछूतों की अवस्था सुधारने काप्रयत्न करें ।" अगस्त सन १९२३ में महामना के सभापतित्व में हिन्दू महासभाका सातवाँ अधिवेशन काशी में व्यापक स्तर पर आयोजित हुआ, जिसमें प्रायः सभीसम्प्रदायों सहित पारसियों ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया ।इस सभा केमाध्यम से मालवीय जी ने हिन्दू समुदाय की आंतरिक दुर्बलताओं को दूर करकेठोस रूप से संगठित होने की आवश्यकता पर बल दिया ।इस क्रम में जिन समस्याओंऔर कर्तव्यों पर विशेष जोर दिया गया, वह था छुआछूत-निवारण, हरिजनों कीशुद्धि की समस्या, स्त्रियों की रक्षा एंव उनकी शिक्षा, दहेज़-प्रथा, विधवा-विवाह की स्वीकृति एंव धर्मांतरण रोकना आदि ।इस प्रकार सन १९२२ से१९३५ तक महामना ने हिन्दू महासभा का नेतृत्व किया ।यद्धपि वे इसकेप्रत्येक सम्मलेन में भाग लेते रहे, परन्तु प्रयाग, कलकत्ता, दिल्ली, पटना, जबलपुर, बेलगाँव आदि के अधिवेशन विशेष उंपलब्धियों से पूर्ण रहे ।
अखिल भारतीय सेवा समिति
इसी प्रकार "सनातन धर्म महासभा", "गौ सेवा संघ" तथा "गौरक्षा सम्मलेन" केमाध्यम से उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषतः सनातन धर्म को अमूल्य योगदानदिया ।साथ ही सन १९१४ में उन्होंने प्रयाग में "अखिल भारतीय सेवा समिति"की भी स्थापना की ।इस संगठन का मुख्य उद्देश्य था- समाज में परस्पर सहयोगकी भावना उत्पन्न करना, देश की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण, समाज के उपेक्षित एंव असहाय प्राणियों की सेवा एंव सहायता, समाज मेंशिक्षा, स्वछता एंव स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रमों का विस्तार करना, अत्यंत पिछड़े समाज तथा आदिवासी जातियों के जीवन में सुधार लाने का प्रयासकरना और उन्हें चिकित्सकीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना, विधवाश्रम, बाल सुधारगृह, परित्यक्ताश्रम, कुष्ठ आश्रम, अंध आश्रम तथा वृद्धाश्रम आदि का संचालनकरना; मेला, अकाल, बाढ़ औरमहामारी के समय जनता के सेवा के कार्यक्रमों काआयोजन करना; एवं इसी प्रकार के उद्देश्यों से स्थापित अन्य संगठनों कोसहयोग देना ।
की ओर से बालकों का एक संगठन भी तैयार किया गया था, इससमर्पित युवा कार्यकर्ता थे ।एम्बुलेंस एंव आपात चिकित्सा सेवा की भी व्यवस्था की गयी थी ।इस समिति ने एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया, जिसका नाम था-'।लॉज एंव व्यायाम-गृह भी संचालितइसके द्वारा स्थापित आयुर्वेदिक फार्मेसी में उच्च कोटि कीइनकी माँग पूरेइन्हींहरिजन सेवा संघ', 'ऑफ इंडिया सोसाइटी', 'आदि और भी अनेक संस्थाएँ 'समिति' आपकी सहमति हो तो संघ के लियेमैं कोष इकठा कर दूँगा ।" इस पर डॉक्टर जी ने तुरन्त उत्तर दिया- "पण्डितजी! मुझे पैसे की बड़ी चिन्ता नहीं है ।मुझे तो आप जैसों के आशीर्वाद कीआवश्यकता है ।" डॉक्टर जी के इस उत्तर से प्रसन्न होकर मालवीय जी ने कहा, "मैं जहाँ-जाऊँगा, आपकी इस विशेषता का उल्लेख अवश्य करूँगा ।" नागपुर में१९२९ में सम्पन्न 'गुरुपूजनोत्सव' के अवसर पर डॉक्टर जी ने इसका उल्लेखकिया- "मालवीय जी जब संघ स्थान पर आये तो उन्होंने यह उदगार व्यक्त किया कि "अन्य संस्थाओं के पास बड़ी-बड़ी इमारतें और बहुत सा कोष रहता है, परतुम्हारे संघ में मनुष्य बल अच्छा है, यह देखकर मुझे आनन्द होता है ।"
देश के अनेक श्रेष्ठ व्यक्तियों के पास डॉक्टर हेडगेवार जी स्वंय गये तथाहिन्दू संगठन के विषय में विचार-विमर्श किया, किन्तु महामना मालवीय जी काप्रखर हिन्दू भाव उन्हें स्वंय ही डॉक्टर हेडगेवार तक खींच लाया ।विधि काऐसा विधान था कि श्री गुरूजी (माधवराव सदाशिव गोलवलकर) तथा श्री भैया जीदाणी (मूलनाम प्रभाकर बलवंत दाणी), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इन दोपूर्व छात्रों ने संघ के सर्वोच्च पद (सरसंघचालक तथा सरकार्यवाह) केदायित्व का निर्वहन किया ।श्री गुरु जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सन१९२४ से सन १९२८ तक विद्यार्थी रहे और यहाँ से बी.एससी. तथा एम.एससी. (प्राणिशास्त्र) की उपाधियाँ अर्जित किया ।वे इसी विश्वविद्यालय में सन१९३१-३३ के बीच प्राध्यापक भी रहे ।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संघ भवन
श्री राकेश सिन्हा ने लिखा है कि "मालवीय जी संघ के कुछ कार्यक्रमों मेंभी सम्मिलित हुए और उन्होंने संघ की अप्रत्यक्ष मदद की ।काशी हिन्दूविश्वविद्यालय शाखा के स्वंयसेवक प्रायः पूज्य मालवीय जी के पास जाते, उनसेविचार-विमर्श करते और उनका स्नेहिल आशीर्वाद प्राप्त करते थे ।" अनिल बरनरे के मत से "राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का प्रमुख उद्देश्य हिंदूवादीनवजागरण में नवीन स्फूर्ति का संचरण करना तथा एक समन्वित राष्ट्रीय हिन्दूचेतना का विकास करना था ।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल मेंभी यही उद्देश्य निहित था ।इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तथाकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय, दोनों हिन्दू आत्मसम्मान तथा राष्ट्रवाद कीपुनः स्थापना के पर्याय थे ।"
मालवीयजी स्वंयसेवकों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने विश्वविद्यालय परिसरमें ही संघभवन के निर्माण की अनुमति दे दी ।इस प्रसंग में प्रोफेसरराजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) अपने संस्मरण में कहते हैं, "महामना ने संघ केकार्य के लिए एक छोटा सा भवन बनाने का आदेश उस समय के प्रतिकुलपति (१९४०)राजा ज्वाला प्रसाद को दिया ।संघ के स्वंयसेवकों ने भी दो दिनों में कुछराशि एकत्रित कर विश्वविद्यालय को अर्पित की ।उसके फलस्वरूप ही "संघस्टेडियम" नाम से लॉ कॉलेज (वर्तमान विधि संकाय) के पास एक छोटा सा भवन संघको प्राप्त हुआ ।" विश्वविद्यालय के अभिलेखों में यह 'आर.एस.एस.आर्मरी' केरूप में भी उल्लिखित है ।अमेरिकी लेखिका श्रीमती ली रेनोल्ड लिखती हैं किसन १९३७-३८ ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघके दो कमरों के एक भवन को निर्माण की अनुमति दे दी ।विश्वविद्यालय ने इसकेलिए कोई धन नहीं दिया ।काशी के श्री सद्गोपाल के अनुसार मालवीय जी द्वारादी गयी भूमि पर दो कक्ष तथा बीच में वरामदा निर्मित हुआ, सामने विशाल संघस्थान था ।बरामदे में मालवीय जी की मूर्ति लगायी गयी ।लागत आई एक हजारपचास रुपये, जिसे विश्वविद्यालय के स्वंयसेवकों द्वारा एकत्रित धनराशि सेदिया गया ।आपातकाल के दौरान यह भवन २६ अप्रैल १९७६ की रात्रि में गिरादिया गयाऔर रात में ही उसका मलबा भी हटा दिया गया ।प्रातः वहाँ घास लगालॉन देखने को मिला ।स्वंयसेवकों का ह्रदय मर्माहत हो उठा ।
अन्य सुधार कार्य
मालवीय जी ने जन्मना जाति की उच्चता या नीचता के स्थान पर गुण एवं कर्म परइसके आगे जाति-पाँति नहीं मानता ।" प्रथा का तो कटु विरोध किया ही, अंतर्जातीय विवाह, बलि-प्रथा और पर्दा-प्रथा आदि के विरुद्ध जमकर आन्दोलनबाल विवाह को वे नरक तुल्य मानते थे और कहते थे कि यदि कन्या की कमशादी-सम्बन्ध का वे समर्थन करते थे ।उन्होंने स्वंय अपने पुत्र औरजबकि वे स्वंयमहिलाओं के सम्बन्ध में उनकी मान्यता थी कि देश की समस्तताकि किसी भीअपनी इसी इच्छा से प्रेरित होकर
भी वेद का अध्ययन-अध्यापन कर सकती है- इसके वे बड़े समर्थक थे ।सन १९०७ केअपने 'नामक पत्र में उन्होंने लिखा था- "जातीय जीवन केपुनरुत्थान के लिए स्त्री-शिक्षा के पवित्र कार्य को उत्साह के साथ कियामालवीय जी अपनाअनाथाः विधवाः रक्ष्या, मंदिराणी तथा च गौ । धर्म संगठनं कृत्वा, देंय दानं च तद्धितम् ।। स्त्रीणां समादरः कार्यो, दुखितेषु दया तथा । अहिंसका न हंतव्या, आततायी वधाहर्ण: ।।
आचार-विचार के मानक
मालवीय जी में बचपन से ही धर्म-सेवा का प्रबल भाव था ।उनका स्वराज भीस्वधर्म से अलग नहीं था ।हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म को संस्कारयुक्त करनेतथा उसका पुनर्निर्माण करने के लिए उनके ह्रदय में बड़ी विकलता थी ।भारतपुनः धर्मगुरु बने तथा विश्वगुरु के पद पर आसीन हो, यह उनकी कामना थी ।इसलिए कांग्रेस द्वारा चलाये गए असहयोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद उन्होंनेहिन्दू संगठन का आन्दोलन प्रारम्भ किया, जिसके फलस्वरूप हिन्दूधर्म-सुधारकी अनेकानेक शाखाएँ खुल गयीं ।हिन्दू धर्म के विविध धार्मिकआयोजनों में सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए उन्होंने 'महावीर दल' कीस्थापना की ।काशी में हुए सातवें 'हिन्दू महासभा' के अधिवेशन में 'हिन्दू' शब्द को नए ढंग से परिभाषित किया गया, अर्थात "भारत में स्थापित किसी भीधर्म का अनुयायी हिन्दू है ।" इस परिभाषा ने भारतीय संस्कृति की एकता कासन्देश दिया ।यहाँ तक कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की ईंटों पर और नींवमें रखे गए धातु-पत्रों पर भी 'हिन्दू' शब्द अंकित है ।विश्व के इसख्यातिलब्ध विश्वविद्यालय को इस आशय के साथ विकसित किया गया है कि इसकेमाध्यम से मालवीय जी और हिन्दू धर्म- दोनों के प्रतिबिम्ब की झलक मिल सके ।महामना जी ने अपने आचार-विचार के जो मानक निश्चित किये, उसमें कई ऐसीबातें थीं, जो सनातन रूप से प्रासंगिक रहीं हैं, जैसे भिक्षा का अन्न खानाअच्छी बात नहीं है, सभी कार्य धर्म और सेवा भावना से करना चाहिए, 'हारिए नहिम्मत बिसारिए न हरिनाम', किसी की जीविका का हरण महापाप है, सदाचारपांडित्य से ऊपर है, विपत्ति मुक्ति के लिए 'गजेन्द्र-मोक्ष' का पाठ सबसेउत्तम है, जीव हिंसा से बचने की सदा चेष्टा करनी चाहिए और धर्माचार कादृढ़ता से पालन करना चाहिए ।
भारत भूमि
मालवीय जी अपने धार्मिकऔर समाजोत्थान से जुडी सभाओं में दिए गए अपने प्रवचनों में यह बताना नहींभूलते थे कि यह भारतवर्ष बड़ा पवित्र देश है ।धन और सुख का प्रदाता यह देशसभी देशों में उत्तम है ।इस देश की उन्नति के कामों में देशभक्त पारसी, मुसलमान, ईसाई और यहूदियों को हिन्दुओं के साथ मिलकर काम करना चाहिए ।यहदेश इतना पवित्र है कि देवता लोग भी यहाँ जन्म लेने की कामना करते हैं ।यहाँ के लोग धन्य हैं ।इस भारतभूमि पर जन्म लेने से मनुष्य स्वर का सुख औरमोक्ष, दोनों प्राप्त कर सकता है ।यह हमारी मातृ और पितृ भूमि है ।यहराम, कृष्ण, बुद्ध आदि देव-पुरुषों, महात्माओं, ब्रहमऋषियों और राजऋषियों, धर्मवीरों, शूरवीरों, दानवीरों और स्वतंत्रता के प्रेमी देशभक्तों कीउज्जवल कर्मभूमि है ।इस देश में रहते हुए हमें भगवान के प्रति परम भक्तिका भाव रखना चाहिए और धन से भी इसकी सेवा करनी चाहिए ।इस धर्म के सभीमाननेवालों के लिए भगवान का वचन है- "चातुवर्ण्य मया सृष्टा गुण धर्मविभागश: ।" अर्थात गुण और कर्म के विभाग से मेरे द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार वर्ण उपजाये गए हैं ।साथ ही उनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को साधने में सहायक मनुष्य काजीवन पवित्र बनाने वालेब्रह्मचर्य, गृहस्थ, बानप्रस्थ और संन्यास, ये चारआश्रम स्थापित हैं ।सब धर्मों से श्रेष्ठ इसी धर्म को 'हिन्दू धर्म' कहतेहैं ।जो लोग सारे संसार का उपकार चाहते हैं, उनको उचित है कि इस धर्म कीरक्षा करें ।