हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक
डॉo जयराम मिश्र
महामना मालवीय जी हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। हाँ, यह बात अवश्य है कि एक का दूसरे के ऊपर अनाचार और अत्याचार नहीं सहन कर सकते थे। इस सम्बन्ध में उनका 28 जून, सन् 1933 ई0 का भाषण पठनीय है। उन्होंने यह भाषण लाहौर में दिया था-
“हिन्दू बलवान् होकर मुसलमानों को तकलीफ दें, ऐसी मेरी स्वप्न में भी कल्पना नहीं है। मेरे मन में ऐसा विचार आया कि मैं धर्मच्युत हुआ। मेरी सदा यही इच्छा है कि हिन्दू और मुसलमान शक्तिमान् हों और जगत् के अन्य समाजों के साथ खडे़ होने लायक बनें। हिन्दू और मुसलमान एकत्र हों और उनके अखाडे़ भी एक ही हों।”
“मेरा अपने धर्म में दृढ़-विश्वाश है परन्तु परधर्म के अपमान करने की कल्पना मेरे मन को छू तक नहीं गयी। किसी गिरजाघर अथवा मसजिद के पास से जब मैं जाता हूँ, तब मेरा मस्तक अपने आप झुक जाता है। जब कि पपरमेश्वर एक ही है, तो लड़ने का कारण क्या? भूमि एक, देश एक, वायु एक, ऐसी परिस्थिति में रहते हुए भी आपस में दंगे-टंटो का होना, इससे बढ़कर और आश्चर्य की बात क्या हो सकती है? हमारा रक्षण विदेशी सेना करे, यह बड़ी लज्जा की बात है।”
मार्च सन् 1931 ई0 कानपुर में हिन्दू-मुसलमानों का भीषण दंगा हुआ। उसके बाद 11 अप्रैल को कानपुर में एक भारी खुली सभा हुई। इस सभा में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही एकत्र थे। पंडित जी ने अपने उद्गार इस भाँति अभिव्यक्त किये।
“मैं मनुष्यता का पूजक हूँ। मनुष्यत्व के आगे मैं जातपाँत नहीं मानता। कानपुर में जो दंगा हुआ, उसके लिये हिन्दू या मुसलमान इनमें से एक जाति की जवाबदेही नहीं है। जवाबदेही दोनों जातियों पर समान है। मेरा आप से आग्रहपूर्वक ऐसा कहना है कि ऐसी प्रतिज्ञा कीजिये कि अब भविष्य में अपने भाइयों से ऐसा युद्ध नहीं करेगे।” मालवीय जी के विचार कितने उदात्त और भव्य है।
महामना मालवीय जी का देश की सशक्त राजनीतिक संस्था कांग्रेस से प्रारम्भ से ही अटूट सम्बन्ध रहा। 28 दिसम्बर सन् 1886 ई0 को कलकत्ते में स्वर्गीय श्री दादा भाई नौरोजी के सभापतित्व में कांग्रेस का दूसरा अधिवेशन प्रारम्भ हुआ। सभी प्रान्तों के चार सौ चालीस प्रतिनिधि एकत्र हुए थे। मालवीय जी ने भी उस कांग्रेस में अपना ललित भाषण अंगेजी में दिया। उनकी वक्तृता में शेर की दहाड़ का प्रभाव था। उनके भाषण में बाईस बार तालियाँ बजीं। सारे राष्ट्र ने उस पचीस वर्ष के गोरे, छरहरे, एकहरे, शरीर वाले नवयुवक को सब दिन के लिये अपना नेता बना लिया, इस सम्बन्ध में ह्यूम साहब ने कलकत्ता कांग्रेस की रिपोर्ट में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं, “जिस वक्तृता के लिये कांग्रेस-मण्डप में कई बार तालियाँ बजीं और जिस वक्तृता को जनता ने बड़े उत्साह से सुना, वह उच्चकुलीन ब्राह्मण पण्डित मदनमोहन मालवीय की वक्तृता थी, जिनके गौर वर्ण, मनोहर आकृति ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और अचानक सभापति की बराबर वाली कुर्सी पर कूदकर ऐसा सुन्दर ओजस्वी और धाराप्रवाह व्याख्यान दिया कि सब दंग रह गये।” कांग्रेस के आन्दोलन में उन्हें सरकारी मेहमान भी होना पड़ा। उनका जेल-जीवन भी अत्यन्त पुनीत, साधना और तपच्श्रर्यामय था।
मालवीय जी का देहान्त 12 नवम्बर सन् 1946 ई0 को हो गया पर उनकी अमर कीर्ति चिर धवल रहेगी। मालवीय जी के पचासी वर्ष के जीवन के साथ भारतवर्ष के पचासी वर्षों का इतिहास संलग्न है। उनका व्यक्तित्व असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न है। उनके एक-एक गुण स्मरण कर हम अपने को पावन बना सकते हैं।
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