Mahamana Madan Mohan Malaviya

Mahamana Madan Mohan Malaviya

धर्मपरायण महामना

 

प्रो. देवेन्द्र प्रताप सिंह तथा प्रो. श्यामसुन्दर शुक्ल

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

 


सनातन धर्म के पुरोधा


महामना के ब्रह्मतेज से युक्त व्यक्तित्व, चन्दनचर्चित ललाट, गौर प्रदीप्त वर्ण, गले में फेरा देकर लिपटा हुआ और घुटनों तक दोनों ओर लटकता हुआ उत्तरीय आदि लक्षण उनके व्यक्तित्व को इतना आकर्षक बना देते थे कि देखनेवालों में उनके प्रति अथाह आकर्षण और सम्मान का भाव जागृत होता था । साथ ही उनके गौरवमय दिव्य रूप के साथ उनकी मोहक, पवित्र और प्रभावशाली मधुर वाणी श्रोताओं को चुम्बकीय शक्ति की भाँति आकर्षित करती थी वे साक्षात करुणामूर्ति थे । विशेषतः दीन छात्रों के प्रति उनमें अगाध करुणा, उदारता और स्नेह की छाया वर्तमान थी । उनके इन्हीं भावों के फलस्वरूप न जाने कितने अकिंचन छात्र उनके विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करके भारत में तथा भारत के बाहर के देशों में अनेक गौरवमय पदों पर अत्यंत निष्ठा के साथ कार्य करके भारत और स्वंय अपना मस्तक ऊंचा कर सके । उनका धैर्य पृथ्वी के समान अचल था । यदि कोई अपनी करुण गाथा उनके आगे सुनाने लगता तो वे नेत्रों में जल भरकर चुपचाप उसे सुनते रहते और कोमल शब्दों में सांत्वना देकर उसके विपत्ति-हरण के लिए अपना उदार हाथ बढ़ा देते ।

 

अपने आचार-विचार में सात्विक एंव सनातनधर्मी होने के नाते वे स्नान, संध्या, पूजा-पाठ तथा नित्यकर्म में बड़े नियमित थे । प्रतिदिन संध्यावंदन के बाद वे 'भागवत' और 'बाल्मीकि रामायण' का पाठ करते थे । वे मन, वचन और कर्म से किसी को हानि पहुँचाने की कल्पना भी नहीं करते थे । धार्मिक ग्रंथों और दार्शनिक सिद्धांतों में उनकी गहरी पैठ थी । सत्य के प्रति उनका आग्रह सदैव बना रहा । सत्य की रक्षा के लिए उन्होंने न कभी संकोच किया और न किसी का भय माना । वे कोई ऐसी बात मानने के लिए प्रस्तुत नहीं होते थे, जो परम्परागत शास्त्रीय मर्यादा के प्रतिकूल होती थी। अपने रहन-सहन में वे बड़े सादे थे, किन्तु साथ ही पूर्ण कलात्मक भी थे । अपने चंदन के टीके को गोल करने तथा अपने उत्तरीय को चढ़ाकर बाँधने में चाहे जितना समय लगता, वे चिन्ता न करते । उनकी गति, हँसी, बोल-चाल, भाव-भंगिमा, सबमें विभिन्न प्रक़र की शोभा, सुन्दरता और कलात्मकता रहती थी । हड़बड़ी का भाव तो उनमें नाम मात्र भी नहीं था । बिना पूरी तरह सजे-धजे वे बाहरी बैठक में भी नहीं आते थे । प्रातः काल से लेकर रात्रि तक उनके यहाँ आने-जाने वालों की भीड़ लगी रहती थी, पर वे कभी थकते नहीं थे । सबकी बात सुनते थे और यथायोग्य सहायता करते थे । उनके द्वार पर सबकी पैठ थी । उनके यहाँ गोपनीयता का कोई स्थान नहीं था यहाँ तक कि  अस्वस्थता की दशा में भी वे लोगों को आने-जाने और मिलने से मना नहीं करते थे । एक बार जब उनके कनिष्ठ पुत्र स्वर्गीय गोविन्द मालवीय ने उनसे ऐसा न करने का आग्रह किया तो उन्होंने उनसे कहा- "मैं जनता का सेवक हूँ और जनता को यह अधिकार है कि वे जब चाहे अपने सेवक से सेवा ले ।"


वे आचार में सात्विक और रूढ़िवादी  होते हुए भी विचार में बड़े उदार थे । इसीलिए उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भारतीय विद्याओं के साथ-साथ विदेशी विद्याओं के अध्ययन की भी योजना बनायीं और उसे कार्यान्वित भी किया उनका देश-प्रेम अखण्ड और रचनात्मक था । उन्होंने राष्ट्रीयता की शिक्षा के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की और स्वदेशी के प्रचार के लिए प्रयाग में कुटीर उद्योगों की स्थापना करने का मार्ग भी प्रशस्त किया । गांधी जी के हरिजन आन्दोलन के क्रम में उनका यह प्रस्ताव था 'कि हरिजनों के लिए नये मंदिरों और कुओं का निर्माण कराया जाय और उनके लिए शिक्षा की  विशेष व्यवस्था हो ।" उन्होंने स्वंय हरिजनों को मंत्र-दीक्षा देने की परिपाटी चलाई । पिछले कई शताब्दियों में इनकी व्यापक लोक-परिधियों में कार्य करनेवाला, उज्जवल चरित्रवाला, प्रतिभाशाली और सर्वमान्य लोकनायक कोई दूसरा नहीं हुआ । उन्होंने छात्रों का पुत्रवत पालन किया । खोज-खोज कर विद्वानों को लाकर विश्वविद्यालय में उन्होंने उनको नियुक्त किया । इस प्रकार सभी कसौटियों पर कसे जाने पर केवल एक मालवीय जी ही ऐसे महापुरुष दिखाई पड़ते हैं, जिन पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता ।


श्रीमदभागवत प्रेम

 

मालवीय जी स्वधर्म (हिन्दू धर्म) को स्वमाता के समान मानते थे । उनके जीवन और कार्यों का कोई भी वर्णन अधूरा ही होगा, जब तक हिन्दू धर्म में उनकी आस्था का पूरा विवरण समाविष्ट न किया जाये । उनके समस्त कार्य-कलाप, चाहे वे राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक या कुछ भी रहे हों, सब धर्म पर ही आधारित थे । वे धर्म को मानव जीवन की एक ऐसी आवश्यकता मानते थे, जिसके बिना उसके मनुष्यत्व पर ही प्रश्न-चिन्ह लग जाता है । वे मानते थे कि हिन्दू धर्म सार्वभौम धर्म है । किसी पंथ या सम्प्रदाय की सीमा में वे सीमित नहीं है, इसलिए उनके धार्मिक भाव को "भागवत भाव" कहना अधिक उपयुक्त है ।

 

मालवीय जी का यह "भागवत भाव" उनके स्वभागवत "श्रीमद्भागवत" प्रेम पर आधारित था । उन्होंने भागवत को सच्चे अर्थों में लोकप्रिय बनाया और उसके धार्मिक निष्कर्षों के अनुसार अपने आदर्शों का निर्माण किया । वे यथार्थतः एक सदाचरनिष्ठ महनीय व्यक्ति थे और भागवत की काव्य-सुषमा के प्रशंसक थे । भागवत के सैंकड़ों श्लोक उनकी जिह्वा पर थे । भागवत की कथा कहते हुए वे कथा के मार्मिक प्रसगों में खो जाते थे और कई बार उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकलती थी । विशेषतः 'गजेन्द्र-मोक्ष', द्रौपदी की कथा, कुन्ती की कथा, विदुला की कथा और इसी प्रकार की अनु करुण कथाओं में उनकी आँखों से झर-झर आँसू बह जाया करते थे । उनका उच्चारण इतना शुद्ध था कि जैसे वैदिक ब्राह्मणों द्वारा वैदिक सूक्तों का सस्वर पाठ हो रहा हो । कथा कहते हुए वो इतने तल्लीन हो जाते थे कि कई बार उनके गदगद कंठ से स्वर ही नहीं उभरते थे वे भाव की अतल गहराइयों में खो जाते थे और श्रोता भी भाव विभोर हो जाते थे । वे प्रायः कहा करते थे, "भागवत का एक-एक श्लोक वेद का सार है और भक्ति का अनन्त स्रोत है । अतः सभी को इसका पाठ करना चाहिए । क्योंकि इससे जीवन में कुछ भी अलभ्य नहीं रहता ।" मालवीय जी भागवत की धार्मिक कथाओं को सुनने और सुनाने के लिए सदैव उत्सुक रहते थे । जब कभी काशी के दशाश्वमेध घाट पर या किसी अन्य स्थान पर किसी विद्वान का कथा-प्रवचन आयोजित होता था तो महामना जी उसमें सम्मिलित होने के लिए विश्वविद्यालय से चले आते थे ।

 

मालवीय जी की एकादशी तिथि को होने वाले नियमित कथा-प्रवचनों में विश्वविद्यालय के और नगर के बहुत से मौलाना भी आते थे । उनकी कथा अत्यन्त रोचक हुआ करती थी । उसमें आने वाले श्रोताओं में से किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं होता था और साथ ही महामना  जी कथा-विषयक प्रवचन के लिए किसी स्थान विशेष के भी आग्रही नहीं थे । कहीं भी वे कथा सुना सकते थे यहाँ तक कि सन १९२९ दिल्ली में मालवीय जी ने एक मौलाना को भागवत की  कथा को सुनाकर सबको चकित कर दिया था । यह हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए एक आश्चर्यजनक कार्य था । भारतीय वाङ्मय में 'भागवत' सबसे आसान और सबसे कठिन ग्रन्थ माना जाता है । उसके विषय में यह कथन सर्वविदित है, "विद्यावतां भागवते परीक्षा" । इसमें अनेक ऐसे प्रकरण हैं जो कि संस्कृत का साधारण ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की समझ से परे हैं । प्रत्येक विषम या अवरोधक परिस्थितियों में भी महामना जी का उनको परास्त करने का ये अमोघ अस्त्र था । एक बार जब हरिद्वार के ब्रह्मकुंड पर कथा, भजन-कीर्तन आदि सुनाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तो वहाँ के पण्डों ने इस आदेश का जमकर विरोध किया । सैंकड़ों पण्डे जेल गये । अन्त में पण्डों के निमंत्रण पर महामना जी हरिद्वार गये । सांयकाल की उनकी कथा में पचास हजार से अधिक भीड़ थी । ऐसा लगता था कि जैसे व्यासपुत्र शुकदेव स्वंय अवतरित होकर कथा कह रहे हों । इसका प्रभाव यह हुआ कि वह प्रतिबन्ध उठा लिया गया । तब मालवीय जी ने सरकार को धन्यवाद देते हुए जनता को सन्देश दिया कि "धर्मों रक्षति रक्षितः" अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है धर्म भी उसकी रक्षा करता है । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित मालवीय भवन के भीतरी बरामदे में, जहाँ आज महामना जी की मूर्ति स्थापित है, वहाँ बैठकर महामना जी भागवत का पारायण किया करते थे । इसलिए उस भवन का वह कक्ष आज भी भागवतमय प्रतीत होता है

 

सनातन धर्म का परिपालन

 

कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, अतः इस विषय में उनकी यह धारणा थी कि जिस यह भावना उनके इस सोच को चरितार्थ करती है कि "सिर जाए तो जाए मेरा धर्म न बल्कि उसके प्रति कुछ लोग उन पर अपने जीवन-काल में उन्होंने कई मस्जिदों का भी पुनरुद्धार कराया था । बार जब वे काशी के बाहर थे तो यहाँ साम्प्रदायिक दंगा प्रारम्भ हो गया । सामने शांति का प्रस्ताव रखा । व्यक्तियों को दण्ड दिलाने का आश्वासन दिया । कुछ लोग उन्हें एक रूढ़िवादी परन्तु मालवीय जी ने कई अन्तर्जातीय विश्वविद्यालय का भी उन्होंने धर्मनिरपेक्ष स्वरुप सुनिश्चित किया था, जबकि हिन्दू संवर्धन एव विस्तार करना था तथा इस विश्वविद्यालय का शैक्षणिक रूप से ली जाती थी । प्रवचन' जिसमें छात्रों-अध्यापकों तथा अन्य ये सब होते हुए भी इसमें साम्प्रदायिकता नहीं थी ।

 

मालवीय जी ने आजीवन वैदिक सनातन धर्म का परिपालन किया । देश के सम्पूर्ण धर्म सम्बंधी कार्यों में वे अग्रसर रहे । प्राप्त होने वाले लाभों की चर्चा किया करते थे और कहते थे कि विद्या, रूप, शौर्य, कुलीनता, राज्य, ये सभी धर्म से ही इस मान्यता कि पुष्टि में निम्न श्लोक सुनाया करते थे-

 

"कुलीनत्वमरोगिता ।


इसी प्रकार जीवन यापन को भी वे धर्मानुसार ही करने का उपदेश देते थे । क्रिया,गाय के दुग्धपान से होने वाले उनकी मान्यता थी कि गाय का दूध पीने से विद्वान में नम्रता, सम्पत्तिवान में अहंकारशून्यता तथा बलवान में सेवा-भावना का उदय होता है । बच्चे के लिए ही लाभकारी होता है, गेहूँ की रोटी, गाय का घी, सब्जियाँ, के लिए भी ऐसा ही करने का परामर्श देते थे । आहार-व्यवहार में वे पूर्णतया संतुलित मात्रा के समर्थक थे ।  



पारम्परिक धर्म में सुधार का अभियान


सन १८८७ ई० में हिन्दुओं की प्रसिद्ध संस्था 'भारत धर्म महामण्डल' की स्थापना हुई और धर्मप्रचार का रथ धूम-धाम से चल पड़ा । इसकी सभाओं में मालवीय जी भी उपदेशकों के रूप में जाने लगे । प्रयाग की 'हिन्दुधर्म प्रवर्धिनी सभा' से लेकर सनातन धर्म के बड़े सम्मेलनों में कोई धर्मायोजन ऐसा नहीं हुआ, जिसमें महामना ने उसकी महिमा का गान न किया हो और कथाएँ न सुनाई हों । तब तक पंडित दीनदयाल शर्मा और मालवीय जी, सनातन धर्म के आधार समझे जाने लगे ।

 

सन १८८७ ई० के २४-२७ मार्च तक राजा लक्ष्मणदास सेठ के सभापतित्व में 'भारत धर्म महामण्डल' का दूसरा अधिवेशन वृन्दावन में हुआ । उस समय मालवीय जी अध्यापक के रूप में कार्यरत थे । सनातन धर्म की इस अखिल भारतीय संस्था के राष्ट्रीय महासभा में मालवीय जी ने प्रथम बार सनातन धर्म पर मार्मिक व्याख्यान दिया । उनके व्याख्यान ने सनातनधर्मी जनता को यह बता दिया कि उनके रूप में धर्म का कोई रक्षक आ पहुँचा है ।

 

सन १९०० के ९ से १३ अगस्त के बीच दिल्ली में 'भारत धर्म महामण्डल' का बहुत ही शानदार अधिवेशन हुआ और उसके सभापति हुए श्रीमान महाराजा बहादुर दरभंगा नरेश सर कामेश्वर नारायण सिंह । मण्डप का पण्डाल ऐसा भव्य बना था कि देखते ही बनता था और अधिवेशन भी इतना प्रभावशाली हुआ कि लोगों के मुँह से निकल पड़ा- "न भूतो न भविष्यति" अर्थात ऐसा पहले न तो हुआ और आगे हो भी नहीं सकता



सनातन धर्म महासभा


'
सनातन धर्म महासभा' के अनेक बड़े अधिवेशन मालवीय जी द्वारा आयोजित होते रहे और उसमें देश के बड़े सम्मानित विद्वान, पंडित, धनी-मानी और राजे-महाराजे उपस्थित होते रहे । फिर अगले कुम्भ में त्रिवेणी के संगम पर अपनी संस्था "सनातन धर्म महासम्मेलन" को भी व्याख्यान वाचस्पति पंडित दीनदयाल जी ने सनातन  धर्म महासभा' में विलीन कर दिया । जिस समय महात्मा गांधी जी की अगुवाई में सारा देश आन्दोलित था, उस समय भी मालवीय जी बड़ी शान्ति से 'सनातन धर्म सभा' को और सनातन धर्म को सुदृढ़ करने में लगे हुए थे । उसी समय महामना द्वारा 'सनातन धर्मसभा' का नए रूप से गठन हुआ और इसके माध्यम से सनातन धर्म का काम तेजी से आगे बढ़ा । साथ ही पंजाब में इसकी जो मुख्य शाखा अर्थात 'सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा' थी, उसने पंजाब में सनातन धर्म की जो आँधी चलाई, उसका प्रभाव प्रदेश के बाहर भी पड़ने लगा । इसका श्रेय विशेषतः गोस्वामी गणेश दत्त जी को है । सन १९२८ की १८ से २४ जनवरी तक प्रयाग में "अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म महासभा" का अधिवेशन मालवीय जी के सभापतित्व में हुआ । इसमें अनेक प्रांतों के और हिन्दू-रियासतों के प्रसिद्द शास्त्रज्ञ उपस्थित हुए और प्रत्येक प्रस्ताव पर गहन विचार-विमर्श हुआ । जनवरी सन १९२८ ई० की बसन्तपंचमी के दिन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मालवीय जी ने "अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म महासभा" की नींव डाली । मालवीय जी इसके अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित रहे । 'सनातन धर्म महासभा' के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए मालवीय जी ने 'सनातन धर्म' नामक साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित की । इसी के कुछ समय पश्चात मालवीय जी की प्रेरणा से लाहौर से 'विश्वबंधु' नामक पत्र भी निकला । हरिद्वार का "ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम" भी मालवीय जी के मार्गदर्शन में स्थापित हुआ । इसमें सबसे पहले मालवीय जी ने ही अपने पास से पच्चीस रूपये रायबहादुर दुर्गादत्त पंत जी को दिये थे । इसकी स्थापना सन १९०६ में हुई थी मालवीय जी तभी से उसके संरक्षकों में रहे और लगातार दस वर्षों तक उसकी शिक्षा समिति के अध्यक्ष भी रहे ।


पंजाब बंधु

 

सन १९१९ में 'जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड' के अवसर पर मालवीय जी ने जिस प्रकार पीड़ितों की सहायता और सेवा की, उससे प्रभावित होकर पंजाब वालों ने उन्हें 'पंजाब बंधु' मान लिया और देवता की भाँति उनकी पूजा करने लगे । सन १९२४ ई० में रावलपिण्डी में "प्रान्तीय सनातन धर्म सम्मलेन" का आयोजन हुआ और मालवीय जी उसके उपसभापति बनाये गए । उस वर्ष पंजाब सहित पूरे भारत में इसकी तीन सौ से अधिक शाखाएँ खुली और सौ से अधिक 'महावीर दल' स्थापित हुए । उस सभा में उन्होंने अछूतों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने और सार्वजनिक विद्यालयों में पढ़ने की छूट देने का उपदेश दिया । साथ ही सन १९२५ ई० में उन्होंने अमृतसर के प्रसिद्द दुर्गयाना मंदिर और सरोवर की स्थापना करवाई । सन १९२८ मार्च के महीने में मालवीय जी ने पंजाब की धर्मसभाओं में बड़े प्रभावशाली ढंग से भाग लिया । 'सनातन धर्म सभा', 'आर्य समाज', 'हिन्दू सभा', और 'कांग्रेस कमेटी' ने जी खोलकर उनका सम्मान किया । जगह-जगह उनका स्वागत इस प्रकार हुआ, जैसे भगवान स्वंय भूमि पर पधारे हों ।

 

सन १९२९ में पंजाब में सनातन धर्म के प्रचार के क्रम में मालवीय जी सिंध और बलूचिस्तान भी पहुँचे और वहाँ की सनातन धर्म सभाओं के सभापति भी हुए । इसके बाद २१ से २४ अप्रैल सन १९३४ ई० में रावलपिण्डी में 'सनातन धर्म महासम्मेलन' मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ । वहाँ जो स्वागत हुआ और जो शोभायात्रा निकाली गई, वह अपूर्व थी । मालवीय जी के उस उद्योग का फल यह हुआ कि पंजाब सहित पूरे भारत में प्रति पर्व पर धार्मिक महोत्सव, कथा और प्रवचन होने लगे । फलतः देश में धार्मिक वातावरण संपुष्ट होने लगा । इस क्रम में वे कितनी 'सनातन धर्मसभाओं' के सभापति बने, कितनी धार्मिक संस्थाओं की नींव राखी, कितने मठ-मंदिरों-धर्मशालाओं का उदघाटन किया, इनकी सूची बहुत विस्तृत है ।



मंत्र-दीक्षा


२३ जनवरी सन १९२७  से २६ जनवरी के बीच प्रयाग में त्रिवेणी तट पर अर्धकुम्भ के अवसर पर "अखिल भारतवर्षीय सनातन धर्म महासभा" का अधिवेशन हुआ । चार दिन के इस कार्यक्रम के तीन दिनों की अध्यक्षता मालवीय जी की रही, परन्तु २५ जनवरी को महराजधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर, (महाराजा दरभंगा) के सभापतित्व में विद्वानमंडली और प्रतिनिधियों द्वारा बड़े महत्वपूर्ण प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किये गये ।


'महासभा' के इसी अधिवेशन के माध्यम से अछूतों को 'मंत्र-दीक्षा' देने का प्रस्ताव भी उन्होंने स्वीकृत कराया । तत्पश्चात सन १९२७ में महाशिवरात्रि के दिन काशी में दशाश्वमेध घाट पर उन्होंने सभी वर्णों के लोगों को मंत्र दीक्षा दी । ये मंत्र इस प्रकार थे- "ॐ नमः शिवाय", "ॐ नमो नारायणाय", ॐ रामाय नमः, 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' आदि । मंत्र दीक्षा के समय मालवीय जी रेशमी दुपट्टा ओढ़कर एक-एक को मंत्र और उपदेश देते थे, फिर उनसे उस मंत्र को जपते रहने का वचन लेते थे और अंत में अपना आशीर्वाद देते थे । उस समय उनकी दिव्य ज्योति देखने योग्य होती थी ।


सनातन धर्म की महिमा


मालवीय जी की मान्यता है कि सनातन धर्म पृथ्वी पर सबसे पुराना और पवित्र धर्म है । यह वेद, स्मृति और पुराणों से संपुष्ट है । यह हमें सिखाता है कि इस जगत का सर्जन, पालन और संहार करने वाला एक सनातन, अनादि, सत-चित-आनन्दस्वरूप, पूर्ण प्रकाशमय, परब्रह्म परमात्मा है । यह परमात्मा अभेद रूप से मनुष्य से लेकर सभी जीवों, पशु-पक्षियों-वृक्षों-वनस्पतियों और कीट पतंगों में समान रूप से वर्तमान है । साथ ही वे जनता को यह बताना नहीं भूलते थे कि धर्म-ग्रंथों में चारो वर्णों के गुण अलग-अलग वर्णित हैं और सबके अलग-अलग लक्षण भी बताये गये हैं । इन वचनों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वर्ण और जाति दोनों भिन्न-भिन्न बातें हैं । यदि जन्म से ब्राह्मण होने वाला भी अपने लिए निर्धारित धर्म-कर्म से रहित है, कुकर्म में रत है, तो वह शूद्र से भी नीचे गिर जाता है और शूद्र भी यदि अच्छे आचारों को ग्रहण करे और ऊंचा तथा पवित्र जीवन व्यतीत करे तो वह ब्राह्मण के समान सम्मान पाने योग्य है ।

 

इस दृष्टि से मालवीय जी सनातनधर्मी तो थे ही, सिद्धान्तनिष्ठ भी थे । उस समय (मालवीय जी के जीवन काल में) कुछ लोग राजनीति के मंच पर उन्हें 'नरम' और 'रूढ़िवादी' सिद्ध करते थे, परन्तु उनकी यह बात तर्कसंगत नहीं थी । वस्तुतः जहाँ नरम नीति या कट्टरवादिता से उद्देश्य कि प्राप्ति नहीं हो सकती थी, वहाँ वे अपनी नीति बदल दिया करते थे । हिन्दू विश्वविद्यालय में जब 'प्रिंस ऑफ वेल्स' को मालवीय जी ने माला पहनायी तो लोगों ने उनकी आलोचना की और 'गोलमेज सम्मलेन' के समय उन्हें विलायत जाते समय गंगाजल लेकर जाते हुए देखकर बड़े बड़े धर्मध्वजी भी हतप्रभ हो गये । महामना एक ओर जहाँ पुरातन धर्म-नियमों एवं आचार-विचार के परिपालक थे वहीँ देश, जाति तथा मानवता के समक्ष कड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी लक्ष्मण रेखा को लचीला भी बना लेते थे । मालवीय जी की यह नीति जीवन और कार्य-क्षेत्र के बीच सर्वत्र चलती रही । मालवीय जी ने जब अनुभव किया कि हिन्दू धर्मावलम्बियों में बल कम हो रहा है, अपने सत्पुरुषों, शास्त्रों, साहित्य और अपनी कुल-परम्परा की रीति-नीति का लोगों को विस्मरण हो रहा है, आधुनिक शिक्षा-पद्धति और विधर्मी विचारों एंव आचारों के प्रचार से लोग प्रभावित हो रहे हैं, हिन्दू बालकों और बड़ों में स्वाभिमान का अभाव हो रहा है तथा पश्चिमी ज्ञान और संस्कृति का लोग गुणगान कर रहे हैं, तब उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से यह बताना आरम्भ किया कि "हमारी सब परम्पराएँ अच्छी हैं, अब भी साधू-संत हैं, हमारे शास्त्र अच्छे हैं, हमारी परम्परा और रूढ़ियाँ भी अच्छी हैं । यदि हम सेवक, साधक, शिष्य या विद्यार्थी बनकर इनकी जानकारी प्राप्त करें तो पाएँगे कि हमारे यहाँ सब कुछ है । हमारे शास्त्रों की घोषणा है "यन्नेहास्ति न तत क्वचित" अर्थात जो यहाँ नहीं है, वह कहीं भी नहीं है ।"

 

 

मालवीय जी जिस धर्म में आस्था रखते थे, उसका अपने संदर्भ में स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया करते थे- "घर में हमारा ब्राह्मण धर्म है, परिवार में सनातन धर्म है,समाज में हिन्दू धर्म है, देश में स्वराज्य धर्म है और विश्व में मानव धर्म हैं ।" इस सूत्र के माध्यम से मालवीय जी ने स्वधर्म का पूरा मर्म स्पष्ट कर दिया है ।



गोरक्षा अभियान


मालवीय जी का गोरक्षा आन्दोलन से बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध रहा है । कांग्रेस की महासभा के अस्तित्व में आने के बाद ही उसके सम्मलेन के साथ-साथ प्रतिवर्ष गोरक्षा सम्मलेन भी होने लगा था और उसमें मालवीय जी बढ़-चढ़कर भाग लेने लगे थे । महामना का 'गोरक्षा आन्दोलन' धार्मिक, आर्थिक और स्वास्थय, तीनों कारणों से प्रेरित था । इसी प्रेरणा के फलस्वरूप हरिद्वार के "गो वर्णाश्रम धर्म सभा कनखल" ने और फिर 'भारत धर्म महामण्डल' और 'सनातन धर्म सभाओं' ने गोरक्षा के लिए आन्दोलन छेड़ दिया । मालवीय जी इनमें से अधिकांश गोरक्षा सम्मेलनों के सभापति रहे । उन्होंने स्थान-स्थान पर गोशालाओं और पिंजरापोलों के लिए भूमि और भवन की व्यवस्था में अपना अविस्मरणीय योगदान किया । साथ ही राजाओं और जमींदारों से मिलकर गोचर भूमि के लिए उनसे जगह छुड़वाई और आर्थिक सहायता भी ली । उन दिनों मथुरा के स्वामी हासानन्द की गोरक्षक के रूप में बड़ी ख्याति थी । वे सदैव मुँह पर कालिख पोते रहते थे । उनका कहना था कि "जब तक पूरे देश में गोवध पूरी तरह बन्द नहीं हो जाता तब तक वे इसी प्रकार रहेंगे ।" महामना जी ने इनकी मथुरा में 'हासानन्द गोचर भूमि ट्रस्ट' की स्थापना में भरपूर सहायता की । कांग्रेस की 'अखिल भारतीय गोरक्षा समिति' तो महात्मा गांधी की संरक्षता में ही स्थापित हुई थी । मालवीय जी की अध्यक्षता में प्रयाग में जो 'सनातन धर्म महासम्मेलन' हुआ, उसमें गोरक्षा के सम्बन्ध में कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किये गये । इस सम्मलेन के अंत में, समस्त हिन्दुओं से अनुरोध किया गया कि गोवंश के वध से प्राप्त चमड़ा और चर्बी का उपयोग वे त्याग दें और स्वाभाविक मृत्यु से मृत पशुओं के चमड़े से बने जूते काम में लावें । इसी प्रकार कपडा-निर्माताओं को निर्देश दिया गया कि वे कपडे में माडी के प्रयोग में चर्बी के स्थान पर अन्य वस्तुओं का उपयोग करें


गोधन की रक्षा


'सनातन धर्म महासभा' ने इस बात पर बड़ी चिन्ता व्यक्त की कि बड़े शहरों में दूध बेचने वाले व्यक्ति गायों के साथ बड़ी क्रूरता का व्यवहार करते हैं । गाय जब युवास्था में होती है तभी उसे बंध्या बनाकर कसाई के हाथों बेच दिया जाता है । गाय का दूध बछड़े के पीने से कम न हो, इसलिए उसके बच्चे को ही मार दिया जाता है । अतः पिंजरापोल के व्यवस्थापकों को ऐसी गायों का पता लगाकर उनको अपने संस्थान में ले लेना चाहिए और इसका प्रयास करना चाहिए कि आर्थिक दृष्टि से वे उपयोगी हो सकें । इसके साथ ही गोदुग्ध को अधिकाधिक लोकप्रिय बनाने का प्रयास भी किया जाना चाहिए । 'सनातन धर्म महासभा' ने एक "अखिल भारतवर्षीय गोरक्षा कोष" की भी स्थापना की थी । साथ ही उक्त प्रस्ताव के साथ गोपालकों को परामर्श दिया गया था कि गोपाष्टमी का पर्व धूमधाम से मनाया जाय । गोरक्षा सम्बन्धी उपायों एंव गोपूजा और गोकथा के आयोजनों के साथ-साथ गो-परिपालन सम्बन्धी साहित्य का प्रचार भी किया जाय । जमींदारों से निवेदन किया गया कि जिनकी जमींदारी के भीतर गाय-बैल के बाजार लगते हों, उनमें कसाई क्रय-विक्रय न करने पायें । इस प्रकार मालवीय जी ने 'सनातन धर्म गोरक्षा समिति' के माध्यम से गोधन की रक्षा और समृद्धि के लिए अनेकानेक उपाय किये । मालवीय जी स्वंय ही गायों को पालने और उनका दूध पीने का आग्रह लोगों से करते थे । इनका गाय और बैलों के प्रति इतना अधिक प्रेम था कि यदि हल जोतते या बैलगाड़ी खींचते हुए बैल थकते जैसे मालूम हो रहे होते तो उन्हें बिना चोट पहुँचाए कुछ समय के लिए कार्यमुक्त करने का उनका आग्रह होता था । यदि किसी गाय या बैल को घाव हो गये हों, वे बीमार हो गये हों या घायल हो गये हों तो वे स्वंय मरहम-पट्टी के लिए आगे बढ़ते थे और दूसरों को भी प्रेरित करते थे ।

 

साथ ही यह प्रस्ताव भी पारित किया गया कि 'गो सप्ताह' मनाये जाने की  अवधि में गोरक्षा हेतु दान माँगा जाय और जितनी रकम मिले उसे 'अखिल भारतीय गोरक्षा कोष' में जमा कराया जाय । मालवीय जी केवल अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा के उपायों में ही तल्लीन नहीं थे, बल्कि स्वंय भी गोपालन करते थे । उनके आवास के भीतर कई गायें एंव बछड़े-बछड़ी होते थे । मालवीय जी गौ के बारे में कहा करते थे, "गौ मानव-जाति की माता के समान उपकारी, बल और निरोगता देने वाली तथा मनुष्य जाति की आर्थिक उन्नति बढ़ाने वाली देवी है ।"



गोशालाओं की स्थापना


एक बार नासिक (महाराष्ट्र) में १५ मार्च सन १९३६ को आयोजित गोरक्षा वह अवसर था सेठ उस जिनका मुख्य काम होगा जनसामान्य के पास तक शुद्ध तो यथार्थतः दुग्ध क्रान्ति आयेगी । में चारों ओर दूध की कमी है, तो आप जानते ही हो कि गाय के दुध में जो गुण हैं, वह किसी अन्य पशु के दूध में नहीं । इस बात का समर्थन सभी डॉक्टर, हकीम, और अनुभवी व्यक्ति एक समय था जब देश में घी और दूध की नदियाँ बहती थीं, पराक्रम और पुरुषार्थ था, कथा आज आश्चर्य के साथ सुनी जाती है । जिस प्रकार लन्दन आदि बड़े-बड़े नगरों उसी प्रकार बम्बई और कलकत्ते आदि

 

जी केवल ऐसा उपदेश मात्र ही नहीं देते थे, और काशी के आस-पास अनेक गोशालाओं की स्थापना में योगदान दिया था । जौनपुर राजमार्ग पर वाराणसी से १ किलोमीटर पश्चिम पंचकोशी के रामेश्वर व्यास-बाग' मालवीय जी  इस गोशाला में लगभग सौ 'गूँगी माता' भी कहते थे), कसाई के हाथ बेचना महापाप है ।" उनका ह्रदय इतना दयालु था कि वे किसी भी छोटे-बड़े जीव की हिंसा से द्रवित हो जाते थे । एक बार की बात है, वे जब मोटर से आजमगढ़ होते हुए गोरखपुर जा रहे थे, तो रास्ते में मोटर के पहिए से दबकर एक गिलहरी का देहान्त हो गया । गोरखपुर पहुँचने पर उन्होंने बिना अन्न-जल ग्रहण किये प्रायश्चित रूप में जब तक 'ॐ नमः शिवाय' मन्त्र का कई बार जप नहीं कर लिया और गिलहरी की सद्गति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना नहीं कर ली, तब तक उन्हें शान्ति नहीं मिली । उसके बाद ही अन्य कार्यक्रम आरम्भ हो सके । यहाँ तक कि जब गांधी जी के बीमार बछड़े को उसके कष्ट-निवारण के लिए गांधी जी के संकेत पर विष देकर मृत्यु को प्राप्त कराने का समाचार मालवीय जी को मिला, तो उन्होंने इसे अच्छा कार्य नहीं माना ।



तीर्थों का जीर्णोंद्धार


यह प्रायः सर्वविदित है कि मथुरा की कृष्ण-जन्म भूमि पर मुसलमानों ने उसकी मुक्ति के लिए मालवीय जी ने सरकार के विरुद्ध मुकदमा लड़ा और उन्हें सफलता भी मिली । भी दिया गया । श्रम से वहाँ एक भव्य कृष्ण-मन्दिर का निर्माण कराया गया, जी की कीर्ति-पताका फहरा रहा है ।

 

प्रकार विश्वविद्यालय की स्थापना से पूर्व मालवीय जी ने काशी के दुर्गाकुण्ड के पास स्थित 'बनकटी हनुमान जी' वहाँ आज भी मालवीय जी के द्वारा हस्ताक्षरित शिला-लेख लगा हुआ है । जी ने ही उस मंदिर को 'नाम दिया था । इस पुस्तक का नाम है- "The Ch" इसी प्रकार विश्वविद्यालय के तथा आस-पास के रहा है । जाएँ और वहाँ एक अलग से विभाग खोलकर २० लाख रुपये की व्यवस्था कर दी जाएगी " यह बात सन १९२४ की है । इस महनीय संरक्षण के लिए आचार्य विश्वबंधु ने धन्यवाद एंव साधुवाद दिया और यह कार्य पूर्ण हुआ । मालवीय जी पुराणों के अस्त-व्यस्त संस्करणों को और उनके अस्पष्ट से अनुवादों को देखकर खिन्न थे । अतः वे चाहते थे कि समूचे स्मृति वांग्मय, पुराणों और धर्मशास्त्रों को सम्पादित करके नये संस्करण निकाले जायँ । मंदिर और घाट आदि बनवाने के साथ-साथ इस कार्य को भी उन्होंने आवश्यक माना । इस योजना के लिए भी मालवीय जी ने यथासम्भव आर्थिक सहायता और मार्गदर्शन प्रदान किया । एक बार कालाकाँकर रियासत के पूर्व राजकुमार कुँअर सुरेश सिंह स्वतन्त्रता आन्दोलन के क्रम रावलपिण्डी में जब मालवीय जी के साथ थे और उनके जेल जाने की बारी आई, तो मालवीय जी ने उन्हें अत्यन्त मधुर राग में गाकर 'सूरसागर' के कुछ पद सुनाये और आदेश दिया "अब तो तुम जेल जा रहे हो, सूरदास जी के सुन्दर पदों का एक अच्छा संकलन कर डालो । जेल में ऐसे कार्यों के लिए अच्छा अवसर मिलता है ।" उन्होंने महामना की आज्ञा शिरोधार्य की और उस संकलन को पूरा किया ।


गंगा नहर और बाँध पर विवाद


सरकारी नहर विभाग ने हरिद्वार में गंगा के प्रवाह को कुछ रोककर नहर निकालने का प्रयत्न किया, परन्तु गंगा का इतना जल नहर के लिए दे दिया गया कि जिससे प्रयाग और काशी जैसे स्थानों में जल का अभाव सा हो गया । अतः सन १९१६ ई० में पुनः अविच्छिन्न धारा के लिए आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, क्योंकि अंग्रेज सरकार ने अपना वादा पूरा नहीं किया था । उधर अंग्रेजों का प्रयास था कि लगभग १००० मील तक फैले नहरों के जल को पर्याप्त जल देना है और कुछ पानी हिन्दुओं के धार्मिक आयोजन के निमित्त भी छोड़ना है, लेकिन इनका 'कुछ पानी' प्रत्यक्षतः अत्यल्प रूप में ही था ।

 

"गंगा नहर" के साथ दूसरी कठिनाई यह थी कि उस नहर को पार करने के लिए  न कोई पुल था न घाट । अतः यह प्रश्न स्नानार्थियों और गंगा नहर के आर-पार जाने वालों के लिए बड़ा ही कष्टकारक था । लोगों की इच्छा थी कि गंगा में इतना पानी अवश्य होना चाहिए कि कुंभादि पर्वों पर हजारों-लाखों मनुष्य स्नान कर सकें और लोगों को शुद्ध जल मिल सके । इसलिए पहला प्रश्न तो यह था कि गंगा नदी में आधन्त इतना शुद्ध जल होना चाहिए कि प्रयाग, काशी में गंगा में जल का अभाव न हो । इस समस्या के समाधान के लिए ग्यारह अप्रैल सन १९३३ को "गंगा सभा" और नहर विभाग के अधिकारियों की एक बैठक हुई । इसमें मालवीय जी भी उपस्थित थे । "गंगा सभा" की शिकायत थी कि सरकार ने १९१६ समझौते का पालन नहीं किया, जिससे हर की पौढ़ी पर पर्याप्त जल नहीं पहुँच रहा है और सर्दी के दिनों में तो जल की मात्रा और भी कम हो जाती है । चूँकि मालवीय जी की अध्यक्षता में गंगा सम्बंधी समझौते हुए थे जो मुख्यतः गंगा-जल के अविरल प्रवाह और उसकी मात्रा के सम्बन्ध में थे । अतः उन्हें इस विषय में विशेष सक्रियता दिखानी पड़ी ।


हरकी पौढ़ी


अप्रैल सन १९२७ को हरिद्वार में कुम्भ होने वाला था । "गंगा सभा" के बहुत अनुरोध पर भी मेले के अधिकारी नहीं माने और हरकी पौढ़ी पर उन्होंने एक पुलिया बना ली, जिस पर अधिकारी लोग और अंग्रेज जूता पहन कर आते-जाते थे । मालवीय जी ने अधिकारियों से बातचीत की, परन्तु वे पुल हटाने को तैयार नहीं थे । मालवीय जी की इस धमकी का भी कुछ असर नहीं हुआ कि 'यदि पुल नहीं तोडा जाएगा तो सत्याग्रह होगा ।' साथ ही मालवीय जी ने १३०० शब्दों का एक लम्बा-चौड़ा तार भी गवर्नर के यहाँ भेजा । २६ नवंबर सन १९२६ ई० की सभा के सभापति और चार अन्य सदस्यों ने गवर्नर साहब से भेंट की । वे उनके निवेदन पर मात्र इतना ही राजी हुए कि "सरकारी अधिकारियों के अतिरिक्त पुल पर कोई नहीं जा सकेगा और न कोई यहाँ पर सिगरेट पीयेगा और न थुकेगा ।" चमड़े के जूते पहनकर भी पुल के ऊपर जाने की मनाही हो गयी । अफसरों के प्रयोग के लिए कपडे से बना जूता देने का प्रस्ताव भी गवर्नर श्री कृष्टि महोदय ने स्वीकार कर लिया । परन्तु 'इंस्पेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस' ने इस आदेश को स्वीकार नहीं किया और कपडे के जूते पहनने वाली बात भी टाल दी गयी । जनता के मत को जानबूझ कर अस्वीकार करने की हद हो गयी और हिन्दुओं में गहरी उत्तेजना फ़ैल गयी । मालवीय जी ने इसके विरुद्ध अपनी आपत्ति लिखित रूप में दी और कहा कि "अहिन्दू और सरकारी कर्मचारी चमड़े का जूता पहनकर पुल पर बैठते हैं और उसी पुल के नीचे महात्मा जन, यात्री,स्त्री और पुरुष स्नान करते हैं । ऊपर बैठे हुए लोग स्नान करने वाली अर्द्धनग्न स्त्रियों को देखते और आपत्तिजनक शब्दों का उच्चारण करते हैं, इसलिए गवर्नर महोदय को चाहिए कि वे तत्काल कोई कारगर कदम उठाकर अपमानमूलक परिस्थिति पैदा होने से बचाएँ ।" मालवीय जी अपने पत्र के माध्यम से कृष्टि साहब को यह भी बताया कि अगर इस पुल को काम में लाया जाएगा तो यात्रियों और अफसरों में मुठभेड़ भी हो जाएगी । उनके इस पत्र का अन्ततः परिणाम यह हुआ कि गवर्नर ने मेले के अधिकारियों को पुल का प्रयोग न करने का निर्देश दे दिया ।


हिन्दुत्व के युगपुरुष


मालवीयजी का सेवा-भाव तथा 'स्वराज' भी स्वधर्म से अलग नहीं था, बल्कि उसी का अंग था । हिन्दू धर्म के संस्कार एंव पुनर्निर्माण के लिए उनके ह्रदय में बड़ी आकुलता थी । उन्होंने बचपन में ही प्रयाग में "हिन्दू समाज" नाम की संस्था खोली थी । इसका उद्देश्य यह था कि सरकारी संरक्षण में ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जा रहे हिन्दू धर्म-परिवर्तन एंव धर्म-संस्कृति के उपहास के विरुद्ध हिन्दुओं में सक्रियता लाई जाय । इस उद्देश्य से उन्होंने अपने गुरु पंडित आदित्यराम भटटाचार्य कि अध्यक्षता में सन 1880 में उक्त संगठन का श्रीगणेश किया । यह उनका सामाजिक और राजनीतिक संगठन का पहला प्रयास था । इसके माध्यम से चार-पाँच वर्षों तक उन्होंने हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध हिन्दू समुदाय में जागरण और धर्म तथा संस्कृति के वास्तविक स्वरुप के ज्ञान के प्रचार-प्रसार का अभियान चलाया । इलाहाबाद मण्डल में उनके द्वारा 'हिन्दू समाज' की अनेक शाखाएँ खोली गईं और उसकी अनेक सभाओं का आयोजन भी किया गया । इस सभी में मालवीय जी द्वारा मार्मिक भाषण दिए गये ।


हिन्दू महासभा


जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, मालवीय जी का 'हिन्दू महासभा' से भी घनिष्ट सम्बन्ध था । इस महासभा कि स्थापना यद्धपि १९०५ में पंजाब में हुई थी, परन्तु मालवीय जी सन १९२० में इससे जुड़े और उसके बाद ही यह महासभा देशव्यापी हो गयी । सन १९२२ में मालवीय जी ने 'गया कांग्रेस अधिवेशन' के समय ही 'हिन्दू महासभा' सम्मलेन की अध्यक्षता स्वीकार की । परिणाम यह हुआ कि 'हिन्दू महासभा' संकीर्ण विचारों से ऊपर उठकर एक उदार धार्मिक संगठन बन सकी । इस सम्मलेन के माध्यम से मालवीय जी ने हिन्दुओं को सन्देश दिया कि "आप पहले भारतीय हैं फिर हिन्दू । अतः आपका सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि गाँव-गाँव में सभाएँ करके छुआछूत मिटाने और अछूतों की अवस्था सुधारने का प्रयत्न करें ।" अगस्त सन १९२३ में महामना के सभापतित्व में हिन्दू महासभा का सातवाँ अधिवेशन काशी में व्यापक स्तर पर आयोजित हुआ, जिसमें प्रायः सभी सम्प्रदायों सहित पारसियों ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया । इस सभा के माध्यम से मालवीय जी ने हिन्दू समुदाय की आंतरिक दुर्बलताओं को दूर करके ठोस रूप से संगठित होने की आवश्यकता पर बल दिया । इस क्रम में जिन समस्याओं और कर्तव्यों पर विशेष जोर दिया गया, वह था छुआछूत-निवारण, हरिजनों की शुद्धि की समस्या, स्त्रियों की रक्षा एंव उनकी शिक्षा, दहेज़-प्रथा, विधवा-विवाह की स्वीकृति एंव धर्मांतरण रोकना आदि । इस प्रकार सन १९२२ से १९३५ तक महामना ने हिन्दू महासभा का नेतृत्व किया । यद्धपि वे इसके प्रत्येक सम्मलेन में भाग लेते रहे, परन्तु प्रयाग, कलकत्ता, दिल्ली, पटना, जबलपुर, बेलगाँव आदि के अधिवेशन विशेष उंपलब्धियों से पूर्ण रहे ।


अखिल भारतीय सेवा समिति


इसी प्रकार "सनातन धर्म महासभा", "गौ सेवा संघ" तथा "गौरक्षा सम्मलेन" के माध्यम से उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषतः सनातन धर्म को अमूल्य योगदान दिया । साथ ही सन १९१४ में उन्होंने प्रयाग में "अखिल भारतीय सेवा समिति" की भी स्थापना की । इस संगठन का मुख्य उद्देश्य था- समाज में परस्पर सहयोग की भावना उत्पन्न करना, देश की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का सर्वेक्षण, समाज के उपेक्षित एंव असहाय प्राणियों की सेवा एंव सहायता, समाज में शिक्षा, स्वछता एंव स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रमों का विस्तार करना, अत्यंत पिछड़े समाज तथा आदिवासी जातियों के जीवन में सुधार लाने का प्रयास करना और उन्हें चिकित्सकीय सुविधाएँ उपलब्ध कराना, विधवाश्रम, बाल सुधार गृह, परित्यक्ताश्रम, कुष्ठ आश्रम, अंध आश्रम तथा वृद्धाश्रम आदि का संचालन करना; मेला, अकाल, बाढ़ और  महामारी के समय जनता के सेवा के कार्यक्रमों का आयोजन करना; एवं इसी प्रकार के उद्देश्यों से स्थापित अन्य संगठनों को सहयोग देना ।

 

की ओर से बालकों का एक संगठन भी तैयार किया गया था, इस समर्पित युवा कार्यकर्ता थे । एम्बुलेंस एंव आपात चिकित्सा सेवा की भी व्यवस्था की गयी थी । इस समिति ने एक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया, जिसका नाम था-' लॉज एंव व्यायाम-गृह भी संचालित इसके द्वारा स्थापित आयुर्वेदिक फार्मेसी में उच्च कोटि की इनकी माँग पूरे  इन्हीं हरिजन सेवा संघ', 'ऑफ इंडिया सोसाइटी', 'आदि और भी अनेक संस्थाएँ 'समिति' आपकी सहमति हो तो संघ के लिये मैं कोष इकठा कर दूँगा ।" इस पर डॉक्टर जी ने तुरन्त उत्तर दिया- "पण्डित जी! मुझे पैसे की बड़ी चिन्ता नहीं है । मुझे तो आप जैसों के आशीर्वाद की आवश्यकता है ।" डॉक्टर जी के इस उत्तर से प्रसन्न होकर मालवीय जी ने कहा, "मैं जहाँ-जाऊँगा, आपकी इस विशेषता का उल्लेख अवश्य करूँगा ।" नागपुर में १९२९ में सम्पन्न 'गुरुपूजनोत्सव' के अवसर पर डॉक्टर जी ने इसका उल्लेख किया- "मालवीय जी जब संघ स्थान पर आये तो उन्होंने यह उदगार व्यक्त किया कि "अन्य संस्थाओं के पास बड़ी-बड़ी इमारतें और बहुत सा कोष रहता है, पर तुम्हारे संघ में मनुष्य बल अच्छा है, यह देखकर मुझे आनन्द होता है ।"


देश के अनेक श्रेष्ठ व्यक्तियों के पास डॉक्टर हेडगेवार जी स्वंय गये तथा हिन्दू संगठन के विषय में विचार-विमर्श किया, किन्तु महामना मालवीय जी का प्रखर हिन्दू भाव उन्हें स्वंय ही डॉक्टर हेडगेवार तक खींच लाया । विधि का ऐसा विधान था कि श्री गुरूजी (माधवराव सदाशिव गोलवलकर) तथा श्री भैया जी दाणी (मूलनाम प्रभाकर बलवंत दाणी), काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इन दो पूर्व छात्रों ने संघ के सर्वोच्च पद (सरसंघचालक तथा सरकार्यवाह) के दायित्व का निर्वहन किया । श्री गुरु जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सन १९२४ से सन १९२८ तक विद्यार्थी रहे और यहाँ से बी.एससी. तथा एम.एससी. (प्राणिशास्त्र) की उपाधियाँ अर्जित किया । वे इसी विश्वविद्यालय में सन १९३१-३३ के बीच प्राध्यापक भी रहे ।


काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संघ भवन


श्री राकेश सिन्हा ने लिखा है कि "मालवीय जी संघ के कुछ कार्यक्रमों में भी सम्मिलित हुए और उन्होंने संघ की अप्रत्यक्ष मदद की । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय शाखा के स्वंयसेवक प्रायः पूज्य मालवीय जी के पास जाते, उनसे विचार-विमर्श करते और उनका स्नेहिल आशीर्वाद प्राप्त करते थे ।" अनिल बरन रे के मत से "राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का प्रमुख उद्देश्य हिंदूवादी नवजागरण में नवीन स्फूर्ति का संचरण करना तथा एक समन्वित राष्ट्रीय हिन्दू चेतना का विकास करना था । काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के मूल में भी यही उद्देश्य निहित था । इस दृष्टिकोण से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, दोनों हिन्दू आत्मसम्मान तथा राष्ट्रवाद की पुनः स्थापना के पर्याय थे ।"


मालवीय जी स्वंयसेवकों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने विश्वविद्यालय परिसर में ही संघभवन के निर्माण की अनुमति दे दी । इस प्रसंग में प्रोफेसर राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया) अपने संस्मरण में कहते हैं, "महामना ने संघ के कार्य के लिए एक छोटा सा भवन बनाने का आदेश उस समय के प्रतिकुलपति (१९४०) राजा ज्वाला प्रसाद को दिया । संघ के स्वंयसेवकों ने भी दो दिनों में कुछ राशि एकत्रित कर विश्वविद्यालय को अर्पित की । उसके फलस्वरूप ही "संघ स्टेडियम" नाम से लॉ कॉलेज (वर्तमान विधि संकाय) के पास एक छोटा सा भवन संघ को प्राप्त हुआ ।" विश्वविद्यालय के अभिलेखों में यह 'आर.एस.एस.आर्मरी' के रूप में भी उल्लिखित है । अमेरिकी लेखिका श्रीमती ली रेनोल्ड लिखती हैं कि सन १९३७-३८ ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के दो कमरों के एक भवन को निर्माण की अनुमति दे दी । विश्वविद्यालय ने इसके लिए कोई धन नहीं दिया । काशी के श्री सद्गोपाल के अनुसार मालवीय जी द्वारा दी गयी भूमि पर दो कक्ष तथा बीच में वरामदा निर्मित हुआ, सामने विशाल संघ स्थान था । बरामदे में मालवीय जी की मूर्ति लगायी गयी । लागत आई एक हजार पचास रुपये, जिसे विश्वविद्यालय के स्वंयसेवकों द्वारा एकत्रित धनराशि से दिया गया । आपातकाल के दौरान यह भवन २६ अप्रैल १९७६ की रात्रि में गिरा दिया गया  और रात में ही उसका मलबा भी हटा दिया गया । प्रातः वहाँ घास लगा लॉन देखने को मिला । स्वंयसेवकों का ह्रदय मर्माहत हो उठा ।  


अन्य सुधार कार्य


मालवीय जी ने जन्मना जाति की उच्चता या नीचता के स्थान पर गुण एवं कर्म पर इसके आगे जाति-पाँति नहीं मानता ।" प्रथा का तो कटु विरोध किया ही, अंतर्जातीय विवाह, बलि-प्रथा और पर्दा-प्रथा आदि के विरुद्ध जमकर आन्दोलन बाल विवाह को वे नरक तुल्य मानते थे और कहते थे कि यदि कन्या की कम शादी-सम्बन्ध का वे समर्थन करते थे । उन्होंने स्वंय अपने पुत्र और जबकि वे स्वंय महिलाओं के सम्बन्ध में उनकी मान्यता थी कि देश की समस्त ताकि किसी भी अपनी इसी इच्छा से प्रेरित होकर

 

भी वेद का अध्ययन-अध्यापन कर सकती है- इसके वे बड़े समर्थक थे । सन १९०७ के अपने 'नामक पत्र में उन्होंने लिखा था- "जातीय जीवन के पुनरुत्थान के लिए स्त्री-शिक्षा के पवित्र कार्य को उत्साह के साथ किया मालवीय जी अपना अनाथाः विधवाः रक्ष्या, मंदिराणी तथा च गौ ।
धर्म संगठनं कृत्वा, देंय दानं च तद्धितम् ।।
स्त्रीणां समादरः कार्यो, दुखितेषु दया तथा ।
अहिंसका न हंतव्या, आततायी वधाहर्ण: ।।


आचार-विचार के मानक


मालवीय जी में बचपन से ही धर्म-सेवा का प्रबल भाव था । उनका स्वराज भी स्वधर्म से अलग नहीं था । हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म को संस्कारयुक्त करने तथा उसका पुनर्निर्माण करने के लिए उनके ह्रदय में बड़ी विकलता थी । भारत पुनः धर्मगुरु बने तथा विश्वगुरु के पद पर आसीन हो, यह उनकी कामना थी । इसलिए कांग्रेस द्वारा चलाये गए असहयोग आन्दोलन की समाप्ति के बाद उन्होंने हिन्दू संगठन का आन्दोलन प्रारम्भ किया, जिसके फलस्वरूप हिन्दू धर्म-सुधार   की अनेकानेक शाखाएँ खुल गयीं । हिन्दू धर्म के विविध धार्मिक आयोजनों में सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए उन्होंने 'महावीर दल' की स्थापना की । काशी में हुए सातवें 'हिन्दू महासभा' के अधिवेशन में 'हिन्दू' शब्द को नए ढंग से परिभाषित किया गया, अर्थात "भारत में स्थापित किसी भी धर्म का अनुयायी हिन्दू है ।" इस परिभाषा ने भारतीय संस्कृति की एकता का सन्देश दिया । यहाँ तक कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की ईंटों पर और नींव में रखे गए धातु-पत्रों पर भी 'हिन्दू' शब्द अंकित है । विश्व के इस ख्यातिलब्ध विश्वविद्यालय को इस आशय के साथ विकसित किया गया है कि इसके माध्यम से मालवीय जी और हिन्दू धर्म- दोनों के प्रतिबिम्ब की झलक मिल सके । महामना जी ने अपने आचार-विचार के जो मानक निश्चित किये, उसमें कई ऐसी बातें थीं, जो सनातन रूप से प्रासंगिक रहीं हैं, जैसे भिक्षा का अन्न खाना अच्छी बात नहीं है, सभी कार्य धर्म और सेवा भावना से करना चाहिए, 'हारिए न हिम्मत बिसारिए न हरिनाम', किसी की जीविका का हरण महापाप है, सदाचार पांडित्य से ऊपर है, विपत्ति मुक्ति के लिए 'गजेन्द्र-मोक्ष' का पाठ सबसे उत्तम है, जीव हिंसा से बचने की सदा चेष्टा करनी चाहिए और धर्माचार का दृढ़ता से पालन करना चाहिए ।


भारत भूमि


मालवीय जी अपने धार्मिक और समाजोत्थान से जुडी सभाओं में दिए गए अपने प्रवचनों में यह बताना नहीं भूलते थे कि यह भारतवर्ष बड़ा पवित्र देश है । धन और सुख का प्रदाता यह देश सभी देशों में उत्तम है । इस देश की उन्नति के कामों में देशभक्त पारसी, मुसलमान, ईसाई और यहूदियों को हिन्दुओं के साथ मिलकर काम करना चाहिए । यह देश इतना पवित्र है कि देवता लोग भी यहाँ जन्म लेने की कामना करते हैं । यहाँ के लोग धन्य हैं । इस भारतभूमि पर जन्म लेने से मनुष्य स्वर का सुख और मोक्ष, दोनों प्राप्त कर सकता है । यह हमारी मातृ और पितृ भूमि है । यह राम, कृष्ण, बुद्ध आदि देव-पुरुषों, महात्माओं, ब्रहमऋषियों और राजऋषियों, धर्मवीरों, शूरवीरों, दानवीरों और स्वतंत्रता के प्रेमी देशभक्तों की उज्जवल कर्मभूमि है । इस देश में रहते हुए हमें भगवान के प्रति परम भक्ति का भाव रखना चाहिए और धन से भी इसकी सेवा करनी चाहिए । इस धर्म के सभी माननेवालों के लिए भगवान का वचन है- "चातुवर्ण्य मया सृष्टा गुण धर्म विभागश: ।" अर्थात गुण और कर्म के विभाग से मेरे द्वारा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, ये चार वर्ण उपजाये गए हैं । साथ ही उनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को साधने में सहायक मनुष्य का जीवन पवित्र बनाने वाले  ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, बानप्रस्थ और संन्यास, ये चार आश्रम स्थापित हैं । सब धर्मों से श्रेष्ठ इसी धर्म को 'हिन्दू धर्म' कहते हैं । जो लोग सारे संसार का उपकार चाहते हैं, उनको उचित है कि इस धर्म की रक्षा करें ।

 


Mahamana Madan Mohan Malaviya